केदार शर्मा: जिसे थप्पड़ मारा या चवन्नी दी, वो मशहूर हो गया

राजकपूर, दिलीप कुमार, नरगिस, गीता बाली, गायिका मुबारक बेगम और संगीतकार रोशनजैसे कलाकारों को केदार शर्मा से चवन्नी मिली थी। उनकी चवन्नी बहुत भाग्यशाली मानी जाती थी और जिसे भी मिलती वह संभाल कर रखता।

फोटो : सोशल मीडिया
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इकबाल रिजवी

उनके मारे हुए थप्पड़ और उनके द्वारा दी गयीं चवन्नियां जिसके नसीब में आईं, वो मशहूर हो गया। ये थे केदार शर्मा। फिल्मों में हीरो बनने आए थे, लेकिन अभिनय के अलावा फिल्मों के जिस क्षेत्र में हाथ डाला कामयाबी ने कदम चूम लिये। केदार शर्मा को दुनिया से गुज़रे 19 साल हो चुके हैं, लेकिन उनकी फिल्में बरसों उनकी याद दिलाने के लिये काफी हैं।

12 अप्रैल 1910 को पंजाब के नरौला (अब पाकिस्तान) में जन्मे केदार शर्मा ने पढ़ाई अमृतसर में की। 1933 में उन्हें इत्तेफाक से देवकी बोस की निर्देशित फिल्म पुराण भगत देखने का मौका क्या मिला, वे सिनेमा की रूपहली दुनिया में खो गए। अब तो वे हर समय फिल्मों में काम करने के सपने देखने लगे। अपने सपने को पूरा करने के लिए वे कोलकाता चले गए, क्योंकि उस समय फिल्म निर्माण का सबसे बड़ा केंद्र कोलकाता में हुआ करता था।

कोलकाता में बहुत कोशिशों के बाद केदार शर्मा की मुलाकात मार्डन थियेटर के दिनशा रनी से हुई। केदार शर्मा के फिल्मों के प्रति उत्साह को देखते हुए उन्होंने केदार से पूछा की वे क्या क्या काम कर सकते हैं। केदार शर्मा ने जवाब दिया कि, अभिनय, गीत लेखन, कहानी लेखन में से कोई भी काम कर सकते हैं, लेकिन इन कामों के लिए वहां लोगों की जरूरत नहीं थी। वहां जरूरत थी पोस्टर बनाने वाले एक पेंटर की। चित्रकला में माहिर केदार शर्मा को जैसे ही ये पता चला, उन्होंने पेंटर बनना स्वीकार कर लिया।

वे तो किसी तरह फिल्म जगत में शामिल होना चाहते थे उन्होंने सोचा इस बहाने उन्हें अभिनय करने का मौका आसानी से मिल जाएगा। कुछ समय बाद इत्तेफाक से उन्हें कैमरामैन का काम करने का अवसर मिला, जिसे उन्होंने बिना झिझक स्वीकार कर लिया। साल 1934 में आयी फिल्म “सीता” बतौर सिनेमाटोग्राफर केदार शर्मा की पहली फिल्म थी। इसके बाद न्यू थियेटर की फिल्म “इंकलाब” में केदार शर्मा को एक छोटी सी भूमिका निभाने का मौका मिला।

इसके बाद केदार शर्मा ने कई फ़िल्मों में अभिनय किया इनमें “पुजारिन”, “विद्यापति”, “बड़ी दीदी”, “नेकी और बदी” शामिल हैं। लेकिन उनकी बेहद पतली आवाज उनके अभिनय की राह में रूकावट बन गयी। इसका एहसास केदार शर्मा को भी हो गया था, इसलिये उन्होंने अपनी प्रतिभा को फिल्म निर्माण के दूसरे क्षेत्रों में लगाया।

