राही मासूम रज़ाः गंगा-जमुनी संस्कृति की वह संतान, जिसने हिंदू महाकाव्य महाभारत को जन-जन तक पहुंचाया

वक्त ऐसा भी आया जब ‘महाभारत’ देखा कम, सुना ज्यादा जाने लगा! जाहिर तौर पर यह राही मासूम रजा की बेमिसाल लेखनी का ही कमाल था। माना जाता था, माना गया और शायद सदा माना जाएगा कि टीवी के पर्दे वाला धारावाहिक ‘महाभारत’ और राही मासूम रजा एक-दूसरे के पूरक बन गए थे।

फोटोः सोशल मीडिया
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अमरीक

‘महाभारत’ को आज भी भारतीय टेलीविजन इतिहास का सबसे लोकप्रिय धारावाहिक माना जाता है। देश का यह पहला ऐसा टीवी कार्यक्रम था, जिसके शुरू होते ही अधिकांश हिस्सों में जिंदगी थम-सी जाती थी‌। कर्फ्यू का आलम हो जाता था। लोग बड़े-बड़े समूहों में रंगीन और श्वेत श्याम टेलीविजन सेटों के आगे हाथ बांधे बैठ जाते थे। उस लोकप्रियता का रिकॉर्ड आज भी नहीं टूटा। इसकी सबसे बड़ी वजह उसके वो संवाद थे, जिन्होंने भारतीय महाकाव्य को आम दर्शकों के लिए सहज और सरल के साथ रोचक बना दिया।

लेकिन बहुतेरे दर्शक नहीं जानते थे कि जिन संवादों के जरिये वे (महान भारतीय महाकाव्य के) मिथकों की जटिलता को इतनी सरलता से समझ-बूझ रहे हैं और महाभारतकालीन हिंदू मायथोलॉजी से विभोर होकर गुजर रहे हैं, वे संवाद राही मासूम रजा नाम के एक लेखक की कलम से निकले हैं। वह राही मासूम रजा, जिन्हें मानने वाले (खासतौर से कट्टर हिंदुत्ववादी) 'मुसलमान' मानते थे और खुद रजा अपने आप को महज 'हिंदुस्तानी' और गंगा-जमुनी संस्कृति की संतान!

राही मासूम रज़ाः गंगा-जमुनी संस्कृति की वह संतान, जिसने हिंदू महाकाव्य महाभारत को जन-जन तक पहुंचाया

'आधा गांव' सरीखे कालजयी उपन्यास का लेखक और हो भी क्या सकता था? रजा बेशक खुद को हिंदुस्तानी मानते थे, लेकिन कट्टर हिंदूवादी ताकतें (जिनके वंशज आज भारत की शासन-व्यवस्था के शिखर पर काबिज हैं) उन्हें मुसलमान मानती थीं और हिंदुओं जैसे कट्टर मुसलमान तो खैर सदा उन्हें 'अपना' कहने-मानने से परहेज करते रहे। गोया राही मासूम रजा कट्टरपंथियों के लिए कोई मोहरा या खिलौना हों।

खैर, नेपथ्य में यही मूल वजह थी कि कट्टरपंथी हिंदुत्ववादियों ने 'महाभारत' के संवाद राही मासूम रजा से लिखवाने का जबरदस्त उग्र विरोध किया था। इस तर्क के साथ कि एक मुसलमान कैसे हिंदुओं के पवित्रतम माने जाने वाले ग्रंथ पर आधारित कार्यक्रम के लिए एक शब्द भी लिख सकता है! बल्कि लिखने की 'जुर्रत' कर सकता है!

राही मासूम रज़ाः गंगा-जमुनी संस्कृति की वह संतान, जिसने हिंदू महाकाव्य महाभारत को जन-जन तक पहुंचाया

यह इस मेगा सीरियल का निर्माण शुरू होने से ऐन पहले का तनावपूर्ण वाकया है। तब मीडिया नहीं होता था, पत्रकारिता होती थी। सो कट्टरपंथी हिंदू शक्तियों के प्रतिनिधियों के धमकी भरे बयान अखबारों की सुर्खियां बने। खास बात यह है कि समयाभाव की वजह से राही मासूम रजा अपने अभिन्न दोस्त बीआर चोपड़ा को इस प्रोजेक्ट से जुड़ने के लिए इंकार कर चुके थे। रजा को 'महाभारत' के संवाद लेखन के लिए राजी करने की कवायद के बीच चोपड़ा ने प्रेस कॉन्फ्रेंस में इसकी विधिवत घोषणा कर दी।

