मीर अनीसः प्रतिरोधी चेतना से संपन्न गंगा-जमुनी तहजीब के पैरोकार 'मर्सियों के मीर'

साल 1874 में दस दिसम्बर को लखनऊ में अंतिम सांस लेने से पहले मीर अनीस, मर्सियागोई कहें या मर्सियाख्वानी की अनूठी परम्परा को इतनी मजबूत कर गए थे कि उसे आज भी किसी और फनकार के सहारे की जरूरत नहीं महसूस होती।

मीर अनीसः प्रतिरोधी चेतना से संपन्न गंगा-जमुनी तहजीब के पैरोकार 'मर्सियों के मीर'
मीर अनीसः प्रतिरोधी चेतना से संपन्न गंगा-जमुनी तहजीब के पैरोकार 'मर्सियों के मीर'
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कृष्ण प्रताप सिंह

चूंकि वे खुद भी युद्धकला के ज्ञाता थे, उन्होंने अपने मर्सियों में कर्बला के युद्ध का ऐसा सांगोपांग वर्णन किया है कि लगता है सब कुछ आज, अभी पढ़ने वाले की आंखों के आगे घट रहा है। उनके वर्णन में बिम्बात्मकता की ऐसी प्रभावपूर्ण उपस्थिति है कि स्मृति में बनते चित्रों की लय कहीं से टूटने नहीं पाती। और ऐसा भी नहीं कि सिर्फ युद्ध के दृश्य ही जीवन्त बन पड़े हों, अनीस को प्राकृतिक दृश्यों के शब्द चित्र बनाने में भी वैसी ही महारत हासिल है। इतना ही नहीं, कर्बला की गाथा की कारुणिकता बताने और उसके पात्रों को सहज मानवीय धरातल पर लाकर उनमें मानवीय भावनाओं के आरोपण के भी वे समर्थ शब्दकार हैं। 

साल 1874 में दस दिसम्बर को लखनऊ में अंतिम सांस लेने से पहले वे मर्सियागोई कहें या मर्सियाख्वानी की अनूठी परम्परा को इतनी मजबूत कर गए थे कि उसे आज भी किसी और फनकार के सहारे की जरूरत नहीं महसूस होती। ‘उर्दू के शेक्सपियर’ और ‘मर्सियों के मीर’...! जी हां, उर्दू साहित्य की दरबारदारी की परम्परा की कलाइयां मरोड़ने में अपना सानी न रखने वाले अनूठे शायर मीर बबर अली अनीस को (जो बाद में मीर अनीस के नाम से प्रख्यात हुए) उनके प्रशंसक इन दो उपाधियों से तो नवाजते ही हैं, सांस्कृतिक आदान-प्रदान और गंगा-जमुनी तहजीब के प्रतिनिधि शायर के रूप में भी याद करते हैं। मीर तकी मीर, मिर्जा गालिब और अल्लामा इकबाल के साथ उन्हें उर्दू शायरी के चार स्तंभों में गिनते हैं, सो अलग। 

लेकिन उनके जन्म की तिथि और वर्ष को लेकर, और तो और, उर्दू साहित्य के इतिहासकार भी एकमत नहीं हैं। अलबत्ता, उनकी जन्मस्थली को लेकर कोई मतभेद नहीं है। कहा जाता है कि अवध के नवाबों की राजधानी फैजाबाद के गुलाबबाड़ी इलाके में 1796 से 1805 के बीच कभी उनका जन्म हुआ और समय के साथ अपने संघर्ष को आगे बढ़ाते हुए किसी राज दरबार का आश्रय लिये बिना उन्होंने अपनी शायरी को उस मुकाम तक पहुंचाया, जहां उनकी लोकप्रियता किसी देश की सरहद या राज दरबार की मोहताज नहीं रह गई।

यही कारण है कि उनकी दूसरी जन्मशती बीत जाने के बाद भी उन्हें भुलाया नहीं जा सका है। अवध में तो उसकी गंगा-जमुनी तहजीब के प्रतिनिधि शायर के तौर पर आज तक उनका कोई जोड़ नहीं है। 2003 में भारत और पाकिस्तान के कई हिस्सों में उनकी दूसरी जन्मशती इस अनुमान के आधार पर मनायी गयी कि वे अपने पिता मीर खलीक के शिष्य और मशहूर शायर नवाब सईद मोहम्मद खान ‘रिन्द’ से चार साल छोटे थे और रिन्द की पैदाइश का वर्ष 1799 माना जाता है। 

प्रसंगवश, मीर अनीस की प्राथमिक शिक्षा उनके घर में ही हुई और मां के बाद मौलवी मीर नजफ अली और मौलवी हैदर अली लखनवी उनके शिक्षक बने, जिन्होंने अनौपचारिक रूप से उनको ऐसी उद्देश्यपरक शिक्षा दी, ताकि वे अपने वंश की पांच पीढ़ियों से चली आती ईश्वर, पैगम्बर और बुजुर्गान-ए-दीन के गुणगान की परम्परा को आगे बढ़ा सकें। आगे चलकर उन्होंने लखनऊ में भी शिक्षा ग्रहण की।


