...हर जन्म में मैं कांग्रेस की ही सेवा करना चाहूंगी

तमाम पत्रकार उन्हें ‘शीला आंटी’ कहते थे। उनसे अच्छे रिश्ते के बावजूद पत्रकारों ने कभी उनके खिलाफ लिखने में मुरव्वत नहीं की। वह आलोचना को बड़े स्वस्थ तरीके से लेती थीं और कभी किसी खबर के लिए पत्रकार के पीछे नहीं पड़ीं, और न ही अखबार मालिकों से शिकायत की।

फोटोः सोशल मीडिया
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जंगल में आग की तरह खबर फैली। इससे पहले कि अस्पताल से उनका शव लाया जाता, उनके निजामुद्दीन स्थित घर पर लोगों की भीड़ जुट चुकी थी। पूर्व परिवहन मंत्री रमाकांत गोस्वामी बड़ी मुश्किल से बोल पाए, ‘दीदी नहीं रही भाई।’ एक कांग्रेस कार्यकर्ता मंजू बार-बार कह रही थी, ‘अम्माजी से मिलना है। अम्माजी कहां हैं?’

जैसे ही शीला दीक्षित के निधन की बात फैली, तमाम वरिष्ठ अफसर सच्चाई जानने के लिए बेचैन हो उठे। कई को भरोसा ही नहीं हो रहा था... ‘वह तो एकदम ठीक-ठाक थीं।’ अगले ही पल वे उनसे हुई बातचीत का हवाला देते हुए भावुक हुए जा रहे थे। इसी बीच, संदीप दीक्षित और उनकी बहन लतिका एंबुलेंस में शीला दीक्षित का पार्थिव शरीर लेकर पहुंचते हैं और माहौल एकदम से भारी हो जाता है।

शीला दीक्षित का निधन एक ऐसा मौका था जिसने तमाम राजनीतिक विरोधियों को एक साथ ला खड़ा किया। उन्हें श्रद्धांजलि देने वालों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से लेकर सोनिया गांधी, राजनाथ सिंह से लेकर के. नटवर सिंह सब थे। अंतिम विदाई देने वालों में ऐसे आम लोगों की खासी भीड़ थी जिनकी पहले कभी शीला दीक्षित से मुलाकात नहीं हुई। कोई उन्हें मां सदृश देखता था तो कोई दोस्त तो कोई उन्हें एक मंझे हुए नेता के तौर पर सम्मान देता था।

वहीं दिल्ली में पत्रकारिता करने वाले तमाम पत्रकार उन्हें ‘शीला आंटी’ कहते थे। उनसे अच्छे रिश्ते के बावजूद पत्रकारों ने कभी उनके खिलाफ लिखने में मुरव्वत नहीं की। वह आलोचना को बड़े स्वस्थ तरीके से लेती थीं और कभी किसी खबर के लिए पत्रकार के पीछे नहीं पड़ीं, अखबार मालिकों से शिकायत नहीं की।


मेरी उनसे पहली मुलाकात तब हुई जब 1998 में वह दिल्ली प्रदेश कांग्रेस समिति की अध्यक्ष चुनी गई थीं और पूर्वी दिल्ली लोकसभा सीट से चुनाव लड़ रही थीं। मैंने उनसे इंटरव्यू के लिए समय ले रखा था और नियत समय से पहले ही उनके आवास पर पहुंच गया। लेकिन वहां इतनी भीड़ थी कि उनके आसपास भी नहीं पहुंच सका। बड़ी मशक्कत करके जब उन तक पहुंचा तो वह कार में बैठकर निकलने ही वाली थीं।

मैंने अपना परिचय दिया और उनका तत्काल जवाब था- सॉरी बेटा, आप बैठ जाओ, कार में ही बात कर लेंगे… आपको कोई दिक्कत तो नहीं होगी? मैंने थोड़ी हड़बड़ाहट के साथ ‘ना’ में सिर हिलाया और फिर उन्होंने अपने निजी सचिव अखिलेश त्रिपाठी से मुझे कार में बैठा लेने को कहा। मेरा पहला सवाल था- ‘मैम, ऐसा माना जाता है कि आप दिल्ली की राजनीति के लिए बाहरी हैं और इसलिए आपको दिल्ली के मुद्दों का अंदाजा नहीं।’ उन्होंने बड़ी शालीनता से कहा, ‘मैं इसी शहर में पढ़ी और जीवन का ज्यादा हिस्सा यहीं बिताया। मुझे दिल्ली के मुद्दों की जानकारी है। इसके बाद भी अगर लोग मुझे बाहरी समझते हैं तो मुझे नहीं पता कि वे ऐसा क्यों मानते हैं।’

