जलवायु परिवर्तन का आपातकाल और अनदेखे प्रभाव

हाल में ही दुनिया के 153 देशों के 11258 वैज्ञानिकों ने एक रिपोर्ट प्रकाशित कर जलवायु परिवर्तन और तापमान बृद्धि को दुनिया के लिए आपातकाल घोषित कर दिया है और कहा है कि इसके ऐसे प्रभाव पड़ेंगे जिसके बारे में हम सोच भी नहीं सकते।

फोटो: सोशल मीडिया
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महेन्द्र पांडे

हाल में ही दुनिया के 153 देशों के 11258 वैज्ञानिकों ने एक रिपोर्ट प्रकाशित कर जलवायु परिवर्तन और तापमान बृद्धि को दुनिया के लिए आपातकाल घोषित कर दिया है और कहा है कि इसके ऐसे प्रभाव पड़ेंगे जिसके बारे में हम सोच भी नहीं सकते। इसमें भारत के 65 वैज्ञानिक भी शामिल हैं जो विभिन्न शोध संस्थानों और शिक्षण संस्थानों से जुड़े हैं। यह रिपोर्ट प्रसिद्ध विज्ञान जर्नल, बायोसाइंस, के नवीनतम अंक में “वर्ल्ड साइंटिस्ट्स वार्निंग ऑफ ए क्लाइमेट इमरजेंसी” शीर्षक से प्रकाशित की गई है। इन वैज्ञानिकों ने पिछले 40 वर्षों के सम्बंधित आंकड़ों का विश्लेषण करने के बाद इस रिपोर्ट को प्रस्तुत किया है। रिपोर्ट में जलवायु परिवर्तन रोकने में नाकाम सरकारों के विरुद्ध प्रदर्शनों की सराहना भी की गई है। जलवायु परिवर्तन के प्रभावों का आलम यह है कि जिस दिन यह रिपोर्ट सामने आयी ठीक उसी दिन संयुक्त राष्ट्र के वर्ल्ड मेटेरिओलोजिकल ऑर्गेनाईजेशन ने बताया था कि इस वर्ष का अक्टूबर महीना इतिहास के किसी भी अक्टूबर महीने की तुलना में अधिक गर्म था।

यह रिपोर्ट वर्ष 1979 में जेनेवा में आयोजित जलवायु परिवर्तन से सम्बंधित पहले अंतर्राष्ट्रीय सम्मलेन के ठीक 40 वर्षों बाद प्रकाशित की गई है। इस मुहिम का आरम्भ जेनेवा में ही 50 देशों के वैज्ञानिकों ने किया था, जिसमें अब 153 देशों के वैज्ञानिक शामिल हैं। इस रिपोर्ट की अनेक खासियत है। इसमें पिछले 40 वर्षों के आंकड़ों का विश्लेषण है और आंकड़ों का विश्लेषण ग्राफ के माध्यम से प्रस्तुत किया गया है और रिपोर्ट की भाषा को जटिल वैज्ञानिक नहीं रखा गया है जिससे सामान्य जन और नीति-निर्धारकों के लिए यह आसान रहे।


रिपोर्ट के एक मुख्य लेखक, यूनिवर्सिटी ऑफ सिडनी के वैज्ञानिक डॉ थॉमस न्यूसम के अनुसार ऐसी रिपोर्ट पिछले अनेक वर्षों से लगातार आती रहीं हैं, पर इनका आधार केवल बढ़ते तापमान के आंकड़े और ग्रीनहाउस गैसों का लगातार बढ़ता उत्सर्जन ही रहता है, जिससे प्रभावों की पूरी तस्वीर स्पष्ट नहीं होती। इस रिपोर्ट में इन आंकड़ों के साथ-साथ मनुष्यों और मवेशियों की बढ़ती संख्या, मांस का उत्पादन, जंगलों के घटते क्षेत्र, जीवाष्म इंधनों के बढ़ाते उपयोग, वायु परिवहन में बृद्धि और सकल घरेलू उत्पाद का भी विश्लेषण किया गया है। डॉ थॉमस न्यूसम के अनुसार इन सारे पैरामीटर के विश्लेषण के बिना जलवायु परिवर्तन के प्रभावों का आकलन अधूरा रहता है।

