अब भी कसक बनकर झलकती हैं महादेवी हिंदी में

महादेवी वैसी ही कवि थीं। हालांकि उन्होंने गद्य भी लिखा, लघु कथाएं भी। लेकिन, उनकी शख्सियत एक कवि की थी - एक खालिस भारतीय कवि।

महादेवी वर्मा
महादेवी वर्मा
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प्रगति सक्सेना

एक कवि को कोई कैसे याद कर सकता है, कैसे कोई एक कवि को श्रद्धांजलि दे सकता है? अगर वाकई कवि है तो वह स्मृति में नहीं, हमारी श्रद्धा में नहीं बल्कि हमारे संस्कार, हमारे भावों के शब्दरूप में हमेशा झलकता रहता है। सिर्फ एकाध कविता को याद कर बोल देना, उसे गा लेना काफी नहीं जान पड़ता।

महादेवी वैसी ही कवि थीं। हालांकि उन्होंने गद्य भी लिखा, लघु कथाएं भी। लेकिन, उनकी शख्सियत एक कवि की थी - एक खालिस भारतीय कवि। यहाँ भारतीय मैं इसलिए कह रही हूं, क्योंकि भक्ति काल से हमारे मानस में कवि की छवि एक संत की छवि के करीब हो गयी है। और उसी छवि को साकार करती थीं महादेवी।

आज जब साहित्य में भी शब्दों का अस्तित्व उनके अर्थों से बहुत दूर विराजता है, कवियों साहित्यकारों का चोला लेखन में कुछ और होता है और साहित्यिक आचार-विचार में कुछ और। महादेवी की कविता ही नहीं, उनकी शख्सियत, उनका आचरण भी प्रासंगिक हो चला है। जीवन भर सादगी की प्रतिरूप रहीं, एक शिक्षक, रचनाकार और व्यक्ति के तौर पर भी उदात्त और सौम्य।

जब मैंने लिखना शुरू किया था तो मेरा अटूट विश्वास था कि एक कवि या लेखक, उदात्त, सौम्य और उदार होना ही चाहिए, तभी तो यह सब उसकी रचनाओं में प्रतिबिंबित होगा! लेकिन दरअसल ऐसा नहीं था। लेखकों का अपनी रचनाओं से उतना गहरा रिश्ता नहीं था, कि उनकी रचनाएँ उनकी शख्सियत का आइना बन सकें। रचनाओं और लेखकों के बीच बढ़ती दूरी का ही ये नतीजा है कि ज़्यादातर हिन्दीभाषी आज के लेखकों को नहीं जानते। कवियों की जगह सिमट कर एक भरी-पूरी दुनिया के छोटे से दुबके हुए कोने में रह गयी है, जहाँ से वे उन कविताओं का पाठ करने का दम भरते रहते हैं, जिनसे इस दुनिया के मुश्किल हालात बदलने की उम्मीद है।

महादेवी इसलिए भी एक कसक बन कर हिंदी में जहाँ तहां झलकती रहती हैं, क्योंकि उनकी रचनाधर्मिता का एक छोटा सा कोना पूरी दुनिया में फैलता है, उसे सोखता है, उसमे प्रतिबिंबित होता है।

बीन भी हूँ मैं, तुम्हारी रागिनी भी हूँ!
नाश भी हूँ मैं, अनंत विकास का क्रम भी

त्याग का दिन भी चरम आसिक्त का तम भी,

तार भी आघात भी झंकार की गति भी,

पात्र भी, मधु भी, मधुप भी, मधुर विस्मृति भी,

अधर भी हूँ और स्मित की चांदनी भी हूँ

वे छायावाद की प्रतिनिधि कवि तो हैं ही, उनकी कविता में आज के समाज में छटपटाती संवेदनाओं का आर्तनाद भी है। एक ख़ास गहनता, ईमानदारी और उद्दाम राग और साथ ही तीव्र विराग भी है इन कविताओं में- एक ऐसे शख्स की अभिव्यक्ति, जिसने जैसा महसूस किया, वैसा जीया भी। जहाँ अथक जीवट है, तमाम मुश्किलों के बीच खुद पर यकीन है-

बाँध लेंगे क्या तुझे यह मोम के बंधन सजीले?
पंथ की बाधा बनेंगे तितलियों के पर रंगीले?
विश्व का क्रंदन भुला देगी मधुप की मधुर गुनगुन,
क्या डुबो देंगे तुझे यह फूल दे दल ओस गीले?
तू न अपनी छाँह को अपने लिये कारा बनाना!
जाग तुझको दूर जाना!

वहीँ अपने नश्वर और पीड़ा से भरे वजूद को पूरी गहराई से जीने की चाहत भी

क्या अमरों का लोक मिलेगा
तेरी करुणा का उपहार
रहने दो हे देव! अरे
यह मेरे मिटने क अधिकार!

और एक गहरी अनाम उदासी भी-

विस्तृत नभ का कोई कोना
मेरा न कभी अपना होना,
परिचय इतना, इतिहास यही-
उमड़ी कल थी, मिट आज चली!

ऐसे शख्स को कौन श्रद्धांजलि देकर खुद से जुदा करे, जो मानवीय संवेदनाओं में इस तरह लगातार गूंजता हो!

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Published: 11 Sep 2017, 8:37 PM