पांच लाख से ज्यादा वोट हासिल करने के बाद भी शीला दीक्षित वह चुनाव हार गई थीं। तब बीजेपी में जबर्दस्तअंदरूनी लड़ाई चल रही थी। मदनलाल खुराना के बाद पार्टी ने साहिब सिंह वर्मा को मुख्यमंत्री बनाया, लेकिन वह जल्दी ही भ्रष्टाचार के मामले में फंस गए। अगले चुनाव को ध्यान में रखते हुए बीजेपी ने वर्मा की जगह सुषमा स्वराज को मौका दिया। लेकिन बीजेपी की अंतर्कलह, प्याज संकट और इधर सोनिया गांधी से निकटता शीला दीक्षित के पक्ष में गया और 52 सीटों के साथ चुनाव जीतकर 1998 में वह दिल्ली की मुख्यमंत्री बनीं।

शीला दीक्षित एक शानदार मेजबान थीं। उनका सालाना लंच शहर में चर्चा का विषय हुआ करता था। उस दौरान वह यह सुनिश्चित करतीं कि हर व्यक्ति से कुछ न कुछ बात कर लें। हर साल हम पत्रकारों को दावत देतीं और मुझसे कहा करतीं, ‘बेटा, आपने मछली टेस्ट किया? बहुत अच्छी बनी है, आप खाकर देखें।’ महिला पत्रकारों से वह ड्रेस पर बात करतीं। बुजुर्गों से उनके स्वास्थ्य के बारे में पूछतीं और विधायकों-मंत्रियों से मेहमानों का ख्याल रखने को कहतीं।


एक बार मुझे स्पेशल संस्करण ‘मूड ऑफ दि नेशन’ के लिए मार्केटिंग एक्जीक्यूटिव्स के साथ उनके पास भेजा गया। जैसे ही उनके दफ्तर में घुसा, वह कह पड़ीं, ‘अरे, यह फॉर्मैलिटी क्यों? आपको तो मेरी ओर से पावर ऑफ अटार्नी है...जो चाहें लिखें। आप मेरे बारे में सब कुछ जानते हैं।’ उनके उस एक वाक्य ने मेरा मान काफी बढ़ा दिया था।

मैं एक फुटबॉल क्लब से जुड़ा हूं। क्लब के लोग चाहते थे कि मुख्यमंत्री हमारे संभावित प्रायोजकों से कुछ हमारे पक्ष में कह दें। अपने पैट्रन चौधरी मतीन के साथ हमलोग उनसे मिलने पहुंचे। उन्होंने हमसे हमारीअपेक्षा पूछी। बताया गया कि हमें प्रायोजक दिलाने में मदद कर दें। इस पर उन्होंने कहा, ‘मैं कह सकती हूं और हो सकता है कि वे लोग आपकी मदद भी कर दें। लेकिन संभव है वे लोग भविष्य में मुझसे किसी मदद की उम्मीद करें और मैं वह न कर सकूं। तब मुझे अच्छा नहीं लगेगा। इसलिए बेहतर है कोई दूसरा व्यावहारिक रास्ता देखें।’

मैंने अंतिम बार जब उनका इंटरव्यू किया तो मेरा अंतिम सवाल था- ‘अगर आपको विकल्प दिया जाए तो क्या आप फिर भी कांग्रेस को ही चुनेंगी? अगर हां, तो क्यों।’ उनका जवाब था, ‘बिल्कुल। मैं हमेशा कांग्रेस में ही रहना चाहूंगी क्योंकि कांग्रेस के विचार ही भारत के विचार हैं। हमेशा याद रखिए, भारत में विकास के जो भी काम हुए और विदेशों में हमारी जो इज्जत है, वह कांग्रेस के कारण ही है। आज हम जिस भारत पर गर्व करते हैं, वह कांग्रेस के कारण ही है। हर जन्म में मैं कांग्रेस की ही सेवा करना चाहूंगी।’

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