इसी के साथ शुरू हुआ इस पर बड़े पैमाने पर ऐतराज का बेहूदा सिलसिला। तब सोशल मीडिया वजूद में नहीं था और 'ट्रोल' के 'टूल्स' अलग किस्म के थे। यानी धमकी भरे खत और पोस्टर। जिन कट्टरवादियों को एक मुसलमान का 'महाभारत' के नाट्य रुपांतरण की प्रक्रिया से जुड़ना, वह भी संवाद-लेखन से नाकाबिले बर्दाश्त था, उन्होंने विरोध अथवा आपत्ति के पत्रों को हथियार बनाया। नतीजतन बीआर चोपड़ा को पत्र पर पत्र आने शुरू हो गए, जिनमें एक इबारत समान तेवरों के साथ मुख्य रूप से लिखी होती थी, 'क्या सभी हिंदू मर गए हैं, जो चोपड़ा ने एक मुसलमान को 'महाभारत' के डायलॉग्स-लेखन का काम सौंप दिया है...?'

महाभारत के निर्माता बीआर चोपड़ा
महाभारत के निर्माता बीआर चोपड़ा

बीआर चोपड़ा ने ये पत्र राही मासूम रजा के पास भेज दिए। इसके बाद अगले ही दिन हिंदुस्तान की गंगा-जमुनी तहजीब के पैरोकार राही साहब ने चोपड़ा को फोन किया और कहा कि, “मैं ‘महाभारत’ लिखूंगा। मैं गंगा का पुत्र हूं। मुझसे ज्यादा भारत की सभ्यता और संस्कृति की बाबत कौन जानता है...।” यहां बता दें कि यह किस्सा 'सीन-75' शीर्षक से आई किताब का पूनम सक्सेना द्वारा किए गए अंग्रेजी अनुवाद में मिलता है। 'सीन-75' राही मासूम रजा का चर्चित हिंदी उपन्यास है। इसका पहला संस्करण 1977 में प्रकाशित हुआ था।

इस किताब के बारे में रजा के बेहद गहरे दोस्तों में से एक प्रोफेसर कुंवरपाल सिंह के संस्मरण का जिक्र है, जो अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में उनके सहपाठी थे। उनके एक अन्य दोस्त हिंदी के प्रख्यात लेखक कमलेश्वर ने भी इसकी पुष्टि की थी। सांप्रदायिकता के खिलाफ सदैव सृजनात्मक प्रहार करने वाले और हिंदुस्तानीयत के लिए मर-मिटने का जुनूनी जज्बा रखने वाले महान लेखक राही मासूम रजा ने इस प्रकरण को बतौर चुनौती लिया और तमाम विरोधों को दरकिनार करके 'महाभारत' कागज पर अपनी कलम से साकार करने लगे।

राही मासूम रज़ाः गंगा-जमुनी संस्कृति की वह संतान, जिसने हिंदू महाकाव्य महाभारत को जन-जन तक पहुंचाया

अंधे विरोध का सिलसिला रफ्ता-रफ्ता थमता गया, जब उनके संवाद घर-घर बेइंतहा लोकप्रिय हो गए और करोड़ों दर्शकों के जेहन और जुबान पर बेतहाशा छा गए। वक्त ऐसा भी आया जब सीरियल 'महाभारत' देखा कम, सुना ज्यादा जाने लगा! जाहिर तौर पर यह राही मासूम रजा की बेमिसाल लेखनी और कौशल का कमाल था। माना जाता था, माना गया और शायद सदा माना जाएगा कि टीवी के पर्दे वाला धारावाहिक 'महाभारत' और राही मासूम रजा एक-दूसरे के पूरक बन गए थे।

