मंटो की पुण्यतिथि: आज भी हर तरफ नजर आती हैं ‘खोल दो’ और ‘ठंडा गोश्त’

आज यानी 18 जनवरी को मंटो की पुण्यतिथि है। वह मंटो जो अपनी कहानियों और अपनी लेखनी से समाज को आइना दिखाता रहा। वह मंटो जिसने खुद लिखा था अपनी कब्र के लिए कि वह दुनिया का आखिरी शब्द नहीं है।

फोटो : सोशल मीडिया
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प्रगति सक्सेना

सआदत हसन मंटो का नाम आते ही ‘टोबा टेकसिंह’ का ध्यान आता है। वे एक ऐसी शख्सियत हैं जिनकी रचनाएँ उनके अपने जीवन में जितनी प्रासंगिक थीं, उतनी या उससे कहीं ज्यादा आज भी हैं। यूं तो वे उर्दू के लेखक थे लेकिन उनकी रचनाएँ मूल इंसानी जज्बातों और संवेदनशीलता या फिर कहें तो संवेदनहीनता को बयान करती हैं जो किसी भी ज़बान में खरी उतरती हैं।

उन्होंने बेहतरीन कहानियां लिखीं, तमाम रेडियो सिरीज़ लिखीं, फिल्म इंडस्ट्री में भी काम किया और फ़िल्मी हस्तियों पर उनके संस्मरण लाजवाब हैं। ये संस्मरण ज्यादा पढ़े नहीं गए हैं, लेकिन मंटो शायद उन चंद लोगों में से एक हैं जिन्होंने फिल्म अभिनेताओं और अभिनेत्रियों के बारे में बहुत बेबाकी और बगैर किसी पूर्वाग्रह के लिखा है।

उनके लेखन की यही एक खूबी है- वे इंसानी तंगदिली, दुष्टता, नीचता और समाज के अँधेरे गलीज़ गलियारों के बारे में बिना जजमेंटल हुए बिलकुल वैसे ही लिखते हैं जैसा कि वो है- यह उनकी कहानियों को और भी इंटेंस बना देता है।

इस देश के इतिहास में सबसे दुखद और विश्व भर की ऐसी इकलौती घटना- देश के विभाजन पर लिखते हुए भी बहुत संयत और बेबाक रहे, जबकि इस घटना से सबसे ज्यादा कोई विचलित हुआ तो शायद वह मंटो ही थे। अव्वल तो उन्होंने मन से कभी विभाजन को माना ही नहीं, लेकिन जब अभिनेता अशोक कुमार के घर से लौटते हुए उन पर हमला हुआ, तो उन्होंने नए देश पाकिस्तान जाने का फैसला कर लिया। लेकिन करीब दस दिन वहां गुजरने के बाद ही उन्होंने फ़ोन पर अपने दोस्तों से ये कहा कि पाकिस्तान जाने का फैसला शायद उनकी ज़िन्दगी का सबसे गलत फैसला था।

मंटो पर अपनी बेबाक कहानियों को लेकर छः बार अश्लीलता का मुकदमा चला- तीन बार भारत में और तीन बार पाकिस्तान में। लेकिन हर बार उन्हें बाइज्ज़त बरी किया गया। उर्दू की एक और अहम् लेखक इस्मत चुगताई ने अपने संस्मरण ‘कागज़ी है पैरहन’ में मंटो की रचनाओं के बारे में बहुत साफ़ तौर पर लिखा था कि मंटो अगर (अपनी रचनाओं में) कीचड़ उछालते हैं तो उससे वह गन्दगी दिखाई देती है और उससे उस गन्दगी को साफ़ करने की ज़रुरत भी शिद्दत से महसूस होती है।

मंटो पर चले मुकदमों की सुनवाई का किस्सा भी दिलचस्प है, जब भारत-पाकिस्तान दोनों देशों के लेखक और बुद्दिजीवियों की बिरादरी एकसाथ मंटो के साथ खड़ी हो गयी थी और सुनवाई के दौरान बहुत साफ़ शब्दों में इन लोगों ने कहा था कि मंटो की रचनाएँ असलियत बयान करती हैं और वे कहीं से भी एक समाज की नैतिकता को नहीं लांघती।

