लोकसभा चुनाव 2019ः कोलकाता में महागठबंधन के ट्रेलर से बेचैन बीजेपी, हार की आशंका से भगवा खेमे में हड़कंप

कोलकाता में पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की अगुवाई में विपक्षी दलों की एकता का सिर्फ ट्रेलर लॉंच हुआ है। पूरी फिल्म और उसकी पटकथा लिखा जाना अभी बाकी है, लेकिन सिर्फ इतने से ही अपराजेय कहे जाने वाले मोदी के माथे पर पसीना आ गया है।

फोटो : सोशल मीडिया
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विश्वदीपक

अब जबकि लोकसभा चुनाव में मुश्किल से 100 दिनों का वक्त बाकी है, प्रधानमंत्री मोदी समेत भगवा खेमे का डगमगाता आत्मविश्वास नुमाया होने लगा है। 2019 में कांग्रेस मुक्त भारत का सपना देखने वाले मोदी और उनकी पार्टी बीजेपी दोनों बेचैन हैं। हड़बड़ाहट में प्रकाश जावडेकर जैसे बड़े नेता जहां बेतुकी बयानबाजी पर उतर आए हैं, वहीं पीएम मोदी ने एक बार फिर अपने बयानों के जरिए ध्रुवीकरण की राजनीति का संकेत दिया है। कोलकाता रैली पर मोदी ने कहा था कि भ्रष्टाचार के खिलाफ चलाए गए अभियान से बचने के लिए सभी विपक्षी दल एक साथ आ गए हैं। हालांकि, जानकार मानते हैं कि दोनों कोशिशों का अंत हताशा में होना तय है।

वजह सिर्फ इतनी सी नहीं है कि अगले चुनाव के मद्देनजर 20 से ज्यादा राजनीतिक दलों ने बीजेपी के विरोध में एक साथ, एक जगह, एक मंच पर आने का फैसला किया है। बल्कि विश्लेषकों की मानें तो ठोस गणितीय साझेदारी पर आधारित गठबंधन की गंभीर कोशिशों ने बीजेपी समेत उसके पितृ संगठन आरएसएस की भी नींद उड़ा दी है।

ममता बनर्जी के नेतृत्व में हुई कोलकाता रैली पर निगाह रखने वाले एक विशेलषक के मुताबिक उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, महाराष्ट्र, कर्नाटक जैसे राज्यों में जहां कि गठबंधन की शक्ल-ओ-सूरत करीब-करीब साफ हो चुकी है, बीजेपी को भारी नुकसान होने वाला है। इसके अलावा हिंदी हृदय प्रदेश- जहां से लोकसभा की 45 % सीटें आती हैं का दिल भी 2019 के चुनाव में बीजेपी के लिए नहीं धड़केगा।

क्या सत्ता की कुंजी महागठबंधन को देगा उत्तर प्रदेश?

राजनीतिक रूप से देश के सबसे महत्वपूर्ण राज्य उत्तर प्रदेश में बीजेपी को 50 से ज्यादा सीटों का नुकसान हो सकता है। 2014 के चुनाव में बीजेपी ने लगभग 43 % मत के साथ सूबे की 80 में से 71 सीटों पर कब्जा किया था। लेकिन, इस बार हवा का मिजाज बदला हुआ है। 2014 में एसपी, बीएसपी और कांग्रेस ने अलग-अलग चुनाव लड़ा था।

एसपी और बीएसपी के साथ आने से, माना जा रहा है, कि बीजेपी दहाई का आंकड़ा भी मुश्किल से पार कर पाएगी। आरएसएस का आंतरिक सर्वे भी यही इशारा करता है। 2014 में भी बीएसपी और एसपी का संयुक्त वोट शेयर करीब-करीब बीजेपी के बराबर ही 42.15 % था। हालांकि सीटों में जमीन आसमान का फर्क था। लेकिन माना जा रहा है कि दलितों की नाराजगी, अल्पसंख्यक-ओबीसी वोट वैंक के ध्रुवीकरण की वजह से आने वाले चुनाव में बीजेपी को भारी नुकसान का सामना करना पड़ेगा।

गोरखपुर, कैराना और फूलपुर में हुए उपचुनावों के परिणाम भी इसी निष्कर्ष की तस्दीक करते हैं। इन तीनों सीटों पर हुए लोकसभा उपचुनाव में बीजेपी को करारी हार का सामना करना पड़ा। बेशक उपचुनाव का युद्ध क्षेत्र सीमित होता है लेकिन इसका असर व्यापक होता है।

