श्रीदेव सुमन ने उत्तराखंड में आजादी की राह दिखाई

श्रीदेव सुमन की दिन-प्रतिदिन बिगड़ती हालत देखकर अधिकारियों ने उनकी बीमारी की अफवाह फैला दी। अफवाह फैलाई गई निमोनिया की और इंजेक्शन कुनैन के दिए गए जिससे सुमन की हालत बेहोशी जैसी होने लगी। आखिर 25 जुलाई को इस अहिंसक संघर्ष के पुजारी का प्राणान्त हुआ।

फोटोः सोशल मीडिया
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भारत डोगरा

ब्रिटिश सरकार द्वारा प्रत्यक्ष शासित क्षेत्रों के अतिरिक्त अनेक देशीय राज्यों-रियासतों, राजो-रजवाड़ों के क्षेत्र में भी आजादी की लड़ाई पहुंची और यहां के अनेक स्वतंत्रता सेनानियों ने भी बहुत साहस से इस संघर्ष को आगे बढ़ाया। इन स्वतंत्रता सेनानियों में एक बहुत प्रेरणादायक नाम श्रीदेव सुमन का है जो टिहरी (उत्तराखंड) संघर्ष में अपने महान बलिदान के कारण आज भी उत्तराखंड में प्रेरणा के प्रमुख स्रोत बने हुए हैं। उनके अद्वितीय साहस और त्याग की कहानी इतनी प्रेरणादायक है कि उसकी अधिक जानकारी पूरे देश और दुनिया तक पंहुचनी चाहिए।

बहुत कम आयु में ही उन्होंने एक प्रतिभा-संपन्न समाजसेवी, लेखक और कवि के रूप में पहचान प्राप्त की थी। उनका स्वभाव बहुत मधुर और व्यक्तित्व बहुत प्रभावशाली था जो सहज ध्यान आकर्षित करता था।

साल 1938 में गढ़वाल जिला कांग्रेस कमेटी का राजनीतिक सम्मेलन आयोजित हुआ था, जिसमें जवाहरलाल नेहरु आए। श्रीदेव सुमन ने विशेषकर टिहरी के लोगों की समस्याओं को बहुत प्रभावशाली ढंग से रखा और जवाहरलाल जी से इस विषय पर अलग से भी बातचीत की।

1939 के आरंभ में देहरादून में टिहरी राज्य प्रजा मंडल की स्थापना की गई। श्रीदेव सुमन इसकी संयोजक समिति के मंत्री चुने गए और वे बहुत उत्साह से इसके कार्य के प्रसार में लग गए। इसी वर्ष लुधियाना में अखिल भारतीय देशी राज्य लोक परिषद् के अधिवेशन में उनकी योग्य और उत्साहवर्धक भूमिका से आकर्षित होकर परिषद् के अध्यक्ष जवाहरलाल नेहरू ने उन्हें लोक परिषद की स्थायी समिति में हिमालय प्रान्तीय देशी राज्यों के प्रतिनिधि के रूप में चुना।

24 वर्ष की आयु में ही इतनी बड़ी जिम्मेदारियां सिर पर आ जाने के बाद तो श्रीदेव सुमन का जीवन बहुत व्यस्त हो गया। कभी दिल्ली दौड़े चले जा रहे हैं तो कभी वर्धा, कभी शिमला तो कभी बम्बई। पर इन तमाम व्यस्तताओं के बीच वे कभी-कभी अपने गांव जाने का समय जरूर निकालते थे और इस तरह अपने क्षेत्र के लोगों के दुख-दर्द को नजदीक से जानने-समझने का अवसर भी प्राप्त करते थे।

एक बार मां के चरणों में आराम-विश्राम के लिए पंहुचे तो मां ने हंसी-मजाक में कहा, “तू जब चाहे मुझसे कुछ पैसे ले जाता है। मुझे पैसे कमा कर कब देगा।” सुमन ने जवाब दिया, “मां तुझे कमा कर देने वाले तो तेरे दो अन्य बेटे हैं ही। मुझे तू उनके लिए छोड़ दे जिनका कोई बेटा नहीं है।”

सुमन ने एक बहुत सटीक टिप्पणी की थी कि प्रत्यक्ष ब्रिटिश शासन की जनता गुलाम है पर टिहरी जैसी देशी रियासतों की जनता तो ‘गुलाम की गुलाम’ है। एक ओर तो अधिकांश राजे-रजवाड़े अंग्रेजों की जी-हजूरी में बहुत सारा धन बर्बाद करते ही थे, इसके अलावा उनकी और अपनी विलासिता की क्षतिपूर्ति के लिए वे जनता और उसके संसाधनों को लूटते थे।

अप्रैल 1940 में दिल्ली में सुमन जी की अध्यक्षता में ‘गढ़वाल राज्य प्रवासी प्रजा सम्मेलन’ आयोजित हुआ। इसी समय के आसपास वे कांग्रेस सत्याग्रह समिति की गढ़वाल उपसमिति के संयोजक भी चुने गए। उन्होंने टिहरी जाकर जनसभाएं आयोजित करने का प्रयास किया, पर पुलिस-प्रशासन ने ऐसा करने नहीं दिया।

