दिल्ली जो एक शहर था आलम में इंतिखाब...

बड़ी मस्जिदों को छोड़ दें तो कस्बों और मोहल्लों में बनी मस्जिदों में या तो मीनार हैं ही नहीं, और अगर हैं भी तो उनमें न अंदर जा सकते हैं और न बाहर से उस पर चढ़ा जा सकता है।

फोटो : Getty Images
फोटो : Getty Images
user

सुहेल हाशमी

बचपन से हम सुनते और पढ़ते आए हैं कि दिन में पांच बार मोअज़्ज़िन (अज़ान देने वाला) मस्जिद की मीनार से अज़ान देते हैं ताकि वे लोग जो सामूहिक नमाज पढ़ना चाहते हैं, उन्हें यह पता चल जाए कि नमाज का समय हो गया है और उन्हें मस्जिद पहुँच जाना चाहिए।

यह बात इतनी बार सुनी और पढ़ी कि कभी यह विचार ही नहीं आया कि बड़ी और आलीशान मस्जिदों को छोड़ दिया जाए तो कस्बों और मोहल्लों में बनी हुई हजारों मस्जिदों में या तो मीनार हैं ही नहीं, और अगर हैं भी तो इस तरह के हैं कि उनमें न अंदर कोई जा सकता है और न बाहर से उस पर चढ़ा जा सकता है। और कोई किसी तरह मीनार पर चढ़ भी गया तो खड़ा कहां होगा? अज़ान कहाँ देगा?

लेकिन जैसा कि मैंने कहा ऐसे विचार कभी मन में आए ही नहीं, क्योंकि यह मान्यता कि मीनार से अज़ान दी जाती है, मन पर इतनी हावी हो चुकी थी कि इसके अलावा कुछ और सोचने की गुंजाइश ही नहीं बची थी।

फिर ये विचार कैसे मन में आया और उपमहाद्वीप की वास्तुकला के बारे में कैसे सवाल पैदा हुए, उन्हें आने वाले दिनों में इस कॉलम के जरिए पेश करूंगा, इस उम्मीद के साथ कि शायद बातचीत का एक सिलसिला बने और बहुत सारी बेबुनियाद मान्यताएं जिन्हें हम लगभग धार्मिक आस्था का रूप दे चुके हैं, उन पर नए सिरे से गौर करने की जरूरत महसूस हो।

इससे पहले कि मैं आगे बढ़ूं, अच्छा रहेगा कि मैं आपको उन हालात के बारे में बता दूं, जिनमें ये विचार मेरे मन में पैदा हुआ। और, इसके लिए मुझे 12-15 साल पीछे मुड़कर देखना होगा। यह उस समय की बात है जब मैं 'लीप ईयर्स' नाम की बच्चों के लिए काम करने वाली संस्था के लिए काम कर रहा था। बच्चे स्कूल के बाद संगीत, नृत्य, चित्रकारी, फोटोग्राफी और अन्य कला सीखने के साथ-साथ फुटबॉल, क्रिकेट और टेनिस सीखने या लाइब्रेरी में पढ़ने के लिए भी आते थे।

फोटो : Getty Images
फोटो : Getty Images
दिल्ली की जामा मस्जिद

बच्चों से बातचीत के दौरान पता चला कि जो बच्चे दिल्ली में पले-बढ़े हैं उन्हें दिल्ली के इतिहास के बारे में कुछ पता ही नहीं है। उनमें वह सारे बच्चे भी शामिल थे जो अच्छे अच्छे स्कूलों में पढ़ रहे थे। मैंने फौरन ही ‘दिल्ली की दरयाफ्त’ नाम से एक कार्यक्रम शुरू किया और बच्चों को हर 15 दिन में दिल्ली के पुरातत्व, दिल्ली के जंगल और दिल्ली के बागों की सैर करवाने का सिलसिला शुरू किया।

यह जरूरत इसलिए महसूस हुयी क्योंकि दिल्ली में पढ़ने वाले बच्चे साल में 46 सप्ताह तो स्कूल जाते हैं, और गर्मी की छुट्टियों में माता-पिता के साथ अपने ननियााल या ददिहाल चले जाते हैं या किसी और शहर में, पहाड़ों पर और जिनके पास पैसे की कमी नहीं है, वह विदेशी देश यात्रा पर चले जाते हैं। नतीजतन इस ऐतिहासिक शहर को देखने का उन्हें कोई मौका ही नहीं मिलता। ‘लीप ईयर्स’ ने मौका मुहैया कराया।

