गूगल ने पिछड़ों के हक के लिए लड़ने वाली साहित्यकार महाश्वेता देवी के सम्मान में बनाया डूडल

साहित्यकार महाश्वेता देवी के जन्मदिन पर गूगल ने उन्हें डूडल के जरिये सम्मान दिया है। महाश्वेता देवी पूरी जिंदगी लेखन के साथ महिलाओं, दलितों और आदिवासियों के अधिकारों के लिए जमीन पर संघर्ष करती रहीं।

फोटोः स्क्रीनशॉट
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आसिफ एस खान

14 जनवरी, 1926 को आज के बंग्लादेश की राजधानी ढाका में पैदा हुईं महाश्वेता देवी को गूगल ने अपने शानदार डूडल के दरिये श्रद्धांजलि दी है। गूगल द्वारा पेश डूडल में बंगाली शैली में धोती यानी साड़ी पहने महाश्वेता देवी कुछ लिखती नजर आ रही हैं। डूडल में उनके पीछे अलग-अलग सभ्यता, संस्कृति, भाषा, परिवेश के लोगों का चेहरा नजर आ रहा है। जो इस बात को इंगित करता है कि महाश्वेता देवी ना सिर्फ अपनी लेखनी में बल्कि धरातल पर भी पूरी जिंदगी समाज के हर तबके के लिए संघर्ष करती रहीं।

साहित्यकार महाश्वेता देवी यूं तो बंगाल से आती थीं और मूल रूप से बांग्ला भाषा की लेखिका थीं, लेकिन इसके बावजूद वह हर भाषा, हर समाज में एक सम्मानित नाम हैं। वह भारत की प्रसिद्ध सामाजिक कार्यकर्ता और लेखिका थीं। लेखक होने से पहले औऱ कहीं ज्यादा वह एक सामाजिक कार्यकर्ता थीं। बांग्ला भाषा में अपने बेहद संवेदनशील तथा वैचारिक लेखन से उन्होंने संपूर्ण भारतीय साहित्य को समृद्धशाली बनाया। लेखन के साथ-साथ पूरी जिंदगी महाश्वेता देवी ने स्त्री अधिकारों, दलितों तथा आदिवासियों के हितों के लिए व्यवस्था से संघर्ष किया। उनके लेखन के लिए 1996 में उन्हें देश के सर्वोच्च साहित्य सम्मान 'ज्ञानपीठ पुरस्कार' से सम्मानित किया गया।

महाश्वेता देवी का जन्म 14 जनवरी, 1926 को अविभाजित भारत के ढाका के जिंदबहार लेन में हुआ था। उनकी मां धरित्री देवी और पिता मनीष घटक थे। उनके माता-पिता दोनों ही साहित्यकार थे। पिता मनीश घटक एक प्रसिद्ध कवि और लेखक थे तो मां भी साहित्य की गंभीर अध्येता थीं और समाज सेवा में गहरी रुचि रखती थीं। भारत विभाजन के समय उनका परिवार पश्चिम बंगाल में आकर रहने लगा था। महाश्वेता देवी उस समय किशोरावस्था में ही थीं। वहीं उन्होंने 'विश्वभारती विश्वविद्यालय', शांतिनिकेतन से अंग्रेज़ी विषय के साथ बीए पास किया। फिर उन्होंने 'कलकत्ता विश्वविद्यालय' से एम.ए. भी अंग्रेज़ी में ही किया। इसके बाद महाश्वेता देवी ने एक शिक्षक और पत्रकार के रूप में अपना जीवन प्रारम्भ किया। कुछ ही दिनों बाद कलकत्ता विश्वविद्यालय में अंग्रेज़ी व्याख्याता के तौर पर उनकी नियुक्ति हो गई। यहीं से 1984 में वह सेवानिवृत्ति हुईं।

महाश्वेता देवी ने कम उम्र में ही लिखना शुरू कर दिया था। शुरुआत में उन्होंने विभिन्न छोटी-बड़ी साहित्यिक पत्रिकाओं के लिए लघु कथाएं लिखीं। 1939 में शांतिनिकेतन से वापस कलकत्ता लौटने के बाद उनका दाखिला बेलतला बालिका विद्यालय में आठवीं कक्षा में हुआ। स्कूल में उनकी एक शिक्षिका थीं अपर्णा सेन, जिनके बड़े भाई ‘रंगमशाल’ निकालते थे। उन्होंने एक दिन महाश्वेता को रवींद्रनाथ की पुस्तक ‘छेलेबेला’ देते हुए उस पर कुछ लिखकर लाने को कहा। महाश्वेता ने लिखकर दे दिया और वह ‘रंगमशाल’ में छप गया। यही महाश्वेता की पहली रचना थी। स्कूली जीवन में ही महाश्वेता देवी ने सहपाठियों के साथ मिलकर एक स्वहस्तलिखित पत्रिका भी निकाली थी।

1942 के 'भारत छोड़ो आंदोलन' ने महाश्वेता देवी के किशोर मन को बहुत उद्वेलित कर दिया था। उसके बाद 1943 में भीषण अकाल पड़ा, जिसमें उन्होंने राहत और सेवा कार्यों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। अकाल के बाद उन्होंने कम्युनिस्ट पार्टी के मुखपत्र ‘पीपुल्स वार’ और ‘जनयुद्ध’ की बिक्री भी की। हालांकि वह कभी पार्टी की सदस्य नहीं बनीं। 1947 में उनका विवाह प्रख्यात रंगकर्मी विजन भट्टाचार्य से हुआ। 1948 में उनके घर पुत्र नवारुण भट्टाचार्य का जन्म हुआ। विजन भट्टाचार्य के साथ विवाह होने से ही महाश्वेता देवी जिंदगी के स्याह पक्ष को महसूस कर सकीं। जिसके बाद उन्होंने स्वेच्छा से संघर्षशील जीवन का रास्ता चुना।

महाश्वेता देवी की पहली किताब ‘झांसी की रानी’ 1956 में आई। उसके बाद दूसरी पुस्तक ‘नटी’ 1957 में और फिर ‘जली थी अग्निशिखा’ आई। ये तीनों किताबें 1857 के महासंग्राम पर केंद्रित हैं। अपनी सबसे कालजयी रचना ‘अरण्येर अधिकार’ (जंगल के दावेदार) में महाश्वेता देवी ने समाज में व्याप्त शोषण और उसके खिलाफ धधकते विद्रोह को रखांकित किया हैं। ‘अरण्येर अधिकार’ बिरसा मुंडा पर आधारित उपन्यास है, जिन्होंने ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विरुद्ध जनजातीय विद्रोह का बिगुल फूंका था। 1979 में इस किताब के लिए उन्हें ‘साहित्य अकादमी’ पुरस्कार प्रदान किया गया था। उनकी कुछ महत्त्वपूर्ण कृतियों में 'अग्निगर्भ', 'जंगल के दावेदार' और '1084 की मां', 'माहेश्वर' और 'ग्राम बांग्ला' आदि हैं। अब तक उनकी छोटी-छोटी कहानियों के बीस से भी ज्यादा संग्रह और 100 के करीब उपन्यास प्रकाशित हो चुके हैं। उनकी कई कृतियों पर फिल्में भी बनी हैं। जिनमें 1968 में 'संघर्ष', 1993 में 'रूदाली', 1998 में 'हजार चौरासी की मां', 2006 में 'माटी माई' प्रमुख हैं।

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