जानकारों के मुताबिक कांग्रेस के (प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष) समर्थन के साथ अगर बीएसपी, एसपी और राष्ट्रीय लोक दल (आरएलडी ) एक साथ जमीनी स्तर पर मजबूत गठबंधन करने में कामयाब होते हैं तो बीजेपी के लिए तीन दलों की संयुक्त ताकत का सामना करना मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन भी होगा।

बिहारः गठबंधन के पक्ष में बहती बयार

उत्तरप्रेदश के अलावा जिस राज्य में बीजेपी का कमल के मुरझाने के आसार सबसे ज्यादा हैं वो है बिहार। गठबंधन राजनीति की प्रयोगशाला कहे जाने वाले बिहार में आरजेडी के नेतृत्व में पहले से ही एक मजबूत बीजेपी विरोधी फ्रंट तैयार हो चुका है। बीजेपी के पूर्व सहयोगी आरएलएसपी के नेता उपेन्द्र कुशवाहा और हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा (हम) के जीतन राम मांझी के आ जाने से गठबंधन की ताकत में और इजाफा ही हुआ है। हालांकि, नीतीश कुमार के नेतृत्व वाली जेडीयू रामविलास पासवान की लोक जन शक्ति पार्टी (एलजेपी) बीजेपी के साथ ही हैं, लेकिन इस दोस्ती का फायदा बीजेपी को मिलने के आसार कम ही हैं।

वजह है पासवान समेत नीतीश कुमार की लोकप्रियता का गिरता ग्राफ। आंकड़े भी गवाही देते हैं कि नीतीश कुमार की एनडीए में घर वापसी बिहार के लोगों को रास नहीं आई।

पिछले साल अररिया लोकसभा सीट के लिए हुए उपचुनाव में आरजेडी गठबंधन के आगे बीजेपी को 60 हजार वोटों से करारी हार का सामना करना पड़ा जबकि 2014 के चुनाव में ये सीट आरजेडी-जेडीयू के खाते में थी। नीतीश कुमार और पासवान का अभियान भी बीजेपी को फायदा नहीं दिला सका।

इसी तरह अररिया विधानसभा के लिए हुए उपचुनाव में भी बीजेपी को जोरदार मुंह की खानी पड़ी। आरजेडी के नेतृत्व में विपक्षी दलों के गठबंधन ने यहां बीजेपी को परास्त किया। उपचुनावों से मिल रहे संकेत बताते हैं कि आने वाला लोकसभा चुनाव बीजेपी के लिए समुद्र लांघने जैसा होगा जहां डूबने की आशंका ज्यादा है।

पिछले चुनाव की बात करें तो 2014 में, मोदी लहर और 10 साल की एंटी इनकंबेंसी पर सवार बीजेपी और उसके सहयोगियों ने बिहार की 40 में से 33 सीटों पर कब्जा किया था। लेकिन जानकारों के मुताबिक, आरजेडी, कांग्रेस, आरएलएसपी और हम की सम्मिलित ताकत के आगे बीजेपी का टिकना मुश्किल होगा।

अगर केवल 14 % यादव और 17-18 % मुसलमानों को ही जोड़ दिया जाए तो 31% से ज्यादा वोट महागठबंधन को मिलने की उम्मीद है। इसके अलावा जहानाबाद विधानसभा सीट, जो कि मुख्य रूप से सवर्ण बाहुल्य है, के अनुभव बताते हैं कि सवर्ण वोटरों का एक तबका भी इस बार बीजेपी के खिलाफ वोट कर सकता है। यानि बिहार में चुनावी बयार बीजपी के खिलाफ बहती दिख रही है।

महाराष्ट्रः महागठबंधन को मिलेगी ताकत

उत्तर प्रदेश और बिहार की तरह महाराष्ट्र में भी जहां दलित और किसान आंदोलन बेहद मजबूत है, विपक्षी दलों की एकता ने बीजेपी की परेशानियां बढ़ा दी है। कांग्रेस और शरद पवार के नेतृत्व वाली एनसीपी समेत किसानों के बीच मजबूत आधार रखने वाले स्वाभिमानी पक्ष ने एक साथ चुनाव लड़ने का ऐलान पहले ही कर दिया है। आने वाले वक्त में इसमें प्रकाश अंबेडकर के बहुजन महासंघ और बहुजन समाजवादी पार्टी जैसे अनेक छोटे दलों के जुड़ने की संभावना है।

