आनंद कुमारः ‘सुपर 30’ का सुपरमैन जिसने अपनी महत्वकांक्षाओं को पाने के बजाय दूसरों की मदद करना तय किया

कहना मुश्किल है कि कोई बायोपिक कभी किसी शिक्षक के जीवन पर बनी हो। ऐसी फिल्में जरूर बनी हैं जो प्रेरणादायी शिक्षकों के इर्द-गिर्द घूमती हैं। लेकिन एक शिक्षक पर बायोपिक, तो दुर्लभ है। खासकर तब जब यह एक ऐसे शिक्षक पर बनाई गई हो जो वर्तमान में भी पढ़ा रहा हो।

फोटोः सोशल मीडिया
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उत्तम सेनगुप्ता

साल 1993 का वह दिन याद आता है जब मेरे हाथ में गणित का एक जर्नल था। इसे एक विदेशी विश्वविद्यालय ने प्रकाशित किया था, जिसमें आनंद कुमार का एक लेख प्रकाशित हुआ था। यह मेरे लिए दुरूह था, क्योंकि मैं उन लाखों लोगों की तरह था जिन्हें कभी भी इस विषय में बहुत ज्यादा खूबसूरती नजर नहीं आई थी। किंतु मैंने लेख के अंत में दिए गए लेखक के नाम और परिचय को गौर से देखा। इसमें कोई संदेह नहीं था कि इसे वास्तव में 20 की उम्र के आसपास के व्यक्ति ने लिखा था, जो मेरी मेज की दूसरी तरफ बैठा था। बीस साल के किसी युवक का एक विदेशी जर्नल में लेख छपना बहुत बड़ी बात थी।

पटना साइंस कॉलेज के गणित विभाग के प्रमुख डीपी वर्मा ने बिना लाग-लपेट के कहा था कि उनके 40 वर्ष के अध्यापन काल में सामने आया यह दूसरा जीनियस लड़का है। उस लड़के का मुझसे परिचय कराने के लिए, उन्होंने मुझे बुलाया और अनुरोध किया कि मैं रामानुजन स्कूल ऑफ मैथमैटिक्स के वार्षिक पुरस्कार वितरण समारोह में आने का निमंत्रण स्वीकर कर लूं। ‘स्कूल’ वास्तव में पी एंड टी रिक्रिएशन क्लब का हिस्सा था, जिसे यह युवक गणित की मुफ्त ट्यूशन देने के लिए इस्तेमाल करता था। उसके पिता डाक और तार विभाग (पी एंड टी) में मामूली नौकरी करते थे और उसके अधिकतर छात्र डाक और तार विभाग के कर्मचारियों के बच्चे थे।

उन दिनों पटना यूनिवर्सिटी बहुत ही मुश्किल से शिक्षकों को वेतन दे पाती थी। सभी जर्नलों का सब्स्क्रिप्शन वर्षों पहले ही बंद किया जा चुका था। छात्रों की फौज आगे की पढ़ाई के लिए या तो राज्य से बाहर जा रही थी या फिर झुंडों में प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी के लिए कोचिंग कक्षाओं की ओर रुख कर रही थी। ‘कोचिंग माफिया’ बहुत मारक साबित हो रहा था और यहां बीस वर्ष का एक युवक गणित पर एक निबंध तैयार कर रहा था, जो विदेश में प्रकाशित हो रहा था।

मेरे सामने और भी आश्चर्य खुलने वाले थे। आनंद ने मुझे यूं ही बताया था। उसका छोटा भाई बीएचयू में एन.राजम के संरक्षण में वॉइलिन सीख रहा था। इसका उसने फायदा उठाया। वह हर शुक्रवार को छह घंटे की ट्रेन की यात्रा करके वाराणसी जाता, रविवार तक बीएचयू की सेंट्रल लाइब्रेरी में पढ़ाई करता और रविवार की रात को पटना के लिए वापस ट्रेन पकड़ता।

पुरस्कार वितरण समारोह में डीपी वर्मा ने याद किया कि इंटरमीडिएट पास करने के बाद आनंद ने उनसे सलाह मांगी थी। वह गणित की पढ़ाई करना चाहता था, लेकिन दोस्त और रिश्तेदार चाहते थे कि वह आईआईटी के लिए जेईई दे। उसे क्या करना चाहिए? उसने उनसे संक्षेप में पूछा था। वर्मा साहब ने हंसते हुए याद किया- अगर वह बहुत सारी जगहों पर जाना चाहता है, पैसा बनाना चाहता है और आरामदायक जिंदगी जीना चाहता है तो उसे आईआईटी के लिए जाना चाहिए। लेकिन यदि वह उनकी तरह अध्यापक बनकर रहना चाहता है, और उस वेतन पर जीना चाहता है जो कि छह महीने देरी से मिलती है, तो वह गणित की ओर रुख कर सकता है। यह उनके लिए आश्चर्यजनक था, वह लड़का कुछ दिनों के बाद उनका आशीर्वाद लेने और यह सूचना देने के लिए वापस आया कि उसने गणित के विभाग में प्रवेश ले लिया है।