दयाल सिंह कॉलेज के तत्कालीन प्रिंसिपल सैयद आबिद एल आबिद ने अदालत में अपनी गवाही के दौरान कहा, “वली से ग़ालिब तक सभी लेखकों ने समय समय पर ऐसा कुछ लिखा जिसे अश्लील मान लिया गया। साहित्य कभी भी अश्लील नहीं हो सकता। और जो मंटो लिखते हैं वह साहित्य है।”

वाकई, मंटो ने जो लिखा, जो समय के तमाम थपेड़ों को झेलते हुए आज भी हमारे समाज में ना सिर्फ जिंदा है बल्कि और भी प्रासंगिक हो गया है- यही साहित्य की खूबी है। पूरी शान-ओ शौकत के साथ बुक रिलीज़ के ज़रिये पाठकों तक पहुँचाने वाला आज का साहित्य यह पैनापन खो चुका है।

मंटो उस तरह के लेखक थे भी नहीं जिसे अपना नाम इतिहास में दर्ज कराने की चाहत रही हो, या अपने लेखन से समाज में बदलाव लाने का क्रांतिकारी जज्बा। वे ईमानदार लेखक थे, अपने आसपास की घटनाओं, किस्सों और किरदारों को कभी चुटकी लेते हुए, तो कभी संजीदगी से, या फिर कभी उदासी और हैरत से भी अपने शब्दों में बुनते हुए।

ऐसा ही लेखक ‘खोल दो’ या ‘ठंडा गोश्त’ जैसी ह्रदय विदारक कहानियां लिख सकता है। ‘खोल दो’ में एक गंभीर रूप से घायल और बलात्कार की शिकार लड़की अपने आखिरी वक्त में डॉक्टर की एक्सामिनिंग टेबल पर पड़ी है। खिड़की की तरफ जाती हुयी नर्से से डॉक्टर कहता है ‘खोल दो’ और लड़की मशीनी ढंग से अपना सलवार कमीज़ उतारने लगती है। ‘ठंडा गोश्त’ एक मृतक लड़की से बलात्कार की कहानी है।

ये कहानियां विभाजन के दौरान हुए तमाम कुकृत्यों, अकल्पनीय अत्याचारों पर गंभीर टिप्पणियां हैं। खुद पर अश्लीलता के मुक़दमे की सुनवाई के दौरान मंटो ने अपने बचाव में कहा था कि ठंडा गोश्त कहानी का मकसद इंसानों को यह बतलाना है कि जब वे वहशियाना बर्ताव करते हैं तो वे अपनी इंसानियत और इंसानी ज़िम्मेदारी से अलग या आज़ाद नहीं हो जाते।

वह इंसानियत उनके जानवर पर कभी ना कभी भारी पड़ती ही है। आज जब हम रोजाना बलात्कार की नृशंस घटनाओं के बारे में पढ़ते हैं, ‘ठंडा गोश्त’ और ‘खोल दो’ कहानियां इस समाज की इंसानियत पर प्रश्न चिन्ह लगाती हैं- इस उम्मीद में कि कभी तो इंसानियत इस हैवानियत पर भारी पड़ेगी, कभी तो हम जाति, मज़हब ऊंच-नीच से अलग होकर एक इंसान के तौर पर अपने बारे में सोचेंगे और अगर नहीं सोच पाए तो विभाजन की जिस विभीषिका का वर्णन मंटो ने किया है, उससे कहीं गहरा अँधेरा हमारे समाज को लील लेगा- उनकी कहानियों में यह दर्द और डर दोनों ही बहुत प्रभावशाली तरीके से ज़ाहिर होते हैं, जिसे हमें और आने वाली नस्लों को याद रखना चाहिए।

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