किसानों को 50 फीसदी मुनाफा देने का वादा भी जुमला साबित

कृषि मंत्री राधा मोहन सिंह के मुताबिक बीजेपी ने किसानों को 50 फीसदी मुनाफा देने का वादा कभी किया ही नहीं!

मंदसौर में किसानों पर फायरिंग के खिलाफ दिल्ली के जंतर-मंतर पर प्रदर्शन / फोटो: Hindustan Times via Getty Images
मंदसौर में किसानों पर फायरिंग के खिलाफ दिल्ली के जंतर-मंतर पर प्रदर्शन / फोटो: Hindustan Times via Getty Images
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इमरान खान

भारत में ज्यादातर किसानों की आय राष्ट्रीय औसत से कम है, उपज के सही दाम न मिलने के कारण वो मायूसी की ज़िन्दगी गुजार रहे हैं। किसानों की हालत ऐसी है कि वो कम उत्पादन करे तो भी मरते हैं और अधिक उत्पादन करें तो भी। भारत सरकार या राज्य सरकारें दावा कुछ भी करें लेकिन हकीकत यही है कि उदारीकरण के बाद से खेती-बाड़ी और देहात की दशा लगातार दयनीय होती जा रही है। किसानों और अन्य संगठित क्षेत्रों के बीच 1970 के दशक में जो अंतर 1:2 का था वह अब बढक़र 1:8 का हो गया है। 2014 के आम चुनावों के प्रचार के दौरान नरेन्द्र मोदी ने किसानों के लिए वादों की झड़ी लगाई थी। उसके बाद कई राज्यों के चुनावों के दौरान भी ऐसे ही लुभावने वादे किए गए। लेकिन किसानों से किये हुए वादे भी दूसरे बाकी ‘मशहूर वादों’ की तरह ही ‘जुमले’ साबित हुए।

किसानों को 50 फीसदी मुनाफा देने का वादा भी जुमला साबित

बीते दिनों मध्य प्रदेश के मंदसौर में किसानों आंदोलन में कई लोगों की मौत होने पर जब विपक्ष ने सरकार को घेरा तो केंद्रीय कृषि मंत्री राधा मोहन सिंह न सिर्फ उन वादों से मुकर गए जो बीजेपी और मोदी ने किसानों के लिए किए थे बल्कि किसानों की ख़ुदकुशी को प्रेम प्रसंग से जोड़कर बेहद हल्केपन का परिचय भी दिया। राज्यसभा में 19 जुलाई को कृषि मंत्री राधा मोहन सिंह ने एक सवाल के लिखित जवाब में किसानों की आत्महत्या के पीछे मुख्य वजहों में किसानों के प्रेम प्रसंग, शादी टूटने और दहेज के मामलों में खुदकुशी को प्रमुखता से गिना दिया। हालांकि अपने जवाब में कृषि मंत्री ने फसल ख़राब होने और किसानों पर बढ़ते कर्ज़ के बोझ को भी वजह बताया लेकिन ये सारी बातें उन्होंने अपने जवाब के आखिर में लिखीं। पिछले दो दशकों में देश में लाखों किसानों ने ख़ुदकुशी की है। लेकिन कृषि मंत्री का लिखित जवाब किसानों को लेकर मोदी सरकार की गंभीरता पर सवालिया निशान लगाता है।

ये बात रिकॉर्ड में है कि 2014 के लोकसभा चुनावों के प्रचार के दौरान नरेन्द्र मोदी ने कई सभाओं में ऐलान किया था कि अगर एनडीए सत्ता में आया तो किसानों की आमदनी दोगुना हो जाएगी।

एक सभा में मोदी ने कहा था, “हम सरकार में आएंगे तो किसान की खेती में लगनी वाली लागत, जैसे बीज, पानी, बिजली, खाद, कीटनाशक, मजदूरी आदि सभी खर्चों का हिसाब लगाया जाएगा। इनपुट के खर्चों के ऊपर 50 प्रतिशत लाभ जोड़ दिया जाएगा और सबको जोड़कर जो शेष होगा वही किसानों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य तय किया जाएगा। आप कल्पना कर सकते हैं अब कोई सरकार या सरकारी कर्मचारी किसान को लूट नहीं पाएगा और किसान को अपना माल बेचने में कोई परेशानी नहीं होगी और किसानों का किसी भी तरह शोषण नहीं हो पाएगा।“

केंद्रीय गृहमंत्री और बीजेपी के वरिष्ठ नेता राजनाथ सिंह ने भी हरियाणा विधानसभा चुनाओं के दौरान झज्जर की एक चुनावी सभा में कहा था कि उनकी सरकार शीघ्र ही किसानों को उनकी कृषि लागत मूल्य पर 50 प्रतिशत मुनाफा सुनिश्चित करेगी। वो भी ये बात दोहराना नहीं भूले थे कि पिछली सरकारों ने अब तक किसानों का शोषण किया है लेकिन यह सरकार किसानों और श्रमिकों के पसीने के मूल्य का उचित दाम देगी। हालाँकि राजनाथ सिंह का ये चुनावी भाषण भी ‘जुमले’ के अलावा कुछ और साबित नहीं हुआ।