कुछ महीनों के बाद हमारी मुलाकात हुई और मैंने उसे ‘टाइम्सऑफ इंडिया’ के साप्ताहिक परिशिष्ट ‘करियर एंड कंपिटिशन टाइम्स’ में एक कॉलम लिखने का प्रस्ताव दिया। आनंद चिंतित लग रहा था। उसे कैंब्रिज यूनिवर्सिटी से दाखिले के लिए पत्र मिला था। यह खबर इतनी अच्छी थी कि इसके सत्य होने पर संशय हो रहा था। मैं उसके लिए बहुत खुश था, पर इसमें एक पेंच था। कैंब्रिज के प्रोफेसर ने चतुराई से लिखा था कि उन्हें इसमें कोई संदेह नहीं है कि एक बार जब आनंद कैंब्रिज ज्वाइन कर लेगा तो उसे पूरी स्कॉलरशिप मिल जाएगी। लेकिन उसे पहले वर्ष के लिए पैसा खुद वहन करना होगा। हमने हिसाब लगाया।

फीस और कैंब्रिज में एक साल तक रहने का खर्च छह लाख रुपये पड़ रहा था। साल 1993 में यह बहुत बड़ी रकम थी। और बिजनेस कम्युनिटी जैसे- रोटरी, लायंस क्लब आदि से हमें उपेक्षा मिली। शायद चुनाव, कानूनी अव्यवस्था, फिरौती के लिए अपहरण, एग्जाम रैकेट जैसे ज्यादा महत्वपूर्ण मुद्दे मौजूद थे और एक गुमनाम व्यक्ति कैंब्रिज में जाकर पढ़ने के सपने देख रहा था। हताश होकर हमने राज्य सरकार की ओर रुख किया और राजनीतिक तथा प्रशासनिक दोनों ही प्रमुखों को स्थिति के बारे में बताया।

मैंने तर्क दिया कि यह रकम राज्य के लिए बहुत छोटी है, लेकिन यह लड़का एक दिन सेलेब्रिटी होगा और शायद नोबेल पुरस्कार जीते। मुख्यमंत्री का रुख सकारात्मक लग रहा था और उन्होंने मुझसे कहा कि आनंद को उनके पीए के पास भेज देना। कुछ दिनों बाद जब आनंद सीएम के पीए से मिला, तो उसका मजाक उड़ाकर उसे वापस भेज दिया गया। उसे कहा गया किअगर उसे पैसे की जरूरत है, तो सीएम कार्यालय से उसे बीस हजार रुपये मिल सकते हैं। आनंद खाली हाथ लौटा और फिर वहां कभी पलट कर नहीं गया।

अगले कुछ वर्ष निराशाजनक थे। उसके पिता की नौकरी में रहते हुए अचानक मृत्यु हो गई। डाक और तार विभाग ने अनुकंपा के आधार पर उसे तृतीय श्रेणी की नौकरी का प्रस्ताव दिया। यह वह दौर था जब उसे घर में पापड़ या वैफर बनाने के लिए अपनी मां की मदद करनी पड़ी। वह इन्हें बेचने और दुकानों में देने में मदद करता था। मैं लखनऊ चला आया था, लेकिन आने से पहले मैंने उसे अपनी पत्नी के सहपाठी अभयानंद से मिलवाया था, जो मेरी पत्नी के साथ भौतिकी की पढ़ाई करते थे और उन्होंने भारतीय पुलिस सेवा ज्वाइन कर ली थी। अभयानंद अपनी बेटी के लिए गणित का ट्यूटर तलाश रहे थे और मैंने उन्हें आनंद का नाम सुझाया, और आनंद से कहा कि वह डीआईजी साहब से बात कर ले।

