एक्टर हो ! पर लगते तो नहीं...इस जवाब को सुनते-सुनते नेशनल अवार्ड वाले हीरो बन गए नवाजुद्दीन सिद्दीकी

यह कहानी 50, 60 या 70 के दशक की नहीं है कि किसी को फिल्मों में स्थापित होने में 14 बरस लगे हों। यह कहानी है आर्थिक उदारवाद आने के बाद तेजी से विकसित हो रहे भारत की। जहां 90 के दशक में एक शख्स एक्टर बनने के जुनून में चौकीदारी करता है।

फोटो : सोशल मीडिया
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इकबाल रिजवी

क्या करते हो...

जी, मैं एक्टर हूं...

अच्छा...देखने में तो नहीं लगते...

यह वह जुमला होता, जिसके बाद उसे पता था कि अब उसे हाथ पकड़के निकाल दिया जाएगा। ऐसा एक बार नहीं, दर्जनों बार हुआ। शुरु में तो उसे बुरा लगता था, लेकिन फिर आदत पड़ गयी। कई बार तो वह बिना खाए ही सो जाता था, कई बार तो सो ही नहीं पाता, क्योंकि अगर वह सो जाता तो पैसे कट जाते, वह चौकीदार था न। और चौकीदार को सोने की इजाजत नहीं होती। वह खुद को एक्टर समझता, लेकिन लोग उसे देखकर नाक-भौं सिकोड़ते, फिर एक दिन एक डायरेक्टर की उस पर नजर पड़ी, और रुपहले पर्दे पर उसने अफजल खान के रूप में धमाकेदार एंट्री की। यह ऐसी एंट्री थी कि इसके बाद कभी किसी ने उससे नहीं कहा कि एक्टर हो, लेकिन लगते नहीं।

यह कहानी है नवाजुद्दीन सिद्दीकी की। वहीं नवाजुद्दीन जो तलाश और सरफरोश में आमिर खान के लिए मुखबिरी कर रहे थे, कहानी में खुद क्राइम ब्रांच के तेजतर्रार इंस्पेक्टर के तौर पर मुखबिरों को तलाश रहे थे। यह वही नवाजुद्दीन हैं, जो दिल्ली में जिंदगी चलाने के लिए खिलौने बनाने वाली फैक्टरी में चौकीदारी करते, लेकिन फिर मनोज वाजपेयी और सौरभ शुक्ला जैसे कलाकारों के साथ नाटक करते, क्योंकि एनएसडी में एडमिशन के लिए नाटक करने का तजुर्बा जरूरी होता है।

पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर जिले में बुढ़ाना नाम के छोटे से गांव में 19 मई 1974 के नवाजुद्दीन सिद्दीकी का जन्म हुआ था। 9 भाई-बहनों में नवाजुद्दीन सबसे बड़े हैं। 12वीं तक की पढ़ाई इसी गांव में करने के बाद वह कैमिस्ट्री में बीएससी करने के लिए हरिद्वार की गुरुकूल कांगड़ी यूनिवर्सिटी चले गए। ग्रेजुएशन के बाद उन्हें गुजरात की एक फैक्ट्री में केमिस्ट की नौकरी भी मिल गई, लेकिन एक दिन किसी दोस्त के साथ फिल्म क्या देखी कि एक्टिंग के कीड़े ने काट लिया। और नवाजुद्दीन, नौकरी-वौकरी छोड़छाड़कर दिल्ली आ गए एक्टिंग का कोर्स करने के लिए।

नवाजुद्दीन किसी गरीब परिवार से नहीं आते हैं, बल्कि उनका परिवार तो साधन संपन्न किसान परिवार है। लेकिन उन्होंने तय किया था कि एक्टिंग के रास्ते पर चलते हुए वह परिवार से मदद नहीं लेंगे। इस दौरान उन्होंने इतने बुरे दिन देखे कि उनके अंदर का एक्टर बेहद मजबूत होता चला गया।