ऐसी कोई दूसरी मिसाल भारतीय तो क्या विश्व टेलीविजन इतिहास में भी नहीं मिलती। 'महाभारत' और हिंदू मिथक की आधुनिक नाटकीय समझ भी नहीं। एक 'मुसलमान' द्वारा 'महाभारत' के (संवाद) लेखन का विरोध और फिर उसकी मेधा, प्रतिभा, विवेक तथा कलम के आगे अघोषित एवं सचेत-अचेत आत्मसमर्पण भी एक ऐतिहासिक उदाहरण है। प्रसंगवश, ये सोचा जरूर जाना चाहिए कि मौजूदा अंधकार काल में आज कोई राही मासूम रजा 'महाभारत' (टेलीविजन के लिए ही सही) लिखता तो उसका विरोध कितनी असहिष्णुता और क्रूरता के साथ होता।

राही मासूम रज़ाः गंगा-जमुनी संस्कृति की वह संतान, जिसने हिंदू महाकाव्य महाभारत को जन-जन तक पहुंचाया

साल 1990 के दौरान 'इंडिया टुडे' पत्रिका को दिए विशेष साक्षात्कार में राही मासूम रजा ने उनके द्वारा 'महाभारत' लिखने के हिंदू कट्टरपंथियों के विरोध की बाबत कहा था, “मुझे बहुत दुख हुआ... मैं हैरान था कि एक मुसलमान द्वारा पटकथा लेखन को लेकर इतना हंगामा क्यों किया जा रहा है। क्या मैं एक भारतीय नहीं हूं?” यकीनन यह एक यक्ष प्रश्न है जो आज भी प्रेत की मानिंद हमारे सामने खड़ा है। इसलिए भी कि आज वैसा विरोध करने वालों के हाथ खून से सने हैं और बेशुमार राही मासूम रजा उन की 'हिट लिस्ट' में शिखर पर हैं। कब मारे जाएंगे कोई नहीं जानता। हां, मारने वाले हत्यारे बेशक जानते हैं।

राही मासूम रजा का संपूर्ण लेखन और जीवन फिरकापरस्ती के खिलाफ अडिग और निर्भीक लड़ाई की अद्भुत मिसाल है। उन्होंने जो किया और जिया, वह आज मशाल और रोशनी की हैसियत रखता है। उनकी कोशिश थी कि प्रतिबद्ध लेखन की एक-एक पंक्ति से फिरकापरस्ती पर तंज-वार किया जाए। उनकी एक नज़्म की पंक्तियां हैं: “मेरा नाम मुसलमानों जैसा है/मुझे कत्ल करो और मेरे घर में आग लगा दो/लेकिन मेरी रग-रग में गंगा का पानी दौड़ रहा है/मेरे लहू से चुल्लू भरकर महादेव के मुंह पर फैंको/और उस जोगी से यह कह दो/महादेव अब इस गंगा को वापिस ले लो/यह जलील तुर्कों के बदन में गाढ़ा लहू बनकर दौड़ रही है।


राही मासूम रजा का जन्म एक अगस्त 1927 को गाजीपुर के गंगोली गांव में हुआ था। वह बचपन से ही क्रांतिकारी मिजाज के थे। गलत के आगे झुकना फितरत में नहीं था। आला दर्जे की तालीम के लिए अपने बड़े भाई डॉक्टर मुनीस रजा के पास अलीगढ़ पहुंचे, जो तब वामपंथियों का गढ़ था। विश्वविद्यालय में उस वक्त प्रोफेसर नूरुल हसन, डॉक्टर अब्दुल अलीम, डॉक्टर सतीश चंद, डॉक्टर रशीद अहमद, डॉक्टर आले अहमद सुरूर जैसे नामवर कम्युनिस्ट शिक्षक भरे पड़े थे।

रजा की शख्सियत ने अलीगढ़ में ही 'वामपंथी' आकार ग्रहण किया। वह तरक्कीपसंद और आजाद ख्याल बन गए और 1945 में उन्होंने प्रगतिशील लेखक संघ की बाकायदा सदस्यता हासिल कर ली और उम्र के आखिरी पड़ाव तक प्रगतिशील-जनवादी आंदोलनों से सक्रिय तौर पर जुड़े रहे। उनके लेखन की शुरुआत शायरी से हुई और 1966 तक उनके सात गजल-नज़्म संग्रह प्रकाशित हो गए थे। इनमें 'नया साल', 'मौजे गुल मौजे सबा', 'रक्से मय' और 'अजनबी शहर अजनबी रास्ते' प्रमुख हैं।