फोटो : Getty Images
फोटो : Getty Images
दिल्ली का कुतुब मीनार

इस फैसले के चौंकाने वाले नतीजे सामने आए, और उनका जिक्र यहां करना जरूरी है। यह सिलसिला शुरू हुआ ही था कि कुछ माता-पिता यह प्रस्ताव लेकर आए कि वे भी अपने बच्चों के साथ चलना चाहते हैं। मैं उनसे निवेदन किया कि बच्चों को जिस तरह की जानकारी दी जाती हैं, उसमें शायद बड़ों को मजा नहीं आएगा, बेहतर यह होगा कि वे अपने मित्रों को तैयार कर लें तो उनके साथ भी यह सिलसिला शुरू किया जा सकता है।

वे तुरंत तैयार हो गए और इस तरह आज से लगभग 12 साल पहले महरौली, तुगलकाबाद, हौजखास, बेगम जयपुर, खिड़की, जहाँपनाह, फिरोजशाह का कोटला, किला कुहना यानी दीन पनाह या शेर गढ़, शाहजहानाबाद, कुतुब साहब, जफर महल, हौज शम्सी, सुल्तान गढ़ी, पीर गायब, बस्ती हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया, चिराग दिल्ली, हुमायूं और रहीम खान खानाँ का मकबरा, लोदी गार्डन और 1857 से संबंधित इमारतों को देखने-दिखाने का सिलसिला दिल्ली में रहने वालों के लिए शुरू हुआ।

फोटो : Getty Images
फोटो : Getty Images
दिल्ली स्थित हुमायूं का मकबरा

12 साल के दौरान हजारों लोगों का उनके शहर से परिचय करवाया। सबसे दिलचस्प बात यह है कि हर शहर में मुझे कुछ न कुछ नई जानकारी मिलती है। कई ऐसे लोगों से मुलाकात हुई है, जिन्होंने अपनी व्यक्तिगत रुचि के आधार पर राजाओं और मुगल बादशाहों के बारे में और उनके वास्तुकला के बारे में बहुत दिलचस्प जानकारी का जखीरा जमा किया हुआ है और वह बड़ी उदारता से इस बहुमूल्य धरोहर को बांटने में संकोच नहीं करते।

कई स्कूलों और कॉलेजों के बच्चों के साथ 'दिल्ली दरयाफ्त' सीरीज का सिलसिला आज भी जारी है। बच्चों और बड़ों के साथ इन खंडहर में घूमते फिरते और उनके इतिहास के बारे में, इस शहर के बारे में, जिसे 'आलम-ए-इंतिखाब' नाम से जाना जाता है, बहुत कुछ नया जानने और समझने के मौके मिले। मस्जिदों और मीनारों के आपसी रिश्ते से जुड़े कई सवाल भी इसी घुमक्कड़ी के दौरान पैदा हुए।

फोटो : Getty Images
फोटो : Getty Images
दिल्ली स्थित लोदी गार्डन

बात जहां से शुरू हुयी थी, घूम-फिर कर वहीं आ गयी है। शुरु से लेकर अभी तक मैंने जो बातचीत यहां पेश है उसका मकसद यही था कि यह सिलसिला जो संवाद के रूप में आपके साथ स्थापित हो रहा है, उसके संदर्भ से आपको परिचित करा दिया जाए।

मीनार और मस्जिद को लेकर जो चर्चा इस लेख में शुरू की गयी है उसे अगली किस्त में आखिर तक पहुंचाने की कोशिश करूंगा।

Google न्यूज़नवजीवन फेसबुक पेज और नवजीवन ट्विटर हैंडल पर जुड़ें

प्रिय पाठकों हमारे टेलीग्राम (Telegram) चैनल से जुड़िए और पल-पल की ताज़ा खबरें पाइए, यहां क्लिक करें @navjivanindia


Published: 24 Aug 2017, 6:42 PM