शहीद दिवसः बहुत प्रेरणादायक थे भगत सिंह के अंतिम दिन, आखिरी पल तक जुबां पर रहा 'इंकलाब-जिंदाबाद' का नारा

जेल में भगत सिंह और उनके साथियों को कितने ही कष्ट सहने पड़े हों, पर उन्होंने जीवन के प्रति उल्लास और मस्ती का भाव नहीं छोड़ा। अदालत में प्रायः वे मस्ती से देशभक्ति के गीत गाते हुए जाते थे और ‘इंकलाब जिन्दाबाद’ के नारों से अदालत गूंज उठती थी।

फोटोः सोशल मीडिया
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भारत डोगरा

23 मार्च को देश शहीद भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव के शहादत दिवस को मना रहा है। वैसे तो इन क्रांतिकारियों का पूरा जीवन ही प्रेरणादायक था, पर जेल में गुजरे अंतिम दो वर्ष तो विशेषकर इतने प्रेरणादायक सिद्ध हुए कि उन्हें बार-बार याद किया जाता है। अप्रैल 1929 में सबसे पहले भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने अपने को स्वयं गिरफ्तार करवाया और सबसे पहले जेल में पहुंचे। उसके बाद पुलिस की कार्यवाहियों का एक ऐसा दौर चला कि एक के बाद एक अधिकांश साथी गिरफ्तार होते चले गए।

जेल में भगत सिंह और उनके साथियों को कितने ही कष्ट सहने पड़े हों, पर उन्होंने जीवन के प्रति उल्लास और मस्ती का भाव नहीं छोड़ा। अदालत में प्रायः वे मस्ती से देशभक्ति के गीत गाते हुए जाते थे और ‘इंकलाब जिन्दाबाद’ के नारों से अदालत गूंज उठती थी। दोपहर के खाने के समय या मुलाकातों के समय उनका हंसी-मजाक पूरे शबाब पर रहता था।

अदालत में भगत सिंह की मां विद्यावती जी कुछ खिलाने के लिए ले आती थीं तो भगत सिंह कहते थे कि पहले बटुकेश्वर दत्त को खिलाओ और दत्त कहते कि नहीं मां पहले भगत सिंह को खिलाओ। अंत में मां दोनों को साथ-साथ खिलाती थी। अरुणा आसफ अली एक बार जेल में गईं तो एक कोठरी में बहुत सुरीले गीत की आवाज आई। पूछने पर पता चला कि फांसी का इंतजार कर रहे भगत सिंह मस्त होकर यह गीत गा रहे हैं और ताल दी जा रही है हथकड़ी से।

देश की भलाई के लिए खुशी से फांसी का तख्त झूलने की भगत सिंह की इच्छा ने देश में दूर-दूर तक जनसाधारण को आकर्षित किया। देश ने कई बार उनकी भूख हड़ताल से संवेदना प्रकट करने के लिए, यातनाओं का विरोध करने के लिए भगत सिंह व उनके साथियों से जुड़े विशेष दिवस मनाए। जेल के बाहर इन क्रांतिकारियों के समर्थन में अनेक आयोजन हुए जिनमें कांग्रेस ने भी भरपूर योगदान दिया। जब धारा 144 लगा दी गई तो कांग्रेस और अकाली दल के कुछ नेताओं ने गिरफ्तारी भी दी।


यतीन्द्रनाथ दास की शहादत पर लाखों लोगों ने श्रद्धांजलि दी। लाहौर से कलकत्ता तक उनकी अंतिम यात्रा में विभिन्न रेलवे स्टेशनों पर बड़ी संख्या में लोग श्रद्धांजलि देने आए जिनका नेत्तृत्व जवाहरलाल नेहरु, कमला नेहरु, गणेश शंकर विद्यार्थी और सुभाष चन्द्र बोस जैसे बड़े नेताओ ने किया। मुकदमे लड़ने के लिए स्थापित कोष में 30 हजार से ज्यादा लोगों ने योगदान भेजा।

इसके साथ-साथ भगत सिंह और उनके साथियों के विचार भी देश में दूर-दूर तक फैल रहे थे। जैसा कि भगत सिंह चाहते थे, अपने बलिदानों से अपने विचारों को फैलाने में उन्हें पूर्ण सफलता प्राप्त हो रही थी। देश के संभवतः सबसे लोकप्रिय नेता के रूप में मात्र 23 वर्षीय नौजवान भगत सिंह का नाम सबकी जुबान पर था।

भारत में राष्ट्रपिता की बात की गई है, यदि राष्ट्रपुत्र की भी बात की जाती तो उन दिनों यह स्थान अवश्य भगत सिंह को ही मिलता। एक छोटे से क्रान्तिकारी दल के युवा नेता ने अपने साहस, बलिदान, त्याग और समझदारी से (जिसमें उनके सभी साथियों का भरपूर योगदान था) जेल के सीखंचों के पीछे से अपने विचारों को इतनी सफलता और व्यापकता से फैलाया था कि बेहद संसाधनों से युक्त संगठन करोड़ों रुपए खर्च कर भी नहीं फैला सकते थे।

