कांग्रेस के नवनिर्वाचित अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे: यह चुनाव 'मेरे' नहीं बल्कि 'हमारे' लिए था

अपने घोषणा पत्र में मल्लिकार्जुन खड़गे ने खुद से ही वादा किया था कि वे उन सभी प्रस्तावों को पार्टी में लागू करेंगे जो उदयपुर शिविर में पास किए गए थे। इन प्रस्तावों में यह भी था कि पार्टी के पदाधिकारियों में आधे 50 वर्ष से कम उम्र के लोग होंगे।

फोटो: सोशल मीडिया
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नाहिद अताउल्लाह

मल्लिकार्जुन खड़गे कांग्रेस पार्टी के नए अध्यक्ष चुन लिए गए हैं। खड़गे एक ‘सेल्फ मेड मैन’ हैं जो बौद्ध धर्म को मानते हैं और बहुभाषाविद हैं। खड़गे कन्नड़ के अलावा अंग्रेजी और मराठी, उर्दू, तेलुगू और हिंदी जैसी 6 अन्य भाषाओं में भी प्रवीण हैं।

खड़गे कर्नाटक से ऐसे दूसरे नेता हैं जो कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष पद पर पहुंचे हैं। उनसे पहले कर्नाटक के ही एस निजलिंगप्पा 1968 में पार्ची अध्यक्ष बने थे। इसके अलावा जगजीवन राम के बाद खड़गे पार्टी के दूसरे दलित अध्यक्ष भी हैं।

खड़गे हॉकी, फुटबॉल और कबड्डी के खिलाड़ी रहे हैं और उनह्ने कानून की पढ़ाई की है। वे डॉ मनमोहन सिंह की सरकार में केंद्रीय श्रम मंत्री के पद पर रह चुके हैं। कर्नाटक में खड़गे को सोलीलादा सरदारा यानी अविजित योद्धा के तौर पर पुकारा जाता है। 2019 में चुनाव हारने के पहले अपने 50 साल के राजनीतिक जीवन में खड़गे कोई चुनाव नहीं हारे हैं। उन्होंने कर्नाटक विधानसभा में लगातार 12 चुनाव जीते थे।

कर्नाटक की राजनीतिक में कम से कम तीन ऐसे मौके आए थे जब मल्लिकार्जुन खड़गे लगभग राज्य के मुख्यमंत्री बनते-बनते रह गए। वह यूं तो पद के पीछे नहीं दौड़ते हैं, और इसीलिए उनकी जगह पर हर बार किसी अन्य को राज्य की कमान दे दी गई। लेकिन उन्होंने इस फैसले को भी विनम्रता से स्वीकार किया और पार्टी के प्रति अपनी वफादारी में कमी नहीं आने दी। उन्होंने कभी सार्वजनिक तौर पर अपनी निराशा का भी प्रदर्शन नहीं किया।


2013 में कर्नाटक कांग्रेस विधायक दल के नेता के लिए हुए गुप्त मतदान में खड़गे हार गए थे। अगर ऐसा नहीं होता तो वे मुख्यमंत्री बन सकते थे। लेकिन इस चुनाव के बाद आज तक किसी को नहीं पता है कि इस चुनाव में खड़गे कितने वोट से हारे थे या सिद्धारमैया कितने वोट से जीते थे।

खड़गे के प्रारंभिक जीवन पर नजर डालें तो कुछ रोचक किस्से सामने आते हैं। मसलन बताया जाता है कि 7 वर्ष की उम्र में खड़गे को बिदर जिले में स्थित अपने गांव का घर पिता के साथ छोड़ना पड़ा था क्योंकि हैदराबाद के निजाम की निजी सेना ने गांव पर हमला कर दिया था। बताया जाता है कि खड़गे के पिता खेतिहर मजदूर थे। जब वे खेत से घर की तरफ लौट रहे थे तो उन्होंने देखा कि उनके घर में आग लगाई जा चुकी है। इस दुर्भाग्यपूर्ण घटना में खड़गे की मां और बहन की मृत्यु हुई थी।

इस घटना के बाद खड़गे पड़ोस के कलबुर्गी जिले में बस गए और वहीं से अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत की। वे कलबुर्गी की एमएसके मिल में कानूनी सलाहकार बन गए और 1969 में संयुक्त मजदूर संघ के नेता चुने गए। इसी साल वे कांग्रेस में शामिल हुए और कलबुर्गी शहर इकाई के अध्यक्ष बना दिए गए।

1972 में मल्लिकार्जुन खड़गे ने चुनावी राजनीति में कदम रखा और जिले की गुरमितकल आरक्षित सीट से चुनाव लड़ा। वे यहां से 2008 तक तब तक लगातार चुने जाते रहे, जबतक इस सीट के अनारक्षित नहीं कर दिया गया। इसके बाद खड़गे ने चितपुर को अपना निर्वाचन क्षेत्र बनाया। फिलहाल इस सीट से उनके पुत्र प्रियांक खड़गे विधायक हैं।


2009 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ऐसे उम्मीदवार को तलाश रही थी जो कर्नाटक में तेजी से उभरती बीजेपी को टक्कर दे सके। खड़गे को कलबुर्गी लोकसभा सीट से टिकट दिया गया और उन्होंने यहां से जो बार (2009 और 2014 में) विजय हासिल की।

खड़गे बौद्ध धर्म के अनुयाई हैं और उन्होंने कलबुर्गी में बुद्ध विहार की स्थापना की है जोकि बौद्ध मतानुइयों का एक आध्यात्मिक केंद्र है। खड़गे के पांच बच्चे हैं और उन सभी के नाम बौद्ध या फिर नेहरू-गांधी परिवार के नाम पर है। उनके एक बेटे का नाम राहुल खड़गे हैं। राहुल खड़गे कहते हैं कि उनके पिता सत्ता में रहे या नहीं, लेकिन वे हमेशा घर से बाहर रहकर समाजसेवा करते रहे और उनकी मां ने उन्हें सही मायनों में पाला पोसा है।

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