बिहार में नीतीश-कुशवाहा मिलन के पीछे बीजेपी का खौफ, एक-दूसरे की जरूरत ने कराया सियासी विलय!

पिछले साल हुए बिहार विधानसभा चुनाव के परिणाम आने के बाद से ही नीतीश और कुशवाहा की नजरें एक-दूसरे को ढूंढ रही थीं, जिसकी तलाश अब जाकर पूरी तो हो गई है, लेकिन अब देखने वाली बात होगी कि यह जरूरत कब तक उपेंद्र कुशवाहा और नीतीश कुमार को एक साथ जोड़कर रख पाती है।

फोटोः IANS
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मनोज पाठक, IANS

राजनीति में कब कौन किसका दोस्त हो जाए और कब किसका बैरी हो जाए कहा नहीं जा सकता। ऐसा ही बिहार की सियासत में एक बार फिर देखने को मिला जब पूर्व केंद्रीय मंत्री उपेंद्र कुशवाहा ने रविवार को अपनी पार्टी राष्ट्रीय लोकसमता पार्टी (आरएलएसपी) का विलय नीतीश कुमार की पार्टी जनता दल (युनाइटेड) में कर दिया। जेडीयू में विलय के बाद कुशवाहा ने एलान किया कि जेडीयू को फिर से नंबर वन पार्टी बनाना है। लगे हाथ मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने भी उन्हें जेडीयू संसदीय दल का अध्यक्ष बनाने की घोषणा कर दी।

सियासी जानकारों का कहना है कि इस 'सियासी मिलन' की जरूरत दोनों दलों को थी। दरअसल
कुशवाहा के नीतीश कुमार को आठ साल के बाद फिर से 'बड़ा भाई' कहने का मुख्य कारण पिछले साल अक्टूबर-नवंबर में हुए विधानसभा चुनाव का परिणाम बताया जा रहा है। चुनाव में कुशवाहा ने महागठबंधन का साथ छोड़कर कुछ छोटे दलों का गठबंधन बनाकर चुनावी वैतरणी पार करने की कोशिश जरूर की थी, लेकिन मतदाताओं का साथ नहीं मिला। कुशवाहा की पार्टी खाता तक नहीं खोल सकी।

वहीं, इस चुनाव में सीएम नीतीश कुमार की पार्टी जेडीयू का प्रदर्शन भी खराब रहा। राज्य की सत्ता पर काबिज जेडीयू चुनाव नतीजों में तीसरे नंबर की पार्टी बनकर रह गई। पिछले साल हुए चुनाव में बीजेपी को 74 सीटें मिलीं, जबकि जेडीयू की सीटें घटकर 43 पर पहुंच गईं। इस चुनाव के पहले तक बिहार में जेडीयू बड़े भाई की भूमिका में थी, लेकन मौजूदा स्थिति में वह आरजेडी और बीजेपी के बाद तीसरे स्थान पर है।

इसके बाद जेडीयू गहन मंथन के बाद अपने कुनबे को बढ़ाने के लिए सामाजिक आधार मजबूत करने के प्रयास में जुट गई। नीतीश ने जेडीयू के संगठन को धारदार बनाने के लिए आर सी पी सिंह को अध्यक्ष की जिम्मेदारी सौंप दी। अब इसी कवायद में मौजूदा राजनीतिक परिस्थतियों को देखते हुए जेडीयू ने कुशवाहा की आरएलएसपी को अपने साथ मिलाया है। जेडीयू के नेता भी मानते हैं कि इस कदम से जेडीयू का जनाधार बढ़ेगा।

दरअसल बिहार में कुर्मी और कोइरी (कुशवाहा) जाति को लव-कुश के तौर पर जाना जाता है, जो नीतीश कुमार का आधार वोट रहा था। लेकिन उपेंद्र कुशवाहा के अलग होने के बाद नीतीश के इस वोट बैंक में दरार आ गई थी। कहा जा रहा है कि कुशवाहा को पार्टी में लाकर नीतीश कुमार इसी वोट बैंक को फिर से दुरूस्त करने में जुटे हैं। वैसे विरोधी इसे जातीय राजनीति भी बता रहे हैं।

हालांकि, कुशवाहा के जेडीयू में आने के बाद विरोधियों की भृकुटी तो तनी ही है, उनके जेडीयू को सबसे बड़ी पार्टी बनाने के बयान ने बीजेपी को भी सचेत कर दिया है। बीजेपी के नेता हालांकि, इस मामले में खुलकर तो कुछ नहीं बोल रहे हैं, लेकिन बीजेपी के बढ़ते ग्राफ को कम करने के लिए नीतीश के इस चाल से बीजेपी के अंदर भी खलबली महसूस की जाने लगी है।

बीजेपी के प्रवक्ता निखिल आनंद कहते हैं कि कोई भी पार्टी अपने संगठन को मजबूत और बड़ा तथा पार्टी को एक नंबर की पार्टी बनाने की चाहत रखती है, यही तो राजनीति है। उन्होंने कहा कि बीजेपी और जेडीयू मिलकर सरकार चला रहे हैं, लेकिन दोनों दल अपने संगठन को भी मजबूत करने में जुटे हैं। हालांकि, उन्होंने यह भी कहा कि कुशवाहा के सहयोगी दल के साथ आने के बाद एनडीए मजबूत होगी, जिसका लाभ आने वाले चुनाव में मिलेगा।

वहीं, जेडीयू की प्रवक्ता सुहेली मेहता कहती हैं, "कुशवाहा जी की राज्य की राजनीति में अपनी अलग पहचान रही है। उनकी अपनी पकड़ है। उनके पार्टी में आने के बाद जेडीयू और मजबूत होगा। हमारे सहयोगी दल भी उनका स्वागत कर रहे हैं।"

वैसे, पिछले साल हुए बिहार विधानसभा चुनाव के परिणाम आने के बाद से ही दोनों दलों की नजरें एक-दूसरे को ढूंढ रही थीं, जिसकी तलाश अब जाकर पूरी तो हो गई है, लेकिन अब देखने वाली बात है कि यह जरूरत कब तक कुशवाहा और नीतीश कुमार को एक साथ जोड़कर रख पाती है, क्योंकि यह मिलन खालिस सियासी और राजनीतिक जरूरत के तहत है।

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