जब इस बात को विपक्ष ने संसद में उठाया तो राधा मोहन सिंह ने बड़ी ही ढिठाई के साथ कहा की प्रधानमंत्री के कभी एमएसपी यानि मिनिमम सपोर्ट प्राइस से जुड़ा वादा किया ही नहीं।

किसी भी संकट के सवाल पर कृषि मंत्री राधा मोहन सिंह के पास एक ही जवाब होता है कि सरकार 2022 तक किसानों की आय दोगुना करने के लिए हर संभव प्रयास कर रही है। लेकिन न तो उनको वह कृषि संकट दिख रहा है जो संपन्न पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश में मालवा के साथ महाराष्ट्र तक को अपनी गिरफ्त में ले चुका है, न ही किसानों की आत्महत्याएं। सरकार इसी बात से खुश है कि अनाज का रिकार्ड उत्पादन हो रहा है। लेकिन अगर किसानों को कृषि उत्पादों का उचित मूल्य मिल रहा होता तो क्या उनके गुस्से की ऐसी परिणति होती। क्या दूध से लेकर फल सब्जियों को वे सड़क पर फेंकने को मजबूर होते। क्या प्याज से लेकर आलू तक सड़को पर मारा मारा फिरता।

ज़मीनी हकीक़त ये है की नरेन्द्र मोदी ने प्रधानमंत्री बन जाने के बाद से किसानों के लिए गंभीरता से काम किया ही नहीं। इसकी जगह उनकी सरकार ने किसानों का 11000 करोड़ रुपया कई वर्षों से दबाए बैठे चीनी मिल मालिकों की सुध ली और उन्हें बिना ब्याज का 6600 करोड़ रुपया पांच साल के लिए दे दिया गया।

राष्ट्रीय लोक वित्त एवं नीति संस्थान (एनआईपीएफपी), नई दिल्ली के लिए जून 2015 में तैयार एक दस्तावेज में भी यह बात मानी गई थी। इसके लेखक ने कहा, “भारत में खाद्य महंगाई दर बढ़ाने में न्यूनतम समर्थन मूल्यों की भी बड़ी भूमिका पाई गई है। एमएसपी में वृद्धि की दर का अगले वर्ष के थोक मूल्य सूचकांक (डब्ल्यूपीआई) आधारित मुद्रास्फीति पर बहुत प्रभाव होता है।” एमएसपी में समय-समय की वृद्धि ही खाद्य महंगाई के लिए अकेली जिम्मेदार नहीं है - बढ़ती आबादी द्वारा खपत में भारी वृद्धि का भी इसमें योगदान है – लेकिन इसे राजनीतिक जुमलों के नीचे दबाया न तो जा सकता है और न ही जाना चाहिए।

डॉ.एम.एस स्वामिनाथन की अध्यक्षता वाले राष्ट्रीय कृषक आयोग ने सबसे बेहतरीन सिफारिश की और एमएसपी को उत्पादन लागत से 50 फीसदी अधिक करने का कहा था। लेकिन एनडीए सरकार ने इस पर कोई ध्यान न देकर किसानों को आहत किया। यही वजह है की दर्द और बढ़ता चला गया। पूर्व की केंद्र सरकारें प्राकृतिक आपदा के निष्पक्ष मूल्यांकन के लिए मंत्रियों के एक समूह की समिति बनाकर रखते थे। मोदी सरकार ने इस तरह की सभी समितियों को भंग कर दिया है, क्योंकि इस सरकार की चिंता में किसान शामिल ही नहीं हैं। जबकि अन्नदाता हरेक सरकार की प्राथमिकता में होने चाहिए।

2011 की जनगणना के मुताबिक 11 करोड़ 88 लाख किसान और 14 करोड़ 43 लाख कृषि मजदूर खेती पर निर्भर हैं। इन पर आश्रित इनके परिवारों के सदस्यों को भी जोड़ लिया जाए तो यह संख्या 72 करोड़ के करीब बैठती है। मसलन तमाम औद्योगिक उपायों के बावजूद देश की 60 फीसदी आबादी की आजीविका आज भी खेती-किसानी पर टिकी है। बावजूद इसके मोदी सरकार उद्योगपतियों के प्रति उदार दिखाई दे रही है। जबकि कृषि प्रधान देश में खेती-किसानी पर ज्यदा ध्यान देने की जरूरत है।

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Published: 09 Aug 2017, 2:22 PM