बापू स्मृति : ‘किसी भी कीमत पर सत्य’ का वह स्पर्श

गोपालकृष्ण गांधी संपादित किताब ‘आई एम ऐन ऑर्डिनरी मैन: इंडियाज स्ट्रगल फॉर फ्रीडम (1914-48)’ गांधी के कई अनछुए पहलू सामने लाती है। इसमें उनका संघर्ष भी है, जिजीविषा भी और कई बार भावुकता वाले भाव भी। गांधी जयंती पर प्रस्तुत हैं इसी पुस्तक के कुछ अंश:

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नवजीवन डेस्क

1934 में ‘द हरिजन’ की यात्रा के क्रम में गांधी कर्नाटक और तमिल ग्रामीण इलाकों, उड़ीसा, बंगाल, असम से होते हुए पश्चिम की ओर गए और फिर, बिहार, पंजाब और पश्चिमी भारत तक पहुंचे थे। बैंगलोर की एक आम सभा में हंगेरियन चित्रकार एलिजाबेथ ब्रूनर और उनकी बेटी की मुलाकात गांधी से होती है। वह उन्हें रंग लगाने के लिए पूछती हैं। गांधी उलटे उनसे पूछते हैं: ‘तुम मुझ जैसे बदसूरत आदमी को रंग क्यों लगाना चाहती हो?’ वह जवाब देती हैं, ‘मैं आपकी आत्मा को रंगना चाहती हूं।’ गांधी कहते हैं, ‘ऐसा करने के लिए आपके पास बस आधा घंटा है।’

4 जनवरी, 1934 को बंगलौर की एक आम सभा में अठारह साल की एक लड़की ऑटोग्राफ के लिए मेरे पास आई। जैसे ही मैंने अपनी कलम उठाई, उसने एक और अनुरोध किया: ‘कृपया मेरे लिए एक आदर्श वाक्य भी लिख दें।’ मैंने हंसते हुए लिखा, ‘किसी भी कीमत पर सत्य’। वह बहुत प्रसन्न हुई और मेरे पैरों पर अपना सिर रख दिया।

6 जनवरी को सोमनाहल्ली में...

लड़का: मुझे आपका ऑटोग्राफ चाहिए! 

मैं: इसके लिए तुम क्या दोगे? मुझे रुपये चाहिए।

लड़का: एक रुपया।

मैं (उसकी बालियां देख और छूकर) ये क्या हैं? 

लड़का: आप इन्हें ले सकते हैं।

मैं: क्या इसके लिए आपके पिता की अनुमति है?

लड़का: हां, अगर मैं ये आपको दे रहा हूं, तो उन्हें कोई आपत्ति नहीं होगी।

मैं: तुम्हें इतनी आजादी है! (और फिर बालियां लेते हुए) तुम इन्हें नहीं चाहते। अब इसके बाद बालियां मत पहनना! अपने माता-पिता से नई लाने के लिए न कहना!

(उसे ऑटोग्राफ देते हुए) तुम्हारा नाम क्या है? 

लड़का: बी.वी. थिमप्पा।

मैं: तुम्हारी उम्र कितनी है? 

लड़का: तेरह

मैं: तो, तुमको तेरह साल की उम्र में आजादी है। मुझे तो नहीं थी।

हम 13 जनवरी को मालाबार के बडगरा में थे। इससे ज्यादा मर्मस्पर्शी कोई और दृश्य मेरी स्मृति में नहीं है। अभी-अभी अपना भाषण समाप्त किया ही था। इसमें मैंने वहां मौजूद महिलाओं से उनके आभूषणों के लिए बारे में तर्कपूर्ण अनुरोध किया था। भाषण समाप्त करने के बाद भेंट में मिले उपहारों की बोली लगा रहा था कि सोलह साल की लड़की कौमुदी धीरे से मंच पर आई। उसने अपनी एक चूड़ी निकाली और मुझसे पूछा कि क्या मैं उसे ऑटोग्राफ दूंगा। मैं उसे देने की सोच ही रहा था, तभी उसने दूसरी चूड़ी भी निकाल ली। उसके दोनों हाथों में एक-एक चूड़ी ही थी। मैंने बोला, ‘मुझे दोनों देने की जरूरत नहीं है। मैं तुम्हें सिर्फ एक चूड़ी के बदले में ऑटोग्राफ दूंगा।’ जवाब में उसने अपना सोने का हार भी उतार दिया।

