धीरूबेन पटेलः हर उम्र और लिंग के पाठक तक पहुंचने वाली मुकम्मल शख्सियत

वह पूरी दुनिया को बदल देने का सपना पालने वाली कोई कट्टर स्त्रीवादी न होकर सभी महिलाओं खासकर गृहिणियों के लिए समानता और समभाव की समर्थक थीं। वह चाहती थीं कि औरत पढ़े-लिखे, खुद को व्यक्त करे और सीमाओं से परे जाकर समूहों की रचना करे।

फोटोः सोशल मीडिया
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नवजीवन डेस्क

सब कहते हैं कि बुढ़ापा दूसरा बचपन है। लेकिन धीरूबेन पटेल ने अपने जीवन के नौवें दशक में बताया कि उनका बचपन कितना अर्थपूर्ण था। यह सब बताते हुए वह अपने अंदर अपने बचपन को जीवित रखती हैं और उन यादों को अपनी उंगलियों के पोर पर गिनाती भी हैं! साहित्य-संस्कृति की दुनिया के लिए धीरूबेन पटेल एक हस्ती थीं। बहुमुखी प्रतिभा की धनी ऐसी गुजराती महिला जो एक साथ कई विधाओं में सक्रिय थीं। मेरे लिए वह दयालु, बालसुलभ, श्रमशील रचनात्मक शख्सियत थीं। जब मैं पंद्रह साल की थी, तभी से मेरी दोस्त, दार्शनिक और मार्गदर्शक।

मैं न सिर्फ अपना शुरुआती लेखन, खासतौर से कविताएं बल्कि स्कूल की प्रायः हर छोटी-बड़ी गतिविधि उनसे साझा करती। कोरियोग्राफी के मेरे सेशन, मेरी यात्रा योजनाएं, उनके फोटो, यहां तक कि अपना सारा का सारा पर्सनल सीक्रेट भी (जो मुझे लगता कि उनके पास गोपनीय और सुरक्षित रहेगा)। ऐसा करने वाली मैं अकेली नहीं थी! उनके पास किसी को भी आकर्षित करने की अद्भुत क्षमता जैसा उपहार था- चाहे वह किशोर हो या कोई अस्सी साल वाला- उसी सहजता वाला जैसे वह लिखती थीं।

उन्होंने न सिर्फ प्रचुर मात्रा में लिखा, स्वयं भी अद्भुत अध्ययनशील थीं बल्कि ऐसी रुचि वाले अन्य लोगों को भी खूब पढ़ने, अच्छा लिखने, पाठक का एक भी क्षण बर्बाद न करने को प्रेरित करतीं। 2015 में मुंबई छोड़कर अहमदाबाद जाकर बस गईं, तब भी हमारी यह 22 साल से ज्यादा चली दोस्ती की मजबूती उनकी अंतिम सांस तक वैसी ही बनी रही। वह मुझे अपनी ‘सबसे छोटी दोस्त’ कहती थीं, और मुझे यह जीवन की सबसे मूल्यवान चीज लगती है जिसे मैं हर बात से ऊपर रखती हूं।

धीरूबेन पटेल आजादी पूर्व भारत के एक प्रगतिशील परिवार में ऐसे वक्त में जन्मीं जब राष्ट्रीयता का आंदोलन चरम पर था। उनके पिता गोरधनभाई पटेल बॉम्बे क्रॉनिकल के बड़े पत्रकार थे और मां गंगाबेन राजनीतिक कार्यकर्ता और अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी की सदस्य। स्वतंत्रता सेनानी माता-पिता से गांधीवादी मूल्यों की विरासत हासिल करने वाली धीरूबेन गांधी जी की भक्त रहीं, आजीवन खादी पहनी लेकिन पारंपरिक अर्थों में कभी ‘गांधीवादी’ नहीं रहीं। बम्बई के पोद्दार स्कूल में शिक्षित धीरूबेन ने एलफिस्टन कॉलेज से अंग्रेजी में मास्टर्स की पढ़ाई पूरी की। एक घनघोर मुंबइकर की पहचान वाली धीरूबेन ने अपना सारा जीवन एक आरामदायक, उच्च-मध्यवर्गीय वातावरण में बिताया और सांताक्रूज में अप्रतिम सुंदर विरासत वाले घर से जुड़ी रहीं।


