उत्तर प्रदेश चुनाव में बीजेपी की दलित वोटों पर गड़ी निगाह, राज्य में प्रतीकों की राजनीति शुरू

बीजेपी जाटव के 15 से 18 प्रतिशत वोटर को अपने पक्ष में लाने के प्रयास में है। इसके लिए 2016 में पीएम का अंबेडकर का अस्थि स्थल का दर्शन करना हो या राष्ट्रपति द्वारा लखनऊ में अंबेडकर स्मारक और सांस्कृतिक केन्द्र का शिलान्यास जैसे प्रयास किये जा रहे हैं।

फोटोः सोशल मीडिया
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नवजीवन डेस्क

बीजेपी 2022 की शुरुआत में होने वाले उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव को लेकर बेहद गंभीर है। इसी कारण वह किसी भी बड़े वोट बैंक को अपने पाले में लाने के लिए हर कदम उठाने को तैयार है। प्रतीकों के जरिए त्वारित लाभ को समझते हुए बीजेपी ने लखनऊ में करीब 50 करोड़ की लागत से डॉ. भीमराव आंबेडकर सांस्कृतिक केंद्र का शिलान्यास राष्ट्रपति के हांथों से करवा कर एक बड़ा सियासी संदेश देने का प्रयास किया है।

बीजेपी को इसका कितना फायदा होगा यह तो बाद में पता चलेगा, लेकिन उसके इस दांव ने बीएसपी खेमे में जरूर हलचल पैदा कर दी है। उनकी प्रतिक्रिया इस बात का प्रमाण है। एक बात तो साफ है कि प्रतीकों के माध्यम से आने वाले समय दलित वोटों को अपने पाले में लाने की फिराक में बीजेपी काफी लंबे समय से लगी है।

प्रतीकों की सियासत यूपी में लंबे समय से चली आ रही है। काफी समय से राजनीतिक दल अलग-अलग महापुरूषों के नाम पर उनकी जयंती और पुण्यतिथि के कार्यक्रम के सहारे उससे संबंधित जाति, धर्म और वर्ग को जोड़ने का प्रयास करते रहे हैं। केन्द्र और राज्य सरकार की योजनाओं को भी अनुसूचित वर्ग को केन्द्र में रखकर प्रचारित किया जाता है।

राजनीतिक पंडित कहते हैं कि बीजेपी दलित वर्ग के बीच लगातार किसी न किसी तरह उनके हितैषी होने और महापुरूषों को सम्मान का संदेश देने में लगी है। बीएसपी की कमजोरी का पूरा फायदा लेने के लिए इसी वर्ग में अपनी पैठ बनाने का लगातार प्रयास कर रही है।


हालांकि, कुछ राजनीतिक जानकार प्रतीकों की सियासत को क्षणिक लाभ मानते हैं। वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक रतनमणि लाल कहते हैं कि प्रतीकों को बनाने का एक क्षणिक लाभ यह होता है कि उस व्यक्ति के शासन काल के दौरान एक संदेश जाता है। लेकिन इसकी लाइफ ज्यादा नहीं होती है। अगले चुनाव तक इसका असर नहीं होता है। क्योंकि प्रतीक बनने के बाद लोग उसमें खामियां ढूढने लग जाते हैं। प्रतीक की वजह से जो मन बनाते हैं उनकी वोट देने की संख्या धीरे-धीरे कम होने लगती है। बीजेपी ने सरदार पटेल की मूर्ति बनायी है लेकिन उन्होंने उसे जाति विशेष की जगह देश का प्रतीक बनाया।

रतनमणि लाल कहते हैं कि प्रतीकों की वजह से हमेशा फायदा नहीं होता है। प्रतीक का वोट दिलाने का पोटेंशियल ज्यादा नहीं बचता है। अंबेडकर मूर्ति स्थापना से लेकर जयंती और पुण्यतिथि पर एक जमाने में मायावती का एकाधिकार रहा है। अभी तक देखा गया है स्मारक बने तो दलित के नाम पर लेकिन उसमें किसी एक पार्टी का कब्जा हो गया। बीजेपी इस मिथ को तोड़ना चाहती है, वह चाहती है कि जो वह प्रतीक बनाए वह सबके लिए होगा। किसी एक पार्टी की धरोहर न रहे।

एक अन्य विश्लेषक राजीव श्रीवास्तव कहते हैं कि दलित वोट में खासकर जाटव वोट को अपने पाले में लाने के लिए बीजेपी काफी दिनों से प्रयास कर रही है। बहुत हद तक 2014,17,19 के चुनाव में कुछ सफल रही है। जाटव से अतिरिक्त दलित बीजेपी की ओर आए। 90 के दशक में कल्याण के जमाने में भी नॉन जाटव बीजेपी का वोटर रहा है। लेकिन पिछले डेढ़ दशक से यह बीजेपी से छिटक गया था। बीजेपी 2014 से इसे अपने पाले में लाने के प्रयास में है।


राजीव श्रीवास्तव कहते हैं कि धानुक, सोनकर समाज बीजेपी के पाले में हैं। जाटव समाज आज भी मायावती के साथ प्रतिबद्ध है। जाटव वोटर आज भी बीजेपी से अछूता है। बीजेपी जाटव के 15 से 18 प्रतिशत वोटर को अपने पक्ष में लाने के प्रयास में है। इसके लिए 2016 में प्रधानमंत्री का अंबेडकर का अस्थि स्थल का दर्शन करना हो या राष्ट्रपति द्वारा लखनऊ में अंबेडकर स्मारक और सांस्कृतिक केन्द्र का शिलान्यास जैसे प्रयास किये जा रहे हैं। यह दलित वोटर को रिझाने की कवायद है। इसमें कितनी सफलता मिलेगी। यह तो आने वाला समय बताएगा।

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