1999 में एक दिन मुझे लखनऊ में उसका फोन आया। बहुत समय से हमारा संपर्क टूट चुका था और कई वर्षों में हम आज पहली बार बात कर रहे थे। वह दिल्ली में था और अगले दिन एक टीचर से मिलने के लिए वह आईआईटी, कानुपर आनेवाला था। उसने मुझसे पूछा कि क्या वह एक मुलाकात के लिए लखनऊ आ सकता है। और मैंने हां कहा था। अगले दिन किताबों से भरे हुए दो भारी बैग लेकर वह मेरे ठिकाने पर रात करीब 11 बजे पहुंच गया। उसने कहा कि दिल्ली में उसे एक कोचिंग इंस्टीट्यूट ने पढ़ाने के लिए बुलाया था। उसने बताया कि “मैं इसलिए मान गया कि क्योंकि मैं देखना चाहता था कि क्या दिल्ली में पढ़ाना कुछ अलग होता है।”

उसके पढ़ाने के दो हफ्तों के बाद कोचिंग इंस्टीट्यूट ने उसके सामने दस लाख रुपये वार्षिक का प्रस्ताव रखा। इस उम्मीद के साथ कि उसने प्रस्ताव स्वीकार कर लिया होगा, बहुत ही उत्साहित होकर मैंने उसे मुबारकबाद दी। हल्की सी मुस्कराहट के साथ उसने सिर हिलाया और कहा, “नहीं, मैंने स्वीकार नहीं किया। अगर यह इंस्टीट्यूट मुझे दस लाख देने को तैयार है, तो सोचो खुद कितना कमाता होगा। अब मुझे समझ में आ गया है कि अगर मैं दिल्ली में खुद ही पढ़ाने लग जाऊं तो बहुत पैसा कमा सकता हूं।” उन दिनों इतनेअच्छे ऑफर को ठुकरा देना आसान नहीं था। मैं थोड़ा हतोत्साहित जरूर हुआ।


थोड़ा संभलने के बाद मैंने उससे उन किताबों के बारे में पूछा जो वह लेकर आया था। वे गणित की किताबें थीं जो विदेशी प्रकाशकों ने प्रकाशित की थीं और हर एक की कीमत विस्फोटक थी। उसने बताया कि ये किताबें पटना में नहीं मिलती हैं, इसलिए उसने दिल्ली के कोचिंग इंस्टीट्यूट से मिली रकम से ये किताबें खरीद लीं।

मैंने पूछा, “कैंब्रिज का क्या हुआ। क्या तुमने वो विचार त्याग दिया?” मुझे विस्मित करते हुए उसने जवाब दिया, “उसकी चिंता न करें। एक दिन मैं कैंब्रिज में पढ़ने के लिए स्वयं पर्याप्त धन राशि कमा लूंगा।” मेरे चेहरे पर आश्चर्य के भाव देखकर वह हंसा और उसने कहा, “सर, मैं पहली बार पैसे के लिए पढ़ा रहा हूं। अभयानंद सर ने मुझे सलाह दी है कि मैं गणित मुफ्त में न पढ़ाऊं। इसलिए इस वर्ष मैंने विद्यार्थियों को आईआईटी ज्वाइंट एंट्रेंस टेस्ट के लिए तैयार करने के लिए तीन महीने का कोर्स रखा है।”

उसने बताया, “पटना में ऐसे ही कोर्सेज पर छह हजार रुपये खर्च आता है, लेकिन मैंने एक हजार रुपये प्रति विद्यार्थी प्रस्ताव रखा है।” अभी भी संदेहास्पद होकर मैंने उससे पूछा, “और कितने विद्यार्थियों ने कोर्स के लिए दाखिला लिया?” “छह सौ सर”, बड़े सरल भाव से ये कहता हुआ वह गुसलखाने की ओर टहलता हुआ चला गया। वह लड़का जो कैंब्रिज नहीं जा सका उसने छह लाख रुपये मात्र तीन महीनों में कमा लिए!

मैं ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ के संस्करण के लिए कलकत्ता में था। आनंद ने फोन किया और बताया कि उससे गलती हो गई। चौंकते हुए मैंने उससे खुलकर समझाने के लिए कहा। उसने यूएस वीजा के लिए आवेदन डाल रखा था और वह साक्षात्कार के लिए कलकत्ता आया था, लेकिन उसने मुझे बताया नहीं था। यह जानकर मुझे खुशी हुई कि वह यूएस जाने वाला है। मैंनेपूछा, उसका कितना समय रुकने का विचार है। मुझे झटका लगा जब उसने बताया कि उसका वीजा खारिज कर दिया गया है।