बचपन से ही पढ़ाकू, नन्हीं धीरू खुद को ही चिट्ठी लिखतीं और उनमें बड़े पैमाने पर बच्चों, किशोरों और समाज के बड़े वर्ग के लिए अच्छी-अच्छी किताबें लिखने के बड़े-बड़े वादे होते। उनके काम को देखते हुए मैं कह सकती हूं कि उन्होंने हर उम्र और लिंग के पाठक तक पहुंचकर अपने स्वयं के संकल्प को किस महत्वपूर्ण तरीके से पूरा किया। आजाद भारत में अपने शुरूआती दौर (20-22 वर्ष के आसपास) में जब वह एक लेखक के तौर पर प्रवेश कर रही थीं, स्त्री लेखन और वह भी क्षेत्रीय भाषाओं में अपने शैशवकाल में था। जो लिखा भी जा रहा था, वह आमतौर पर सामाजिक-पारिवारिक नाटक होते और जिनकी सीमा आदर्श पत्नी या आदर्श परिवार के बखान से आगे न जा पाती।

ऐसे में एक महिला के लिए पुरुष लेखकों के बनाए दायरे में प्रवेश की कोई आसान गुंजाइश नहीं बचती थी। मुख्यधारा में लगभग एक दशक की लेखन सक्रियता के बावजूद धीरूबेन अब भी लेखन की आधुनिकतावादी धारा पर पितृसत्तात्मक वर्चस्व का सामना और संघर्ष कर रही थीं। धीरूबेन ने वर्चस्व की इस धारा को तोड़ा। खुद को स्त्रीवादी घोषित किए बिना, स्त्रीवादी नजरिये से स्त्री-जागरूकता के बारे में उसी तरह खूब लिखा जैसे ‘गांधीवादी’ का बिल्ला लगाए बगैर गांधी के आदर्शों के बारे में। उनका कैनवस विशाल और बहुरंगी था लेकिन काल्पनिक या अवास्तविक नहीं। उनके चरित्र कभी भी काले या सफेद नहीं थे, गणितीय भी नहीं बल्कि वे ग्रे, जमीन से जुड़े हुए और नजरिये में व्यावहारिक सोच वाले होते। वह इस रूढ़ि के सख्त खिलाफ थीं कि स्त्री का लेखन भावनात्मक और दर्द में डूबा हुआ ही होना चाहिए। मैं यहां उनके लिखे कुछ मजाहिया उपन्यासों के बारे में सोच रही हूं जिनके नाम ही ‘परदुःखभंजन पेस्टनजी’ और ‘गगन ना लगन’ हैं।

लिखना उन्हें अच्छा लगता था। या यूं कह लें, जैसा वह अक्सर कहती भी थीं: केवल यही एक चीज थी जिसे वह जानती थीं कि यह कैसे करना है! उनका यह प्रेम सभी विधाओं के लिए समान था- मतलब, लंबे नाटक, फीचर फिल्में, पटकथा, उपन्यास, लघु कथाएं और कविताएं। उन्होंने बच्चों के लिए नाटक ही नहीं लिखे, बच्चों की फिल्में हेदा होदा (2003) और हारून अरुण (2009) भी लिखीं। आशीष कक्कड़ की 2016 की फिल्म ‘मिशन मम्मी’ उनके नाटक ‘मम्मी! तू आवि केवी’ पर आधारित थी जिसका निर्देशन मनोज शाह ने किया था। केतन मेहता की अविस्मरणीय फिल्म ‘भवनी भवाई’ (1980) की पटकथा उन्होंने ही लिखी थी। उन्होंने गुजराती फिल्मों के लिए गीत भी लिखे जिन्हें आशा भोंसले और येसुदास का स्वर मिला। ‘किचन पोयट्री’ की विधा में हाथ डाला तो अंग्रेजी में सौ से ज्यादा कविताएं लिखीं जिनका बाद में जर्मन, हिन्दी, मराठी और हां, गुजराती में भी अनुवाद हुआ। इन्हें रेडियो और नाटकीय प्रस्तुतियों के भी अनुकूल माना गया और व्यापक इस्तेमाल हुआ।

उन्हें खासे सम्मान और पुरस्कार मिले जिनमें प्रतिष्ठित रंजीतराम सुवर्णा चंद्रक (1980), चर्चित उपन्यास ‘आगंतुक’ (अंग्रेजी में राज सुपे द्वारा अनूदित ‘रेनबो ऐट नून’) के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार (2001) प्रमुख हैं। स्पष्टवादी और दृढ़ व्यक्तिव वाली धीरूबेन एक ऐसी शख्सियत थीं जिन्हें कभी कोई बड़ा से बड़ा व्यक्ति भी उनके इरादे से डिगा नहीं पाया। वह गांधीजी से एक बच्चे के रूप में और बड़े होते हुए श्री रमण महर्षि से मिलीं जिनकी अनुयायी उनकी मां भी थीं। लेकिन इनमें से किसी ने उन्हें बिना सोचे-समझे किसी भी विचार को अपनाने के लिए प्रभावित या प्रेरित नहीं किया। उनके लिए आध्यात्मिकता सरल मानववाद का दूसरा नाम था। स्वयं के प्रति जवाबदेह होना, अपनी अंतरात्मा की आवाज सुनना ही एकमात्र धर्म था। उन्होंने बाद में रमण महर्षि की रचनाओं का अनुवाद भी किया लेकिन इसमें भक्ति नहीं, उनके प्रति ‘सम्मान’ भाव ज्यादा था।


