क्या शाह ने मोदी से कुछ ऐसा छिपाया है कि रिश्तों में आ गई खटास, आखिर सीन से गायब क्यों हैं गृहमंत्री !

मोदी सरकार में गृहमंत्री बने अमित शाह बीजेपी और सरकार में सबसे ताकतवर बनकर उभरे। लेकिन जब अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप के दौरे के दौरान वह लगभग गायब रहे और फिर दिल्ली हिंसा में भी नदारद रहे, तो लगा कि यह ताकत भी बीजेपी की चुनावी सफलता जैसी क्षणभंगुर तो नहीं थी?

फोटोः सोशल मीडिया
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कुमार मयंक

बात राष्ट्रपति भवन में स्वतंत्रता दिवस के बाद आयोजित स्वागत समारोह की है। केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह कई लोगों से घिरे हुए थे कि सामने से राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार (एनएसए) अजीत डोभाल नमूदार हुए। लेकिन जैसे ही उनकी नजर शाह पर पड़ी, वह अचानक दाईं ओर मुड़े और दूसरी ओर चले गए। दोनों के बीच की केमिस्ट्री वहां मौजूद लोगों से छिपी नहीं रही।

अमित शाह के सर्वशक्तिशाली गृहमंत्री होने के बावजूद दिल्ली हिंसा को काबू में लाने में डोभाल की भूमिका इसी पृष्ठभूमि में देखी जा रही है। कैबिनेट रैंक प्राप्त डोभाल सीधे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को रिपोर्ट करते हैं। कश्मीर से लेकर अंतरराष्ट्रीय मामलों तक हर बात पर मोदी डोभाल से परामर्श करते हैं और अधिकतर मामलों में उनकी राय मानी भी जाती है।

लेकिन मोदी के हनुमान कहे जाने वाले अमित शाह को डोभाल फूटी आंख नहीं सुहाते। एक मोदी का दाहिना हाथ है, तो दूसरा बायां हाथ। लेकिन पूरी ताकत लगाने के बावजूद दिल्ली चुनाव न जीत पाने और फिर दिल्ली हिंसा काबू करने में शाह की नाकामयाबी की वजह से चर्चा है कि मोदी और शाह के रिश्तों में कहीं कुछ खटास तो नहीं आ गई है!

मोदी सरकार में गृहमंत्री बनने के बाद अमित शाह पार्टी और सरकार में सबसे ताकतवर व्यक्ति बनकर उभरे थे। वह अलग-अलग विभाग के कई मंत्रियों की बैठक बुलाकर दिखा चुके थे कि उनकी ताकत क्या है? तीन तलाक को कानून बनाने से लेकर अनुच्छेद-370 हटाने तक अधिकतर बड़े और विवादित मामले उन्होंने ही निपटाए। लेकिन जब अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की भारत यात्रा के दौरान अमित शाह लगभग अनुपस्थित रहे और फिर भी दिल्ली में हिंसा काबू में नहीं आई, तो लगा, यह ताकत भी बीजेपी की चुनावी सफलता जैसी क्षणभंगुर और प्रचार तंत्र की उपज तो नहीं थी?

दरअसल, शाह ने ही ट्रंप की अहमदाबाद में स्वागत तैयारियों का इंतजाम किया था। लेकिन दिल्ली हिंसा की वजह से मोदी ने उन्हें दिल्ली भेज दिया। वह, बस, मोटेरा स्टेडियम के कार्यक्रम में दिखाई दिए, वह भी मंच पर नहीं, नीचे दर्शक दीर्घा में। दिल्ली में होने के बावजूद ट्रंप के लिए राष्ट्रपति भवन में आयोजित औपचारिक रात्रिभोज में भी शाह आमंत्रित नहीं थे, जबकि रक्षामंत्री राजनाथ सिंह, उपराष्ट्रपति वेंकैया नायडू और लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला तक वहां मौजूद थे।


दिल्ली तीन दिनों तक जलती रही और गृहमंत्री सिर्फ अपने दफ्तर में बैठकों पर बैठकें करते रहे। प्रश्न पूछे जाने लगे कि जो व्यक्ति अभी 15 दिन पहले तक वोट मांगने के लिए दिल्ली में गली-गली घूम रहा था, वह हिंसा के दौरान बाहर क्यों नहीं निकला? हिंसा के दौरान पुलिस के रवैये की आलोचना हो रही है। पुलिस चाहती तो दंगे रोक सकती थी। तो क्या दिल्ली पुलिस ने जानबूझकर ऐसा किया? अगर किया तो आखिर किसके कहने पर? तो क्या मोदी इसी बात पर शाह से नाराज हैं?