1942 में भारत छोड़ो आंदोलन आरंभ होने के बाद टिहरी जैसे देशी रियासतों के जन-आंदोलनों में भी उभार आया। अगस्त महीने में बम्बई में आयोजित अखिल भारतीय देशी राज्य लोक परिषद् के सम्मेलन में देशी नरेशों से मांग की गई कि वे ब्रिटिश साम्राज्य से संबंध विच्छेद करें और लोगों के प्रति उत्तरदायी शासन घोषित करें। वहां से लौटकर सुमन ने मसूरी में अपने साथियों से विचार विमर्श किया और टिहरी राजशाही को भी उत्तरदायी शासन स्थापित करने, बेगार और अन्यायपूर्ण कर समाप्त करने, प्रजामंडल को भली-भांति कार्य करने के अवसर प्रदान करने का मांग पत्र भेज दिया। इन्हीं मांगों को आगे बढ़ाने के लिए 10 सितंबर को कार्यकर्ताओं का एक सम्मेलन टिहरी में आयोजित किया गया। किन्तु सुमन को टिहरी पंहुचने से पहले ही देवप्रयाग में गिरफ्तार कर लिया गया और अनेक अन्य कार्यकर्ताओं के साथ देहरादून जेल भिजवा दिया गया। नवंबर में सुमन को अनेक अन्य साथियों सहित आगरा सेंट्रल जेल में भेज दिया गया।

एक साल और 62 दिन की कैद (जिसमें से लगभग 64 दिन देहरादून में और शेष समय आगरा में) के बाद 19 नवंबर 1943 को सुमन रिहा हुए। हरिद्वार में वे अपनी पत्नी विनयलक्ष्मी से मिलने गए पर अधिकांश समय गढ़वाल में राजबंदियों के परिवारों का दुख-दर्द बांटने में लगाया। दिसंबर में उन्होंने टिहरी रियासत में प्रवेश किया और लगभग एक सप्ताह अपने गांव जौल में गुजारा। 27 दिसंबर को वे टिहरी के लिए निकल पड़े, लेकिन चम्बा में पुलिस ने उन्हें रोक दिया। यहीं से सुमन ने उच्चाधिकारियों को अपने सार्थक उद्देश्य के बारे में पत्र लिखा। 30 दिसंबर को उत्तर के दौरे पर पुलिस सुपरिंटेडैंट चंबा पंहुच गए और उन्हीें की बंद मोटर में श्रीदेव सुमन को टिहरी जेल के भीतर पंहुचा दिया गया। आगरा सेंट्रल जेल से छूटे हुए अभी उन्हें मात्र 41 दिन ही हुए थे।

जैसे ही सुमन जेल पहुंचे उनके कपड़े छीन कर उन्हें अकेलेपन की कोठरी में बिना ओढ़ने बिछौने के फैंक दिया गया। जब उन्होंने माफीनामा लिखने से इंकार किया तो उन्हें बेंतों से पीटा गया और पैंतीस सेर वजन वाली बेड़ियां उनके पैरों में डाल दी गईं। जाड़े की ठंडी रातों में उन पर बहुत सारा ठंडा पानी फेंका गया। एक सप्ताह तक यातनाएं चलती रहीं तो भी सुमन अपने पथ से तनिक न डिगे तो उनकी बेड़ियां निकाल दी गईं। फिर भी उन्हें सबसे अलग रखना जारी रखा गया और किसी से भी मिलने नहीं दिया जाता था।

जब सुमन की सभी लोकतांत्रिक मांगे अस्वीकृत होती गईं तो 3 मई 1944 को उन्होंने अपना वह ऐतिहासिक अनशन आरंभ किया जो सदा के लिए विश्व के त्याग और बलिदान के इतिहास में दर्ज हो चुका है।

यह अनशन आरंभ होने के बाद सुमन पर अत्याचार और भी बढ़ गए। उन्हें रोज बेंतों और डंडों से पीटा जाता था और जबरदस्ती खाना खिलाने का प्रयास किया जाता था। जब यह सब कोशिशें सफल न हुईं तो उन्हें जेल अस्पताल की एक कोठरी में डाल दिया गया। यहां भी पैरों में बेड़ियां डाली गईं थीं, बेंत मारे जाते थे। सुमन की हालत दिन-प्रतिदिन बिगड़ती देखकर अधिकारियों ने उनकी बीमारी की अफवाह फैलाई। अफवाह फैलाई निमोनिया की और इंजेक्शन कुनैन के दिए जिससे सुमन की हालत बेहोशी जैसी होने लगी। आखिर 25 जुलाई को इस अहिंसक संघर्ष के पुजारी का प्राणान्त हुआ।

सुमन गढ़वाल के गौरव थे। उन्हें जब इतनी निर्ममता से मारा गया और इस हत्या में टिहरी की राजशाही की सीधी जिम्मेदारी थी, तो इससे लोगों का राजशाही के प्रति अन्धविश्वास तेजी से टूटने लगा और स्वतंत्रता के आंदोलन में बहुत तेजी आई। मात्र 29 वर्ष की आयु में 84 दिनों के उपवास के बाद उन्होंने टिहरी के जेल में जो शहादत प्राप्त की, उसकी कहानी ऐसे हर मौके पर दुहराई जाएगी जब भी दुनिया में किसी महान आदर्श के किये गए बलिदानों को याद किया जाएगा।

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