प्रेमचंद जयंती: यूं ही तो नहीं हैं वे आज भी प्रासंगिक!

दलित, किसान, वंचित, पीड़ित या औरत की पीड़ा जब भी सामने आती है, प्रेमचंद याद आते हैं। ‘मणिपुर’ के बाद भी याद आ रहे हैं! 31 जुलाई प्रेमचंद की जयंती है।

मुंशी प्रेमचंद (फोटो तिथि और छायाकार अज्ञात)
मुंशी प्रेमचंद (फोटो तिथि और छायाकार अज्ञात)
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नागेन्द्र

“दिलों में गुबार भरा हुआ है, फिर मेल कैसे हो। मैली चीज पर कोई रंग नहीं चढ़ सकता, यहां तक कि जब तक दीवाल साफ न हो, उस पर सीमेंट का पलस्तर भी नहीं ठहरता। हम गलत इतिहास पढ़-पढ़कर एक-दूसरे के प्रति तरह-तरह की गलतफहमियां दिल में भरे हुए हैं और उन्हें किसी तरह दिल से नहीं निकालना चाहते, मानो उन्हीं पर हमारे जीवन का आधार हो।” 

यह प्रेमचंद के बहुचर्चित और बहु-प्रचारित लेख “हिन्दू-मुस्लिम एकता” की शुरुआती पंक्तियां हैं। नवंबर, 1931 में लिखे इस लेख की प्रायः हर पंक्ति आज लगभग सौ साल बाद भी उतनी ही प्रासंगिक है। अलग बात है कि प्रेमचंद को कई बार इस तरह संदर्भों से काटकर प्रस्तुत किया गया कि उनके कहे के अर्थ ही बदल गए। यानी, जिस तरह प्रेमचंद प्रासंगिक बने हुए हैं, उसी तरह उन्हें अपनी सुविधा से उद्घृत कर उनके अर्थ बदलने की कोशिशें भी कम नहीं हुई हैं। लेकिन प्रेमचंद हैं कि अपनी जगह अडिग हैं, और अडिग हैं उनके लिखे शब्द और उनके अर्थ भी। 

प्रेमचंद ने ‘हिन्दू-मुस्लिम एकता’ पर 1931 में जो लिखा, वह आज भी उसी तरह चरितार्थ होता दिख रहा है। आसान नहीं है यह समझना कि लमही वाले इस लेखक ने 92 साल पहले कैसे देख लिया था कि “हम गलत इतिहास पढ़-पढ़कर एक दूसरे के प्रति गलतफहमियां दिल में भरे हुए हैं और उन्हें किसी तरह दिल से निकालना नहीं चाहते, मानो उन्हीं पर हमारे जीवन का आधार हो।” आज के व्हाट्सएप ज्ञान के इस दौर में भी तो यही हो रहा है। प्रेमचंद छुआछूत की बात तो करते ही हैं, हिन्दू-मुस्लिम संस्कृति के मौलिक भेद तलाशने वालों को भी आड़े हाथो लेते हैं जो तब भी ‘कपड़े से पहचाने जाने’ की बात कर लेते थे। चौके-चूल्हे के नीति व्यवहार में भी आज का सच बयान कर देते हैं।


मणिपुर में मैतेयी इलाकों में मैतेयी और कुकी इलाकों में कुकी पुलिस की ‘रणनीतिक’ बताई जाने वाली तैनाती की खबर पर याद आता है, जब वह प्रोफ़ेसर मुहम्मद हबीब ऑक्सन के लिखे का उल्लेख करते हुए संदर्भित करते हैं कि: “हिन्दू सिपाही मुसलमानों की ओर होते थे और मुसलमान सिपाही हिन्दुओं की ओर।” आगे वे इसमें अंतर्निहित संदेश भी साफ भी करते हैं कि … “उस काल की किसी लड़ाई में हम सेनाओं को सांप्रदायिक आधार पर लड़ते नहीं पाते”।

तब के राष्ट्रवाद की बात करते हैं तो वह सीधा सवाल उठाते हैं: ‘क्या हम वास्तव में राष्ट्रवादी हैं?’ इसी शीर्षक से उनके लेख का वह अंश यहां पढ़कर तब और अब को समझा जा सकता है और संदर्भों के तार जोड़े जा सकते हैं। बहुत कुछ है जो आज भी कई अर्थों में ‘जस का तस’ दिखाई देता है।

औरत के बारे में, उसकी आर्थिक आजादी, उसके विद्रोह, तलाक और तलाकशुदा स्त्री के संघर्ष के बारे में और पुरुषों से उनकी बराबरी के बारे में और यहां तक कि ‘अविवाहित स्त्री भी पिचकारियों द्वारा संतानवती हो सकती है’, लिखते हुए चिकित्सा क्रांति की अवधारणा पर जिस तरह रेशे-रेशे बात करते हैं, वहां आज का हर वह संदर्भ बड़ी मुखरता से मौजूद दिखाई देता है जिसके बारे में हम सिर्फ सोच ही सकते हैं कि वह इतना आगे तक जैसे देख लेते थे। प्रेमचंद यूं ही तो नहीं आज भी प्रासंगिक हैं!

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