अभी तक के फॉर्मूले के हिसाब से 48 सीटों में से कांग्रेस और एनसीपी 20-20 सीटों पर यानी 40 सीटों पर चुनाव लड़ेंगी। बाकी 10 सीटें छोटे दलों के लिए छोड़ी गई हैं। विश्लेषकों के मुताबिक, छोटे दलों ने 2014 में बीजेपी की जीत में अहम भूमिका निभाई थी, लेकिन इस बार इनका समर्थन महागठबंधन को मिलेगा।

यहां पर एक सर्वे का उल्लेख करना दिलचस्प होगा। जनवरी के पहले हफ्ते में कांग्रेस और एनसीपी के गठबंधन के ऐलान के बाद एक न्यूज चैनल ने महाराष्ट्र में सर्वे कराया जिसमें दावा किया गया कि अगर आज चुनाव कराए जाएं तो महाराष्ट्र की 48 में से 35 सीटें महागठबंधन को मिलेंगी। जैसे संकेत मिल रहे हैं, अगर शिवसेना और राज ठाकरे के नेतृत्व वाली महाराष्ट्र नव निर्माण सेना (मनसे) बीजेपी से अलग चुनाव लड़ती हैं तो जाहिर है भगवा पार्टी को भारी नुकसान का सामना करना पड़ेगा।

कर्नाटकः गेट वे ऑफ साउथ के दरवाजे बीजेपी के लिए बंद

दक्षिण में बीजेपी का “गेट-वे” कहे जाने वाले कर्नाटक में भी भगवा पार्टी की हालत आने वाले चुनाव में बेहत खराब हो सकती है। यही वजह है कि प्रधानमंत्री मोदी समेत बीजेपी के रणनीतिकारों के माथे पर पसीना आ रहा है।

पिछले चुनाव में बीजेपी ने लोकसभा की 28 में से 17 सीटें हासिल की थीं, लेकिन कांग्रेस और जेडीएस के साथ आने से परिस्थितियां बदल चुकी हैं। विश्लेषकों का मानना है कि अगर कर्नाटक विधानसभा चुनाव के नतीजों के आधार पर (जिसमें कांग्रेस और जेडीएस के गठबंधन ने जीत हासिल की थी) लोकसभा 2019 के नतीजों का आंकलन किया जाए तो बीजेपी को सिर्फ 6 सीटों से संतोष करना होगा, जबकि कांग्रेस नीत गठबंधन को 28 में से 21 सीटों पर जीत मिलने के आसार हैं।

हिंदी हृदय प्रदेश का दिल किसके साथ

अंग्रेजी में हिंदी हार्टलैंड और हिंदी हृदय प्रदेश के नाम से मशहूर 10 राज्यों ने 2014 के लोकसभा चुनावों में बीजेपी की जीत में अहम भूमिका निभाई थी. अगर बिहार और उत्तर प्रदेश को अलग कर दिया जाए (जहां कि गठबंधन हो चुका है) तो भी हिंदी हृदय प्रदेश के अन्य राज्यों जैसे- राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, हिमाचल प्रदेश और हरियाणा से भी बीजेपी के लिए बुरे संकेत मिल रहे हैं।

हाल ही में संपन्न हुए विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की जीत ने हिंदी हृदय प्रदेश में बीजेपी के लिए खतरे की घंटी बजा दी है। विश्लेषकों के मुताबिक तीन राज्यों राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में जहां हाल ही में विधानसभा चुनाव सम्पन्न हुए हैं, बीजेपी को आने वाले लोकसभा चुनाव में करारी हार का सामना करना पड़ेगा। इन तीन राज्यों की 65 सीटों में से पिछली बार बीजेपी ने 62 सीटें जीती थीं लेकिन विधानसभा चुनाव के नतीजों के आधार पर अगर लोकसभा चुनाव का आंकलन किया जाए तो बीजेपी को सिर्फ 18 सीटें मिलेंगी। इनमें से 10 सीटें राजस्थान से, 8 मध्यप्रदेश से होंगी। जबकि माना जा रहा है कि छत्तीसगढ़ में बीजेपी का खाता भी नहीं खुलेगा।

अगर यूपी, बिहार को भी मिलाकर बात की जाए तो ऐसा माना जा रहा है कि पूरे हिंदी हृदय प्रदेश में बीजेपी को 2019 के चुनाव में 70 % सीटों का घाटा हो सकता है। 2014 में बीजेपी ने हिंदी हार्टलैंड की 245 सीटों में से 196 पर अकेले जीत हासिल की थी। अगर घटक दलों को मिला दिया जाए तो ये आंकड़ा 211 तक पहुंचता है। लेकिन ये पैटर्न इस बार उलट जाने के पूरे आसार हैं। विश्लेषकों के मुताबिक बीजेपी को इस पूरे क्षेत्र में 137 सीटों का नुकसान होगा और उसकी सीटों की संख्या 196 से घटकर 59 पर सिमट जाएगी।

उत्तर-पूर्व : बीजेपी का होगा सूर्य अस्त ?