यह कोई छोटी-मोटी बात नहीं थी। इसे उसके बालों की लंबी चोटी से निकालकर अलग करना पड़ा। मैंने पूछा, ‘लेकिन क्या तुम्हें इसके लिए माता-पिता की अनुमति है?’ उसने कोई जवाब नहीं दिया। उसका अपना काम अभी पूरा नहीं हुआ था। उसके हाथ स्वतः उसके कानों पर चले गए और उसकी रत्नजड़ित बालियां उसके हाथों में आ चुकी थीं, जनता जयकारे लगा रही थी, खुशी में सराबोर उनकी अभिव्यक्ति को भला कौन रोक सकता था।

मैंने उससे फिर पूछा कि इस सब के लिए उसके माता-पिता की भी सहमति है! इससे पहले कि मैं उस शर्मीली लड़की से कोई वादा ले पाता, किसी ने मुझे बताया कि उसके पिता उस बैठक में मौजूद थे, कि वह खुद नीलामी के लिए मेरी बोली लगाने में मेरी मदद कर रहे थे और वह भी सकारात्मक कार्यों के लिए अपनी बेटी जैसे ही उदार थे। मैंने कौमुदी को याद दिलाया कि उसे अपने गहने बदलने नहीं हैं। उसने दृढ़तापूर्वक इस शर्त पर सहमति जताई। उसे ऑटोग्राफ देते हुए मैं यह टिप्पणी कहने से खुद को नहीं रोक सका: ‘तुम्हारा त्याग तुम्हारे द्वारा त्यागे गए आभूषणों से भी ज्यादा सच्चा आभूषण है।’


उस दिन मुझे फ्रांसीसी भारत के एक हिस्से- माहे में रहने का अप्रतिम सुख मिला। मुझे बंगाल के चंदरनागोर में एकाधिक बार जाने का सौभाग्य तो मिला था, देश के इस हिस्से में फ्रांसीसी भारत की यह मेरी पहली यात्रा थी। लेकिन पुलिस की वर्दी और फ्रेंच भाषा को लेकर मैंने यहां-वहां जितना कुछ देखा-पढ़ा, उसमें मुझे जरा भी अंतर नजर नहीं आया। इस स्थान पर एक महत्वपूर्ण मंदिर हरिजनों के लिए खोल दिया गया था और यह सहज धार्मिक कर्तव्य निभाने के लिए मैंने ट्रस्टियों को बधाई दी। मुझे एक पर्स और हिन्दी में एक पता भेंट में मिला।

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15 जनवरी, 1934 को मैं कालीकट में था, जब बिहार में भूकंप आया। 2 जनवरी को रिहा हुए देवदास और लक्ष्मी मुझसे आकर मिले। लक्ष्मी की डिलीवरी दिल्ली में होनी थी। 

शाम 6 बजे कालीकट में समुद्र तट पर आयोजित एक सार्वजनिक बैठक जिसमें 15,000 लोगों ने भाग लिया, में मैंने कलपेट्टा की अपनी यात्रा के बारे में बात की और कहा, ‘आज सुबह वे लोग मुझे मालाबार के सबसे खूबसूरत हिस्से में ले गए; वे मुझे सबसे रोमांटिक नजारों वाली पहाड़ियों पर ले गए... और मुझे एक भजन याद आ गया- मुझे लगता है कि इसकी रचना बिशप हेबर ने की थी। अब इसकी रचना उन्होंने की हो या किसी अन्य बिशप ने, यही वह पंक्ति है जिसे मैं आपको उपदेश देने के लिए उस भजन से लेता हूं।

कहा जाता है कि जब वह भारत के इस पश्चिमी तट की तरफ आ रहे थे, अनजाने में ही यह पंक्ति उनके होठों या उनकी कलम पर आ गई: ‘जहां हर संभावना सुखद होती है, अकेला आदमी नीच होता है।' कवियों को कभी भी अपने स्वयं की निर्मिति के पिंजरों में कैद नहीं किया जा सकता। कवि अनंत काल तक लिखते रहते हैं। उनके शब्दों में ऐसे अर्थ निकलते हैं कि जब वे उन्हें बोलते या लिखते हैं, उन्हें भी इसका कोई अंदाजा नहीं होता। मालाबार में प्रकृति ने इंसान के लिए जिस हरियाली की रचना की है, वहां से सुगंधित हवाएं आती हैं। लेकिन अस्पृश्यता के अपने ऐब के जरिए उसने प्रकृति का उल्लंघन किया है और इस तरह घिनौने आचरण वाला नीच बन गया है।

16 तारीख को मैंने कोचीन के जमोरिन के साथ अस्पृश्यता और मंदिर प्रवेश के बारे में चर्चा की। शास्त्रियों के साथ एक बैठक भी तय  थी लेकिन फिर उनकी ओर से एक संदेश आ गया जिसमें कहा गया था कि वे बातचीत के लिए तभी सहमत होंगे अगर मैं कई दिन तक उनके साथ रहकर संस्कृत में ही बात करूं! इसलिए वह बैठक नहीं हो सकी।