तो, चौकीदारी से पेट भरने के दौरान उन्होंने 1996 में दिल्ली के ‘नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा’ से ग्रेजुएशन कर लिया। अब वे एक बाकायदा ट्रेंड एक्टर थे। लेकिन एक्टिंग की डिग्री काफी नहीं होती। असली संघर्ष तो अभी शुरु होना था। नवाजुद्दीन मुंबई पहुंच गए, और उन्हें लगातार एक ही जवाब मिलता, एक्टर हो, लेकिन लगते नहीं।

एक इंटरव्यू में एक बार नवाजुद्दीन ने कहा था उनके संघर्ष के दौरान उनकी अम्मी कहा करतीं थीं कि 12 साल में तो घूरे के दिन बहुर जाते हैं, तू तो इंसान है। और वही हुआ।

1999 में ‘शूल’ फिल्म में वेटर और ‘सरफरोश’ में मुखबिर का रोल करने वाले नवाजुद्दीन सिद्दीकी ऐसे सितारे बन चुके हैं जिनकी कान फिल्म फेस्टिवल में एक साथ तीन-तीन फिल्में अपना जलवा बिखेरने जाती हैं तो उन्हें एक नहीं चार फिल्मों के लिए एक साथ राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया जाता है। नवाजुद्दीन को 2012 की तलाश, गैंग्स ऑफ वासेपुर-1, 2 और कहानी के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार से नवाजा गया है।

घर परिवार संपन्न होने के बावजूद वापस न जाने के पीछे जो वजह नवाजुद्दीन बताते हैं कि उन्हें लगता कि अगर वापस गए तो सब मजाक उड़ाएंगे, कि ‘बड़ा बन रहा था, हीरो बनने गया था, वापस आ गया.’ तो वापस गांव जाने का विचार मैंने छोड़ ही दिया था। मुझे कोई और काम आता भी नहीं था। तो मैंने सोच लिया था कि अब मरना जीना मुंबई में ही होगा।

इसी बीच फ़िल्मकार अनुराग कश्यप ने उनका एक नाटक दिल्ली में देखा और उन्हें अपनी फ़िल्म ब्लैक फ़्राईडे में काम दिया, जिसमें उन्हें अपनी अभिनय क्षमता दिखाने का मौका मिला। उसके बाद फ़िराक, न्यूयॉर्क और देव डी जैसी फ़िल्मों में काम मिलाय़ वह कहते हैं, समस्या ये हुई कि न्यूयॉर्क फ़िल्म के बाद कई फ़िल्मों के रोल के लिए बुलाया गया, लेकिन सभी या तो गुंडे या आतंकवादी के रोल थेय़ तो मुझे कई रोल से इनकार करना पड़ा। फिर उन्हें पीपली लाईव में भी थोड़ा बेहतर रोल मिला और सुजोय घोष की ‘कहानी’ में उनका काम सराहा गया।

एक वक्त वह भी आया जब मुंबई में नवाज ने एनएसडी में सीनियर रहे एक कलाकार से मदद मांगी। उन्होंने इस कलाकार का नाम तो नहीं बताया, लेकिन बताया कि इस कलाकार ने मदद का भरोसा तो दिया, लेकिन कहा कि उसके घर में रहने के एवज नवाजुद्दीन को उनके लिए खाना बनाना पड़ेगा। और नवाज राजी हो गए। नवाज ने एक दो टीवी सीरियल में भी रोल किया, लेकिन उन्हें वहां की दुनिया रास नहीं आई।

ब्लैक फ्राइडे में यूं तो नवाज का रोल बहुत छोटा था, लेकिन डायरेक्टर अनुराग कश्यप की नज़र में नवाज़ चढ़ गए। इसके बाद अनुराग ने नवाजुद्दीन के साथ बनाई गैंग्स ऑफ वासेपुर। इस फ़िल्म ने नवाज़ की जिंदगी ही बदल दी।

इसके बाद तिग्मांशु धुलिया की ‘पान सिंह तोमर’ ने नवाज़ को एक अलग पहचान दी। पीपली लाइव और कहानी में उन्होंने एक्टिंग के नए आयाम पैदा किए।

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