1936 की फिल्म “देवदास” केदार शर्मा के सिने करियर की अहम फिल्म साबित हुई। इस फिल्म में वह बतौर कथाकार और गीतकार की भूमिका में थे। फिल्म हिट रही और केदार शर्मा फिल्म इंडस्ट्री में स्थापित हो गए। इसके बाद उन्होंने “औलाद” और फिर 1941 में “चित्रलेखा” फिल्म का निर्देशन किया। इस फ़िल्म की सफलता के बाद केदार शर्मा बतौर निर्देशक फ़िल्म इंडस्ट्री में स्थापित हो गए। उन्होंने नरगिस और दिलीप कुमार स्टारर फिल्म “जोगन” का भी निर्देशन किया, जो अपने समय की बेहद चर्चित फिल्म थी।

केदार शर्मा बहुत सख्त गुरू थे। वे अपनी फिल्म के सेट पर जरा सी भी अनुशानहीनता नहीं बर्दाश्त करते थे। राजकपूर तब उनके असिस्टेंट थे जब केदार शर्मा ने उनकी जरा सी चूक पर उन्हें थप्पड़ जड़ दिया। “हमारी याद आएगी” के सेट पर उन्होंने तनूजा को चांटा मारा था। इन्हीं केदार ने फिल्म “नील कमल” में पहली बार राजकपूर और अभिनेत्री के तौर पर पहली बार मधुबाला को मौका दिया। बाद में भारतीय फिल्मी दुनिया में इन दोनों सितारों की क्या हैसियत बनी यह बताने की जरूरत नहीं है।

1949 में केदार शर्मा ने फिल्म “नेकी और बदी” का निर्देशन किया, इसमें संगीत देना था स्नेहल भॉटकर को, लेकिन रोशन नाम के एक नौजवान की कुछ धुनें केदार शर्मा को बेहद भा गयी थीं। लिहाजा फिल्म में रोशन को बतौर संगीतकार मौका दे दिया। उन्होंने भारत भूषण को “चित्रलेखा” में तब मौका दिया जब भारत भूषण काम की तलाश में कड़ा संघर्ष कर रहे थे।

एक ओर केदार शर्मा अपने सख्त स्वभाव के लिए जाने जाते थे तो दूसरी तरफ अच्छे काम को बढ़ावा देने और सम्मानित करने का उनका अपना अंदाज था। वे जिसके काम से खुश हो जाते थे उसे इनाम में दुअन्नी देते थे बाद में वे चवन्नी देने लगे। उन्होंने राजकपूर, दिलीप कुमार, नरगिस, गीता बाली, गायिका मुबारक बेगम और संगीतकार रोशन के अलावा कई लोगों को इस तरह सम्मानित किया। केदार शर्मा की चवन्नी बहुत भाग्यशाली मानी जाती थी और जिसे भी मिलती वह उसे संभाल कर रखता था।

अब केदार शर्मा के एक और हुनर पर नजर कर ली जाए। याद कीजिये फिल्म “बावरे नैन” (1950) का मुकेश का गाया गीत “तेरी दुनिया में जी लगता नहीं वापस बुला ले” और मुकेश और गीता दत्त का गाया इसी फिल्म का गीत “खयालों में किसी के इस तरह आया नहीं करते” या फिर देवदास का सहगल का गया ये गीत “बालम आए बसे मेरे मन में” और सहगल का ही फिल्म “जिंदगी” (1940) का गाया ये गीत “मैं क्या जानूं क्या जादू है जादू है” और मुबारक बेगम का गाया कालजयी गीत “कभी तन्हाईयों में यूं हमारी याद आएगी”। ये सभी गीत केदार शर्मा की कलम से निकले। वे एक साथ निर्माता, निर्देशक, सिनेमा फोटोग्राफर, अभिनेता, पटकथा लेखक और गीतकार भी थे।

केदार शर्मा की एक खूबी पर बहुत कम नजर डाली गयी है और वो थी बच्चों के प्रति उनकी संवेदनशीलता। उन्होंने बच्चों के लिए भी कई फ़िल्में बनाईं, जिनमें “जलदीप”, “गंगा की लहरें”, “गुलाब का फूल”, “26 जनवरी”, “एकता”, “चेतक”, “मीरा का चित्र”, “महातीर्थ” और “खुदा हाफ़िज़” शामिल हैं। वे करीब 50 साल तक फिल्मी दुनिया में सक्रिय रहे। 29 अप्रैल 1999 को इस फिल्मकार का निधन हो गया।

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