बीजेपी के चाणक्य कहे जाने वाले अमित शाह को बखूबी अनुमान है कि यूपी में एसपी-बीएसपी गठबंधन के बाद उनकी पार्टी को अच्छा-खासा नुकसान होने वाला है। इसकी भरपाई के लिए उन्होंने बड़े जतन से विन नॉर्थ-ईस्ट की रणनीति तैयार की, लेकिन उनका ये दांव भी कामयाब होता नहीं दिख रहा है। सबसे बड़ी वजह है सिटिजनशिप बिल। जानकारों की मानें तो आम चुनाव से ऐन पहले मोदी सरकार ने सिटिजनशिप बिल पास करके अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मार ली है।

विन नॉर्थ-ईस्ट की रणनीति के मुताबिक बीजेपी ने क्षेत्र की 25 में से 21 सीटें जीतने की योजना बनाई थी लेकिन सिटिजनशिप बिल के विरोध ने इस रणनीति की सफलता पर धुंध की चादर फेर दी है।बिल का विरोध करते हुए बीजेपी के नेतृत्व वाले नॉर्थ-ईस्ट डेमोक्रेटिक अलायंस (एनईडीए) के कई सदस्य या तो अलग हो चुके हैं या अलग होने की कगार पर हैं।

बीजेपी की विश्वसनीय सहयोगी रही असम गण परिषद ने, असम एकॉर्ड का हवाला देते हुए, गठबंधन से किनारा कर लिया है। जाहिर है इससे बीजेपी की ताकत लोकसभा चुनावों में कमजोर होगी।

विश्लेषकों के मुताबिक, मेघायल की नेशनल पीपुल्स पार्टी, नागालैंड की नेशनल डेमोक्रेटिक प्रोग्रेसिव पार्टी और मिजोरम की मिजो नेशनल फ्रंट ने भी बीजेपी से अलगाव की तैयारी कर ली है। अगर बीजेपी ने सिटिजनशिप बिल के मुद्दे पर अपने पैर पीछे नहीं खींचे तो सारी पार्टियां एक-एक करके बीजेपी का दामन छोड़ देंगी। इसमें कोई दो राय नहीं है। और, इस बात का अहसास शायद बीजेपी को भी है। पश्चिम बंगाल के मालदा की रैली में सिटिजनशिप बिल के मुद्दे पर अमित शाह की सफाई को इसी संदर्भ में देखा जा रहा है।

जानकारों के मुताबिक, असल में बीजेपी ने सिटिजनशिप बिल के जरिए एक तीर से दो शिकार करने की योजना बनाई थी। पहला यह कि समूचे उत्तर पूर्व को सांप्रयादिक आधार पर विभाजित करना और दूसरा देश के अन्य राज्यों में घुसपैठियों के मुद्दे को हवा देकर वोट हासिल करना।

लेकिन अब बीजेपी अपने ही बनाए चक्रव्यूह में फंस गई है। एक तरफ तो उसे लगातार अपने ही सहयोगियों का विरोध सहना पड़ा रहा है, दूसरा उसके कई नेता पार्टी छोड़कर जा रहे हैं। हाल ही में अरुणाचल प्रदेश में दशकों तक मुख्यमंत्री रहे, कद्दावर नेता गोआंग अपांग ने पार्टी छोड़ दी। इसी तरह मणिपुर बीजेपी के उपाध्यक्ष रहे एम हेमंत सिंह ने पार्टी छोड़ कांग्रेस का हाथ थाम लिया है। संकेत साफ हैं कि अमित शाह की विन नॉर्थ ईस्ट रणनीति भी जोश कम, समस्या ज्यादा पैदा कर रही है।

पश्चिम बंगालः कैसे लहराएगा भगवा ?