मैंने बेचैन होकर पूछा कि तुम किस गलती की बात कर रहे थे। उसने बड़े शांत भाव से कहा, “मुझे पहले आपके पास आना चाहिए था। आपने मुझे बिल्कुल सही राय दी होती। अगली बार मैं आपको आवेदन करने से पहले ही बता दूंगा।” चौंकते हुए मैंने जोर से कहा, “अरे, अमेरिकी लोग वीजा मेरी सलाह से नहीं देते।” लेकिन तब तक वह फोन रख चुका था।

कुछ महीनों के बाद उसने दोबारा फोन किया। उसने कहा, “मुझे एक इंटरनेशनल क्रेडिट कार्ड चाहिए, लेकिन पटना में बैंक देते ही नहीं। मैं कोलकाता आ रहा हूं। इंटरनेशनल क्रेडिट कार्ड हासिल करने में आपको मेरी मदद करनी ही पड़ेगी।” मैंने अपने संशय रखते हुए कहा कि क्यों कोलकाता में कोई बैंक ऐसे व्यक्ति को कार्ड देगा जो पटना में रहता हो। मैंने कहा, “मुझे कुछ समय दो। और फिर मैं तुमसे दोबारा बात करूंगा।” इस पर “लेकिन मैं एयरपोर्ट पर खड़ा हूं और मैं आपके ऑफिस में शाम को करीब तीन बजे तक पहुंच जाऊंगा”, यह कहते हुए उसने फोन काट दिया।


परेशान होकर मैंने ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ के फाइनेंस मैनेजर को फोन किया और उनकी मदद मांगी। सारा मामला समझाने के बाद, उन्होंने एक बैंक को फोन किया और उसके बाद मुझे यह बताने के लिए फोन किया कि बैंक फिकस्ड डिपॉजिट पर ही कार्ड इश्यू करेगा। अगर आनंद तीन लाख जमा करता है, तो उसकी क्रेडिट की सीमा करीब दो लाख होगी। जब आनंद आया तो मैंने उसे सख्ती से कहा कि कोलकाता के लिए इतनी जल्दबाजी में आने से पहले उसे मेरे जवाब का इंतजार करना चाहिए था। अब उसे पैसा लाने के लिए दोबारा जाना पड़ेगा। इस पर उसने उत्साहित होकर कहा, “लेकिन मेरे पास चार लाख कैश है।”

चार सौ-पांच सौ विद्यार्थियों की क्लास में व्यस्त आनंद को देखना अपने आप में एक नजारा था। मैं उम्मीद करता हूं कि पटना में आनंद की क्लास के कुछ रियल फुटेज होंगे। जो क्लास मैंने 19 साल पहले देखी थी, वह एक छप्पर के नीचे ली जाती थी। एक मेज पर आठ से दस विद्यार्थी चिपक-चिपक कर बैठे होते थे। आनंद कुमार एक ऊंचे मंच पर खड़े होकर बोलते थे और उनकी कमीज पर माइक्रोफोन लगा होता था।

विद्यार्थियों के दोनों तरफ छह या आठ स्पीकर लगे होते थे जो उन तक आनंद कुमार की आवाज पहुंचाते थे। मैंने उसकी मजाक उड़ाई थी जब उसने मुझे पहले बताया था कि उसकी हर क्लास में छह सौ विद्यार्थी होते हैं। लेकिन आंखों देखा ही सच होता है। यह स्पष्ट था कि गणित के जटिल फॉर्मूले को आसान तरीके से बताने का उसे वरदान हासिल था।

उनके विषय में जो बहुत प्रभावित करने वाली बात है, वह है जीवन और गणित के प्रति उनका रवैया। मैं मानता हूं कि वह इससे भी बहुत अधिक कमा सकते थे, अगर कोचिंग इंस्टीट्यूट के अन्य शिक्षकों की तरह, अपने आप को एक रुपये छापने वाली मशीन में बदल दिया होता और तीन-तीन शिफ्ट में कक्षाएं चलाईं होतीं। लेकिन मैंने देखा कि वह सुबह सात बजे से दोपहर तक ही पढ़ाते थे। अपराह्न और शाम का समय खुद के पढ़ने, लिखने और घर के कामकाज के लिए था।

आनंद मेरी अपेक्षा के विपरीत कोई अंतरराष्ट्रीय ख्याति के स्कॉलर नहीं बन पाए, न ही उन्होंने बहुत अधिक अंतरराष्ट्रीय स्तर की अकादमिक किताबें प्रकाशित कीं। और अधिक ख्याति प्राप्त करने के लिए अपनी महत्वकाक्षांओं को पोषित करने के बजाय उन्होंने दूसरों की मदद करने का निश्चय किया और उनकी सारी अकादमिक महत्वकांक्षाओं का स्थान सुपर-30 ने ले लिया।

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