17 जनवरी को मैं अलवे में था। मैंने वहां कहा था कि मेरा संदेश बस इतना है कि जो सवर्ण हिन्दू खुद को उन लोगों से श्रेष्ठ मानते रहे हैं, जिन्हें वे अछूत, अगम्य, अदृश्य या अवर्ण हिन्दू कहते हैं, उन्हें यह समझना चाहिए कि श्रेष्ठता के इस अहंकार को शास्त्रों में किसी भी तरह की मान्यता नहीं है। अगर मुझे पता चला कि वे ग्रंथ जिन्हें वेद, उपनिषद, भगवद गीता, स्मृति आदि के नाम से जाना जाता है, स्पष्ट रूप से दिखाते हैं कि उन्होंने दैवीय अधिकार का दावा किया है, तो इस धरती की कोई ताकत मुझे हिन्दू धर्म से नहीं जोड़ सकेगी। मुझे इसे उसी तरह पानी में फेंक देना चाहिए जैसे कोई सड़ा हुआ सेब फेंक दिया जाता है।

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24 जनवरी को तिरुनेलवेली के नगरपालिका बाजार में 20,000 लोगों की एक सभा को संबोधित करते हुए मैंने पहली बार बिहार के भूकंप का उल्लेख किया जिसकी तीव्रता की रिपोर्ट मुझ तक पहुंच चुकी थी। मैंने इसे हमारे पापों के लिए ईश्वर द्वारा दिया गया दिव्य अनुशासनात्मक दंड कहा। उसी दिन तूतीकोरिन में मैंने फिर कहा कि भूकंप उस महान पाप के लिए एक दैवीय दंड था जो हमने किया है और अभी भी उन लोगों के खिलाफ कर रहे हैं जिन्हें अछूत या पंचमा कहा जाता है और मैं जिन्हें हरिजन कहता हूं। 30 जनवरी से 5 फरवरी तक मैं नीलगिरी के कुन्नूर में था। जिस दिन मैं कुन्नूर पहुंचा, उसी दिन बा को लिखा जो अब भी साबरमती जेल में थी। मैंने लिखा: ‘बिहार में भूकंप के परिणामस्वरूप 20,000 से 25,000 लोग मारे गए हैं। हजारों लोग बेघर हो गए हैं। करोड़ों रुपये का नुकसान हुआ है। उन बातों का मुझ पर कोई असर नहीं था कि: ‘सदियों पुराने पाप की सजा क्यों’ या ‘बिहार को सजा क्यों, दक्षिण को क्यों नहीं’। मेरा जवाब था, ‘मैं ईश्वर नहीं हूं।’ 2 फरवरी को मुझे गुरुदेव का एक पत्र मिला। हमारे बीच एक बुनियादी मतभेद था। मैंने उन्हें यह कहते हुए लिखा कि मेरा मानना ​​है कि अति-भौतिक नतीजे भौतिक घटनाओं से  निकलते हैं। ऐसा कैसे होता है, मैं नहीं जानता।


दिसंबर के मध्य में मैरी चेसली वर्धा आई।

उसने मुझसे कुछ सवाल पूछे।

चेसली: क्या आप मानते हैं कि आपका मार्गदर्शन अवचेतन तर्क या ईश्वर से होता है?

मैं: ईश्वर की ओर से- लेकिन अवचेतन तर्क ईश्वरीय आवाज हो सकता है!

चेसली: जब दो (अच्छी) चीजों के बीच चयन का सवाल हो तो आप कैसे समझेंगे कि आपके लिए भगवान का इशारा क्या है?

मैं: मैं इस विषय पर अपने विवेक का इस्तेमाल करता हूं और अगर मुझे कोई मजबूत आधार नहीं मिलता कि दोनों में से किसे चुनना चाहिए, तो मैं इसे छोड़ देता हूं, और फिर जल्द ही एक सुबह मैं पूर्ण आश्वस्ति के साथ उठता हूं कि यह बी के बजाय ए होना चाहिए।

चेसली: क्या आपको कोई रहस्यमय अनुभव हुआ है?

मैं: यदि रहस्यमय अनुभवों से आपका तात्पर्य दर्शन से है, तो नहीं। अगर मैंने ऐसा कोई दावा किया तो धोखेबाज ही हो सकता हूं। लेकिन मुझे उस आवाज पर पूरा यकीन है जो मेरा मार्गदर्शन करती है।

(आई एम ऐन ऑर्डिनरी मैन: इंडियाज स्ट्रगल फॉर फ्रीडम (1914-48)

संपादकः गोपालकृष्ण गांधी, प्रकाशकः अलेफ, कीमतः 999 रुपये (हार्डकवर)

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