कुछ साल पहले तक कम्युनिस्टों के गढ़ “लाल किले” के रूप में मशहूर पश्चिम बंगाल को लेकर भी बीजेपी और अमित शाह की उम्मीदें वही हैं जो नॉर्थ ईस्ट से हैं। यानि, 42 सीटों वाले इस राज्य से अमित शाह और बीजेपी हिंदी हार्ट लैंड में होने वाली हार की भरपाई करना चाहते हैं। लेकिन बंगाल की राह बीजेपी के लिए बिल्कुल आसान नहीं है। एक तो ममता बनर्जी की हैसियत का कोई नेता बीजेपी के पास नहीं है, दूसरा सूबे की कुल आबादी का 28 % हिस्सा मुसलमानों का है जिनका मत अनिवार्यत: बीजेपी के खिलाफ जाएगा। इसी अलपसंख्यक समुदाय के समर्थन की बदौलत 2014 के चुनाव में भी ममता बनर्जी की पार्टी तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) ने 42 में से 34 सीटों पर जीत हासिल की थी। माना जा रहा है कि कुछ ऐसे ही नतीजे 2019 में भी देखने को मिलेंगे।

टीएमसी के अलावा, बीजेपी को पश्चिम बंगाल में लेफ्ट और कांग्रेस से भी जूझना पड़ेगा। यानि मुकाबला चतुष्कोणीय होगा। ऐसे में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण कितना कामयाब होगा कहा नहीं जा सकता।

जाहिर है, 2019 के चुनाव में बीजेपी के सिर पर चौतरफा हार के बादल मंडरा रहे हैं। इसकी वजह जितनी बाहरी है, उतनी ही भीतरी। चार साल से भी कम समय में मोदी मैजिक नाम के गुब्बारे का फूट जाना कोई अस्वाभाविक घटना नहीं। प्रधानमंत्री मोदी और उनके जोड़ीदार अमित शाह ने जिस तरह से पार्टी और सरकार के अंदर सत्ता का केन्द्रीकरण किया है उससे न सिर्फ बीजेपी के लोग बल्कि उनके सहयोगी दलों का भी दम घुटने लगा है। एनडीए के विघटन और शिवसेना जैसे दशकों पुराने दोस्त की धमकियों को इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए।

बहरहाल इस आंतरिक वजह के अलावा, जानकारों की मानें, तो मोदी सरकार के पतन की असली शुरुआत हुई थी 8 नवंबर 2016 को जब बड़बोले प्रधानमंत्री ने बिना किसी पूर्व सूचना के देशभर में नोटबंदी लागू की थी।

काले धन को मिटाने के मकसद से किए गए दुस्साहसी ऐलान ने किसानों, मझले और छोटे व्यापारियों को तबाह कर दिया। इस बारे में पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का कथन आश्चर्यजनक रूप से सही साबित हुआ। मनमोहन सिंह ने कहा था कि नोटबंदी की वजह से भारतीय अर्थव्यवस्था को दो फीसदी का नुकासान होगा। रही-सही कसर जीएसटी ने पूरी कर दी। नोटबंदी और जीएसटी की वजह से व्यापारी और किसान वर्ग जो बीजेपी का मजबूत आधार वोट बैंक था बेहद दूर छिटक गया है। निश्चित रूप से इसकी अनुगूंज 2019 के चुनाव में सुनाई देगी।

इसके अलावा, दलितों के साथ अत्याचार, अल्पसंख्यक समुदाय के युवाओं का फर्जी मुठभेड़ में मारा जाना और गौ रक्षकों के आतंक ने बीजेपी के विरोध में महागठबंधन के पक्ष में जोरदार बुनियाद तैयार कर दी है।

भ्रष्टाचार को जड़ से समाप्त करने के जिस मुद्दे के साथ मोदी सत्ता में आए थे, राफेल घोटाला, मेहुल चौकसी, नीरव मोदी और माल्या के देश से भागने की घटनाओं ने उनकी इस छवि पर भी जोरदार बट्टा लगाया है। चौकीदार ही चोर है का नारा घर-घर पहुंच चुका है।

जैसे 2014 में मोदी के पास खोने को कुछ नहीं था, पाने को बहुत कुछ था, उसी तर्ज पर माना जा रहा कि 2019 में मोदी के पास खोने के लिए सारा जहां हैं, लेकिन पाने को कुछ नहीं है। जोरदार भाषण शैली के धनी मोदी के तरकश में उपलब्धियों के तीर न के बराबर हैं, जबकि उनके विरोधी एक से एक अग्न्नेयास्त्रों से लैस हैं। ऐसे में व्यावहारिक, पारंपरिक बुद्धिमत्ता और गणितीय समझ तीनों यही कहते हैं कि मोदी की हार दीवार पर लिखी इबारत की तरह है जिसे खुद बीजेपी ने भी पढ़ लिया है (हालांकि उसे वो न समझने का बहाना कर रहे हैं)।

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