रिपोर्ट के अनुसार बहुत कम ऐसे पैरामीटर हैं जिसमें विश्व सकारात्मक कदम उठा रहा है। नवीनीकृत ऊर्जा के क्षेत्र में हम प्रगति कर रहे हैं, ऐसे स्त्रोतों से विद्युत् उत्पादन में दुनिया प्रति दशक 373 प्रतिशत की बृद्धि कर रही है, पर जीवाष्म इंधनों से बिजली उत्पादन भी लगातार बढ़ता जा रहा है। डॉ थॉमस न्यूसम के अनुसार जलवायु परिवर्तन को नियंत्रित करने के सभी रास्ते अभी बंद नहीं हुए हैं पर इसके लिए दुनिया को अभी से प्रयास करने पड़ेंगे। इसके लिए, ऊर्जा, अल्पकालिक प्रदूषक, प्रकृति, खाद्य पदार्थों, जनसंख्या और सकल घरेलू उत्पाद के क्षेत्रों में तत्काल ध्यान देने की जरूरत है। ऊर्जा के क्षेत्र में जीवाष्म इंधनों पर सरकारों को दी जाने वाली सब्सिडी तत्काल समाप्त करने की जरूरत है और साथ ही इन स्त्रोतों पर कार्बन टैक्स लगाने की जरूरत है। ऊर्जा संरक्षण पर भी ध्यान देना पड़ेगा। मीथेन, हाइड्रोफ्लोरोकार्बन और कालिख जैसे अल्पकालिक प्रदूषकों के उत्सर्जन को नियंत्रित करके आने वाले दशकों में जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को 50 प्रतिशत तक कम किया जा सकता है।

भूमि उपयोग में बदलाव, जंगलों, घास के मैदानों और मैन्ग्रोव वनों को कटने से रोकने की आवश्यकता है। जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को कम करने के लिए पूरी दुनिया में खाद्य पदार्थों में व्यापक बदलाव की आवश्यकता है, मांसाहार से शाकाहार की तरफ कदम बढाने होंगे। खाद्य पर्दार्थों की बर्बादी को भी तत्काल रोकना पड़ेगा। मानव आबादी लगभग 2 लाख प्रतिदिन के हिसाब से बढ़ रही है, इसपर लगाम लगाना पड़ेगा। सकल घरेलू उत्पाद को जीवाष्म इंधनों पर आधारित करने के बदले कार्बन से स्वतंत्र करना पड़ेगा।

कुछ समय पहले संयुक्त राष्ट्र के पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज के वैज्ञानिकों ने अपनी रिपोर्टों में भविष्य की डरावनी तस्वीर पेश की है। इनके अनुसार सागरों का जलस्तर लगातार बढ़ता जा रहा है, पानी अम्लीय होता जा रहा है और इसका तापमान भी बढ़ता जा रहा है, पृथ्वी और पहाड़ों के ऊपर जमी बर्फ तेजी से पिघल रही है और प्रजातियाँ विलुप्त हो रही हैं या फिर अनुकूल जगह पर प्रस्थान कर रही हैं। हिमालय के ग्लेशियर भी तेजी से सिकुड़ते जा रहे हैं। अमेरिका की एक संस्था, क्लाइमेट सेंट्रल की हाल की एक रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2050 तक सागर तल बढ़ने के कारण जितने लोगों के विस्थापित होने का अनुमान था, उससे कई गुणा अधिक लोगों का विस्थापन होगा।

संयुक्त राष्ट्र के महासचिव ने हाल में ही बैंकाक में पत्रकारों से बातचीत में कहा कि यदि एशियाई देशों को जलवायु परिवर्तन से निपटना है तो कोयले के उपयोग की आदत से किनारा करना होगा। कोयले के उपयोग के सन्दर्भ में चीन और भारत अग्रणी देश है। भारत एक ऐसा देश है जहां पुराने ताप बिजली घरों के अतिरिक्त ढेर सारे नए ताप बिजली घरों पर भी काम चल रहा है। कोल इंडिया लिमिटेड ने वर्ष 2018 में कोयले का रिकॉर्ड उत्पादन तो किया ही था, इसके साथ ही गौतम अडानी भारी मात्रा में ऑस्ट्रेलिया से कोयला लेकर आने की तैयारी में हैं।

डॉ थॉमस न्यूसम के अनुसार जलवायु परिवर्तन पर जेनेवा में 40 वर्ष पूर्व आयोजित अधिवेशन के बाद से ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन बढ़ता जा रहा है, तापमान लगातार बढ़ता जा रहा है पर दुनिया आँखें मूंद कर बैठी है और कुछ भी नहीं कर रही है। पर देखना तो यह है कि वैज्ञानिकों ने जिस लगन के साथ अपने नैतिक कर्तव्य का निर्वाह किया है, वैसा ही इस दुनिया की सरकारें करेंगी या नहीं।

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Published: 10 Nov 2019, 7:00 AM