इसी बीच शाह के करीब माने जाने वाले अमूल्य पटनायक की जगह मोदी के करीबी एसएन श्रीवास्तव को दिल्ली का पुलिस कमिश्नर नियुक्त किया गया। और सूत्र बताते हैं कि इसके लिए शाह से परामर्श भी नहीं किया गया जबकि दिल्ली पुलिस सीधे उनके मंत्रालय के अधीन है। यही नहीं, जब 3 मार्च की रात पटनायक सीलमपुर के डीसीपी के दफ्तर में बैठे डोभाल से मिलने के लिए घर से निकले तो रास्ते से ही उन्हें लौटा दिया गया।

गौरतलब है कि पटनायक पहले ही रिटायर हो चुके थे और एक महीने के सेवा विस्तार पर चल रहे थे। वहीं 25 फरवरी को गुजरात के आईपीएस डीजी बंजारा को सेवानिवृत्ति के 6 साल बाद प्रमोशन दे दिया गया। बंजारा सोहराबुद्दीन-तुलसी एनकाउंटर केस में आरोपी रह चुके हैं और मोदी के सबसे करीबी अफसरों में उनका शुमार होता है। इतना कि उन्होंने कई बार मोदी को अपना भगवान करार दिया है। 2002 से पहले तक वह इतने करीब थे कि कई बार मोदी की गोपनीय बैठक में बंजारा भी हुआ करते थे, जबकि शाह को बाहर बैठाया जाता था।

शायद इसी वजह से शाह से बंजारा के रिश्ते वैसे ही हैं, जैसे शाह के डोभाल से। तो क्या मोदी पीछे छूट गए करीबियों को वापस नजदीक लाना चाहते हैं? या मोदी को अब शाह पर पहले जैसा भरोसा नहीं रह गया है? या इस हिंसा में कुछ ऐसा हुआ जिसकी जानकारी सिर्फ शाह को थी, मोदी को नहीं?


मोदी गुजरात में अपने 15 वर्षों के शासन के दौरान जिन लोगों से दूर चले गए थे, उन्हें अब वापस लाने में लगे हैं। मसलन, राज्य के पूर्व गृह राज्यमंत्री गोवर्धन झड़ाफिया जिन्हें लोकसभा चुनाव के दौरान यूपी का प्रभार दिया गया था। यही नहीं, मोदी ने कभी गुजरात बीजेपी में अपने सबसे प्रबल प्रतिद्वंद्वी रहे संजय जोशी को भी उनके पिछले जन्मदिवस पर फोन कर शुभकामनाएं देकर सभी को भौंचक्का कर दिया।

जाहिर है, ये बातें अमित शाह के लिए बड़े झटके हैं। मोदी अपने सभी विदेश दौरों के दौरान राजनाथ सिंह को आधिकारिक रूप से सरकार में नंबर दो के स्थान पर नियुक्त कर जाते हैं। वहीं, मोदी के करीब माने जाने वाले जेपी नड्डा के बतौर पार्टी अध्यक्ष काम संभालने के बाद अमित शाह की पार्टी पर भी पकड़ कमजोर होगी। यानी, क्या अब शाह नितिन गडकरी या राजनाथ सिंह की तरह ही मोदी सरकार के एक मंत्री भर रह गए हैं!

संसद का बजट सत्र खत्म होने के बाद पार्टी और सरकार में बड़े फेरबदल की संभावना है। जेपी नड्डा अपनी टीम में अपने विश्वस्त लोगों को जगह देंगे और भूपेंद्र यादव- जैसे शाह के करीबी सरकार में शामिल होंगे। परिवर्तन के संकेत मोदी द्वारा सहयोगी दलों के नेताओं से परामर्श से भी मिलने लगे थे। उन्होंने जगनमोहन रेड्डी और नीतीश कुमार से बातचीत कर उनके संभावित मंत्रियों के नाम मांगे हैं। इसी दौरान उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड और हरियाणा में भी नेतृत्व परिवर्तन की संभावना जताई जा रही है। इन परिवर्तनों से साबित होगा कि शाह का मोदी पर क्या कुछ प्रभाव बचा भी है?

दरअसल, बीजेपी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की नजर मे, उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने संशोधित नागरिकता कानून (सीएए) के खिलाफ प्रदर्शनों के साथ सख्ती से निपट कर बड़ी लकीर खींच दी है। अब दिल्ली में उपद्रवियों से निपटने के तरीकों की तुलना आदित्यनाथ के सख्त रवैये से की जा रही है। संघ का मानना है कि इस बार आदित्यनाथ ने अपने को बेहतर प्रशासक दिखाया है।

संघ का साफ मानना है कि उपद्रवियों से सख्त-से-सख्त तरीकों से निपटा जाना चाहिए, ताकि किसी समुदाय विशेष के लोगों को असीमित अधिकार न मिले। बीजेपी की जिम्मेदारी वाले संघ प्रचारक बीएल संतोष के एक ट्वीट को इसी परिपेक्ष्य में देखा जा रहा है। हिंसा के दौरान उन्होंने ट्वीट किया थाः यह सही दिशा में शुरुआत है। हालांकि, बाद में उन्होंने उसे डिलीट कर दिया। लेकिन इससे संघ की सोच तो जाहिर हो ही गई।

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