1857 के स्वतंत्रता संग्राम की शताब्दी पर साल 1957 में लिखा उनका महाकाव्य ‘अठारह सौ सत्तावन’ उर्दू-हिंदी दोनों भाषाओं में छपकर खासा मकबूल हुआ था। शायरी का यह सफर ताउम्र जारी रहा। आखिरी कविता संग्रह ‘गरीबे शहर’ साल 1993 यानी उनकी मृत्यु के एक साल बाद प्रकाशित हुआ। व्यापक हिंदी समाज राही मासूम रजा की विलक्षण प्रतिभा और अतुलनीय क्षमता से 1966 में वाकिफ हुआ, जब उनका उपन्यास ‘आधा गांव’ आया। उसके बाद उनका एक अन्य बहुचर्चित उपन्यास ‘टोपी शुक्ला’ प्रकाशित हुआ। ये दोनों उपन्यास पहले-पहल फारसी लिपि में लिखे गए थे, जिनका बाद में हिंदी लिप्यांतरण किया गया।

निस्संदेह 'आधा गांव' ने राही मासूम रजा को हिंदी गल्प के सबसे समर्थ और सशक्त हस्ताक्षरों में शुमार करा दिया। 'आधा गांव' के साथ कई विवाद भी जुड़े। नैतिकतावादियों और प्रतिक्रियावादियों ने उन्हें घेरने की खूब कवायद की, लेकिन रजा ने अपनी कलम और लबों को सांप्रदायिकता, जातिवाद, क्षेत्रवाद और भाषा की संकीर्णता के खिलाफ और ज्यादा पैना करना जारी रखा। राही मासूम रजा मानते थे कि, "धर्म का राष्ट्रीयता और संस्कृति से कोई विशेष संबंध नहीं है। पाकिस्तान का निर्माण मिथ्या चेतना के आधार पर हुआ है और जिस भवन की बुनियाद टेढ़ी होगी वह बहुत दिन तक नहीं चलेगा।"


'आधा गांव' हिंदी का पहला उपन्यास है, जिसमें शिया मुसलमानों और संबंधित लोगों का ग्रामीण जीवन, उनकी विसंगतियां अपने सामग्री यथार्थ में पूरी तीव्रता के साथ सामने आती हैं। यह उपन्यास संभव होने वाले यथार्थ के जरिए इस बात की ओर साफ इशारा करता है कि पाकिस्तान बहुत दिनों तक एक नहीं रहेगा। यही हुआ भी। भाषाई आधार पर साल 1971 में पाकिस्तान टूटा और बांग्लादेश बना। 'आधा गांव' का संभावित यथार्थ पूरी शिद्दत से सामने आया। यह उपन्यास विभाजन के पहले शिया मुसलमानों के दुख-दर्द और पाकिस्तान के वजूद को पूरी तरह से नकारता है।

'आधा गांव' को हिंदी के 10 सर्वश्रेष्ठ कालजयी उपन्यासों में से एक माना जाता है। डॉ नामवर सिंह और डॉक्टर रामविलास शर्मा ने इसे विश्वस्तरीय कालजयी रचना माना था। 'टोपी शुक्ला', 'हिम्मत जौनपुरी', 'ओस की बूंद', 'दिल एक सादा कागज', 'सीन-75', 'कटरा बी आर्जू' जैसी रचनाएं अपने विषय, कथावस्तु, भाषा-शैली और अनोखे ट्रीटमेंट के लिए जानी जाती हैं। सब में प्रखर राजनीतिक चेतना अनूठी रचनात्मकता के साथ मिलती है।

हिंदी-उर्दू दोनों जुबानों में लिखने वाले राही मासूम रजा उर्दू के शायर थे, तो हिंदी के नायाब उपन्यासकार। 'लेकिन मेरा लावारिस दिल', 'हम तो हैं परदेस में', 'दिल में उजले कागज़ पर' 'जिनसे हम छूट गए' उनकी मकबूल गजलें-नज्में हैं। 'महाभारत' के अतिरिक्त रजा ने 'लम्हे', 'मैं तुलसी तेरे आंगन की', 'ज्यादा', 'मिली' और 'अलाप' सरीखी कई फिल्मों की पटकथा-संवाद भी लिखे। 15 मार्च 1992 में हिंदुस्तानीयत का यह शैदाई और महान लेखक दुनिया से विदा हो गया। उन्होने आखरी सांसें मुंबई में लीं।

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Published: 15 Mar 2020, 8:59 AM