लेकिन उनके शिक्षकों को जल्दी ही समझ में आ गया कि उनकी रुचि परम्परा में उतनी नहीं है जितनी विज्ञान और बुद्धि कौशल के इस्तेमाल में है। उन्होंने युद्ध कलाओं का भी प्रशिक्षण प्राप्त किया था और अपने बदन को कसरती बनाये रखने की कोई भी कोशिश छोड़ना उन्हें गवारा नहीं था। प्रकृति के तो वे ऐसे प्रेमी थे कि उसके सौन्दर्य और चमत्कारों को निहारते हुए प्रायः कहीं खो से जाते थे। 

समाज, साहित्य और संस्कृति के रहस्यभेदन के जज्बे ने एक ज्ञानपिपासु के रूप में उनको, अंतिम दिनों की गम्भीर अस्वस्थता के कुछ वर्षों को छोड़कर, यावतजीवन सन्नद्ध व सक्रिय बनाये रखा। उनकी वैज्ञानिक दृष्टि ज्ञान के तन्तुओं को जहां से और जैसे भी ढूंढ पाई, ढूंढ लायी और उन्होंने अपनी रचनाओं में उनका सृजनात्मक इस्तेमाल किया। इसी इस्तेमाल ने उन्हें सांस्कृतिक आदान-प्रदान और गंगा-जमुनी तहजीब के प्रतिनिधि कवि के रूप में प्रतिष्ठित किया।

एक और बात जो मीर अनीस को बड़ा कवि बनाती है, वह है उनकी स्वाभिमानी प्रतिरोध चेतना। अपने परिवार की कई पीढ़ियों से चली आती परम्परा को तोड़कर उन्होंने अवध के नवाब का दरबारी बनना स्वीकार नहीं किया। किसी और नवाब के दरबार से भी वे नहीं जुड़े। नवाब वाजिद अली शाह चाहते थे कि वे तीन अन्य उर्दू कवियों वर्क, असीर और कुबूल के साथ मिलकर उनके वंश का शाहनामा लिखें। मगर अनीस ने कह दिया कि मैं कर्बला के नायकों व शहीदों का, उनकी महागाथा का, गायक हूँ और किसी राजा या नवाब की प्रशस्ति गाता नहीं फिर सकता।

मीर अनीस उर्दू शायरी के उस दौर में हुए थे, जब गजलों का झंडा चहुंओर बुलन्द था। कविगण गजल रचना में निष्णात होने को कवि-कर्म में सफलता की गारंटी मानते थे। लेकिन मीर अनीस उनकी राह नहीं चले। शायद उन्होंने सोचा कि दूसरों की तरह गजलें रचकर बड़े शायर बने तो क्या कमाल किया और ‘जौ कासी तन तजै कबीरा तौ रामै कौन निहोरा रे’ की तर्ज पर मर्सियों की रचना का कठिन रास्ता चुन लिया।


मर्सिये भारतीय उर्दू कविता की ऐसी विशिष्टता हैं जो उस रूप में अन्यत्र कहीं नहीं पायी जाती। ये मूलतः दिवंगत जनों के शोक में की जाने वाली अभिव्यक्तियां हैं और भारत में मुस्लिम शासन के दौरान विकसित होते-होते इस परम्परा ने एक सर्वथा अलग और समावेशी रूप धारण कर लिया था। मीर अनीस ने उसके इसी रूप को अंगीकार करते हुए अपने मर्सियों में शांति और सद्भाव जैसे आदर्शों की मजबूत पैरोकारी की। 

मर्सियों का वर्ण्य विषय उन्होंने कर्बला की उस प्रसिद्ध जंग को बनाया, जिसमें हुई शहादतों का इस्लामी धर्मानुयायियों के लिए अलग ही महत्व है, लेकिन उसमें मानवीय भावनाओं और महाकाव्यात्मकता के साथ ऐसा भारतीय रंग भरा कि पढ़ने वाले को वह अवधी के महाकाव्यों ‘पद्मावत’ या ‘रामचरित मानस’ जैसी गाथा लगने लगे। अवध में रहकर उन्होंने भारतीय जीवन शैली का जो सूक्ष्म निरीक्षण किया था और अवधी में उपलब्ध महाकाव्यों के तत्वों से उनका जैसा निकट का परिचय था, वह इसमें उनके काम आया।

चूंकि वे खुद भी युद्धकला के ज्ञाता थे, उन्होंने अपने मर्सियों में कर्बला के युद्ध का ऐसा सांगोपांग वर्णन किया है कि लगता है सब कुछ आज, अभी पढ़ने वाले की आंखों के आगे घट रहा है। उनके वर्णन में बिम्बात्मकता की ऐसी प्रभावपूर्ण उपस्थिति है कि स्मृति में बनते चित्रों की लय कहीं से टूटने नहीं पाती। और ऐसा भी नहीं कि सिर्फ युद्ध के दृश्य ही जीवन्त बन पड़े हों, अनीस को प्राकृतिक दृश्यों के शब्द चित्र बनाने में भी वैसी ही महारत हासिल है। इतना ही नहीं, कर्बला की गाथा की कारुणिकता बताने और उसके पात्रों को सहज मानवीय धरातल पर लाकर उनमें मानवीय भावनाओं के आरोपण के भी वे समर्थ शब्दकार हैं। 

साल 1874 में दस दिसम्बर को लखनऊ में अंतिम सांस लेने से पहले वे मर्सियागोई कहें या मर्सियाख्वानी की अनूठी परम्परा को इतनी मजबूत कर गए थे कि उसे आज भी किसी और फनकार के सहारे की जरूरत नहीं महसूस होती। 

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