वह पूरी दुनिया को बदल देने का सपना पालने वाली कोई कट्टर स्त्रीवादी न होकर सभी महिलाओं खासकर गृहिणियों के लिए समानता और समभाव की समर्थक थीं। वह चाहती थीं कि औरत पढ़े-लिखे, खुद को व्यक्त करे और सीमाओं से परे जाकर समूहों की रचना करे। उनकी किचन पोयम्स में साहित्यिक स्वाद के साथ लैंगिक संवेदनशीलता साफ दिखाई देती है। उन्होंने लगभग एक दशक तक मुंबई के विभिन्न कालेजों में अंग्रेजी पढ़ाई लेकिन बहुत जल्द ही महसूस कर लिया कि सिर्फ क्लासरूम में पढ़ाना ही पर्याप्त नहीं है या कि वह जो देना चाहती हैं वह सिर्फ कक्षाओं से संभव नहीं है और इसके लिए लेखन बेहतर प्रभावी माध्यम हो सकता है।

सिर्फ अपने अधिकार के लिए कलम चलाने की बात से असहमत धीरूबेन ने महिलाओं को लेखन के प्रति प्रेरित करने, स्त्री लेखन को बढ़ावा देने के लिए मुंबई में ‘लेखिनी’ और अहमदाबाद में ‘विश्वा’ जैसे समर्पित संगठनों की स्थापना की। उन्होंने गुजराती साहित्य परिषद के प्रमुख के तौर पर अपने कार्यकाल में पत्रिकाओं के संचालन-संपादन के साथ कार्यशालाओं की परंपरा डाली और महिलाओं को गंभीर लेखन के प्रति उन्मुख करने के लिए उन्हें आमंत्रित किया। यह काम मुंबई में भी इसी शिद्दत से करती रहीं। गुजराती साहित्य परिषद के सौ साल के इतिहास में इसके प्रमुख का पद संभालने वाली वह अकेली महिला रहीं। उन्हें भाषा, खासतौर से गुजराती के भविष्य को लेकर बहुत चिंता थी कि इतनी बड़ी संख्या में बच्चे अपनी मातृभाषा से विमुख कैसे होते जा रहे हैं।

उत्साह से लबरेज मन-मस्तिष्क वाली धीरूबेन को ‘इलेवेंथ ऑवर राइटर’ यूं ही नहीं कहा जाता था। रातों-रात लिखे उनके गानों पर धमाल मच जाने के ऐसे तमाम किस्से हैं जब लोगों ने दांतों तले उंगली दबा ली। ऐसी ही एक गजल भी है जो उन्होंने अपने जीवन में पहली बार निर्माता की मांग पर एक गुजराती फिल्म के लिए लिखी थी! लघु कथाएं तो ठीक, उन्होंने तो एक उपन्यास ‘वंसनो अंकुर’ (बांस की कोंपल) महज पांच दिन में लिख डाली थी। गति, शैली और कथ्य उनके लिए एक झटके में कलम की नोंक पर एक साथ एक लय में आते दिखते थे।

धीरूबेन के काम की व्यापकता और हर काम में उनके द्वारा दिए गए स्पेस को देखती हूं तो चकित हुए बिना नहीं रहती। वह अपने पाठकों और प्रकाशक के प्रति वफादार रहीं और अपने मूल्यों और सिद्धांतों से भी कभी कोई समझौता नहीं किया। लिखना भी पूरी तरह सोच-समझ कर और अंतर्मन की आवाज पर, भीतर से जरूरत महसूस होने पर किया। खुद के लिए डटकर खड़ी हुईं तो औरों के लिए भी खड़ी दिखीं। बहादुरी से, अच्छी तरह लड़ीं और हमेशा ‘अजातशत्रु’ बनी रहीं। अब जब वह हमें छोड़कर जा चुकी हैं, हम उनकी विरासत को याद करने, उसे संभालने, आगे ले जाने की बात कर सकते हैं। अपनी बात करूं तो मैं उन्हें अभी भी लिखते हुए देख सकती हूं- यह शायद स्वर्गलोक की अपनी यात्रा पर एक मजाहिया उपन्यास का लिखा जाना हो, या फिर पृथ्वी पर अपने होने के चित्रगुप्त के लेखे-जोखे में टाइपो को दुरुस्त करना। कुछ ऐसा ही!

(नवजीवन के लिए डॉ खेवाना देसाई का लेख। खेवना मीठीबाई कॉलेज, मुंबई में समाजशस्त्र पढ़ाती हैं)

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Published: 26 Mar 2023, 7:23 PM