सबसे बड़ी बात तो यह थी कि इन बहादुर युवाओं ने देश को निराशा, हताशा व उद्देश्यविहीनता के दौर से निकाल कर साहस और उत्साह की लहर फैला दी थी और इस लहर को समाजवाद की नई दिशा भी दे दी थी। इन युवाओं ने जेल में रहकर भी एक ऐसी लहर पैदा की जिससे हताशा के बादल छंटने लगे और हिम्मत की किरणें फैलने लगीं। मजदूरों, किसानों, विद्यार्थियों, युवकों, क्रान्तिकारियों सभी की गतिविधियों में उभार आया और एक साथ कई मोर्चों पर सक्रियता नजर आने लगी। इस उभार के कई कारण हो सकते हैं, पर भगत सिंह और उनके साथियों के साहसिक कार्यों और उसके साथ भेजे गए संदेशों की इस उभार में बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका थी।


कांग्रेस ने लाहौर के ऐतिहासिक अधिवेशन में 1 जनवरी, 1930 को पूर्ण स्वराज का लक्ष्य नए उत्साह और उम्मीद के बीच स्वीकार किया। 26 जनवरी को स्वराज दिवस देश भर में मनाया गया। जहां एक ओर कांग्रेस ने जेल में रह रहे क्रांतिकारियों के पक्ष में सभाएं कीं, वहीं दूसरी ओर क्रांतिकारियों ने जो उत्साहवर्धक संदेश भेजे उनसे जनता में एक नई लहर आई और कांग्रेस पूर्ण स्वराज के लक्ष्य की ओर अधिक तेजी से बढ़ सकी।

23 मार्च 1931 को सुबह-सवेरे ही भगत सिंह का भेजा गुप्त संदेश उनके वकील प्राणनाथ-मेहता को मिला कि जैसे भी हो लेनिन के नव-प्रकाशित जीवन-चरित्र की व्यवस्था तुरंत करें। प्राणनाथ किसी तरह उस पुस्तक को खोजकर जेल में भगत सिंह की कोठरी में पंहुचे। आगे का दृश्य उनके ही शब्दों में- "मेरे कोठरी में पैर रखते ही उन्होंने अपने खास लहज़े में कहा- “आप वह पुस्तक ले आए? मैंने क्रान्तिकारी लेनिन चुपके से उन्हें थमा दी, उसे देखकर वे बहुत प्रसन्न हुए। मैंने कहा- “देश के लिए अपना संदेश दीजिए।” बिना सोचे तुरन्त बोले- “साम्राज्यवाद मुर्दाबाद, इन्कलाब जिन्दाबाद।”

"मैंने भगत सिंह की मनोभावनाओं को जानने के लिए पूछा- “आज आप कैसा महसूस कर रहे हैं?” उनका संक्षिप्त उत्तर था- “मैं बिल्कुल प्रसन्न हूं।” मैंने पूछा- ‘आपकी अन्तिम इच्छा क्या है?’ उनका उत्तर था- ‘बस यही कि फिर जन्म लूं और मातृभूमि की और अधिक सेवा करूं।’ उन्होंने मुकदमे में दिलचस्पी लेने वाले नेताओं को अपनी कृतज्ञता और अपने मित्रों-खासकर फरार साथियों के लिए शुभकामनाएं दीं। अजीब बात यह थी कि मृत्यु के वातावरण से मेरी आवाज़ में कंपकपी थी, पर भगत सिंह तन-मन से पूर्ण स्वस्थ थे।"

"दोपहर के वक्त जेल में बंद अपने कुछ साथियों से रसगुल्ले की फरमाईश भगत सिंह ने भेजी। उन्होंने रसगुल्लों का इंतजाम किया। भगत सिंह ने बहुत प्रसन्नता से रसगुल्ले खाए। यही उनका अंतिम भोजन था। अब भगतसिंह ने फिर से अपने को लेनिन की जीवनी में लीन कर लिया। इतने में कोठरी का दरवाजा खुला और जेल अधिकारियों ने कहा- “सरदार जी, फांसी लगाने का हुक्म आ गया है।” भगत सिंह ने जवाब दिया- “जरा ठहरो, एक क्रांतिकारी दूसरे क्रान्तिकारी से मिल रहा है।” पुस्तक का जो प्रसंग वे पढ़ रहे थे। उसे समाप्त कर उन्होंने पुस्तक रख दी और कहा- “चलो”।"


"भगत सिंह के साथ, सुखदेव व राजगुरु भी अपनी कोठरियों से बाहर आ गए। तीनों साथी अंतिम बार गले मिले। एक दूसरे की बांहों को हाथ में लेते हुए उन्होंने गीत गाया- “दिल से निकलेगी न मर कर भी वतन की उलफत, मेरी मिट्टी से भी खुशबू-ए-वतन आएगी!”

"पास खड़े एक अंग्रेज अधिकारी से भगत सिंह ने कहा- ‘आप खुशकिस्मत हैं कि आज आप अपनी आंखों से यह देखने का अवसर पा रहे हैं कि भारत के क्रांतिकारी किस प्रकार प्रसन्नता पूर्वक अपने सर्वोच्च आदर्श के लिए मृत्यु का आलिंगन कर सकते हैं। फिर तीनों वीरों ने नारा लगाया- ‘इन्कलाब जिन्दाबाद’, साम्राज्यवाद मुर्दाबाद’। और उसके बाद शीघ्र ही वे फांसी के तख्ते पर झूल गए।"

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