आकार पटेल का लेख: भारत में फुटबॉल की संस्कृति के अभाव की वजह से विश्व कप जैसी स्पर्धाओं में नहीं हैं हम

हममें से कई लोग चाहते हैं कि भारत जल्द ही इतना अच्छा खेलने लगे कि वह फुटबॉल विश्व कप और ओलंपिक जैसी वैश्विक स्पर्धाओं में हिस्सा ले सके। सवाल यह है कि हम क्यों नहीं वह करते हैं या कर सकते हैं जो आइसलैंड और कैमरून जैसे राष्ट्र करने में सक्षम हुए हैं।

फोटो: सोशल मीडिया
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आकार पटेल

शनिवार को रूस में विश्व कप का मैच अर्जेन्टीना और आइसलैंड के बीच हुआ। यह विश्व में पांचवे नंबर की टीम से 22वें नंबर की टीम का मुकाबला था और मैच ड्रॉ हो गया।

दिलचस्प बात यह है कि 3 लाख की जनसंख्या वाला आइसलैंड लगभग दो साल पहले विश्व रैंकिंग में भारत से भी नीचे 133वें नंबर पर था। विश्व कप में खेलने के लिए इसने इंग्लैंड को हराया।

भारत की रैंकिंग विश्व में 97वें नंबर पर है और हम विश्व कप में नहीं खेल रहे हैं। अपने क्वालीफाइंग राउंड में हम ईरान, गुआम, तुर्कमेनिस्तान और ओमान के खिलाफ वाले समूह में थे। हम उस समूह में आखिरी पायदान पर रहे। हममें से कई लोग चाहते हैं कि भारत जल्द ही इतना अच्छा खेलने लगे कि वह फुटबॉल विश्व कप और ओलंपिक जैसी वैश्विक स्पर्धाओं में हिस्सा ले सके। सवाल यह है कि हम क्यों नहीं वह करते हैं या कर सकते हैं जो आइसलैंड और कैमरून जैसे राष्ट्र करने में सक्षम हुए हैं। भारतीय फुटबॉल टीम के पूर्व कप्तान वाइचुंग भूटिया ने इसी विषय पर अपने स्तंभ में लिखा, “पहले कदम के तौर पर हमें फुटबॉल की संस्कृति को विकसित करना होगा। एक ऐसे देश में ऐसा कर पाना बहुत बड़ी चुनौती है जहां क्रिकेट एक धर्म है और दूसरे खेल भी गहरा प्रभाव डाल रहे हैं, लेकिन यह फुटबॉल की संस्कृति ही है जो कम संसाधन वाले दक्षिण अमेरिकी और अफ्रीकी देशों में फुटबॉल को जिंदा रखता है।”

तो हमारे यहां यह संस्कृति क्यों गायब है? सबसे पहले भारत में फुटबॉल को लेकर कुछ चीजों पर नजर डालते हैं। पहला तुलनात्मकर रूप से हाल का अनुभव है यानी आखिरी 10 वर्षों का, लोगों में फुटबॉल के यूरोपीय लीग टूर्नामेंट देखने की दिलचस्पी बहुत बढ़ी है। ऐसा करने वाले ज्यादातर अमीर, युवा शहरी भारतीय हैं। दिलचस्पी इस पैमाने पर है कि भारत के बड़े खेल चैनल भी इंग्लिश प्रीमियर लीग का लाइव मैच दिखाते हैं। वास्तव में कई मैच ऐसे होते हैं जिन्हें इंग्लैड में टीवी पर लाइव नहीं दिखाया जाता, लेकिन हमारे देश में दिखाया जाता है। इसलिए हमारा खराब प्रदर्शन दिलचस्पी कम होने की वजह से नहीं है।

दूसरी बात यह है कि भारत के पास खेलों के लिए अच्छी संरचना नहीं है और न ही फुटबॉल को समर्पित खेल के मैदान हैं। लेकिन जैसा कि भुटिया ने बताया वह भी सही है, हमसे अच्छा खेलने वाले अफ्रीकी और लातिन अमेरिकी देश जो निरंतर विश्व कप में खेलते हैं, वे ऐसे खिलाड़ी भी पैदा करते हैं जो वैश्विक हीरो हैं। क्रिकेट के बारे में भी यह सच है। सड़कों पर या गली में खेला जाना वाला क्रिकेट भारत में सामान्य है, स्टेडियम वाला नहीं। फुटबॉल के लिए क्रिकेट से कम संरचना की जरूरत है। क्रिकेट में कई तरह की चीजों की जरूरत होती है, इसलिए संरचना के अभाव को फुटबॉल की संस्कृति के अभाव के लिए पूरी तरह जिम्मेदार ठहराना थोड़ा मुश्किल होगा।

तीसरी बात यह है कि भारत में फुटबॉल कहां खेला जाता है। यह पूर्वोत्तर, गोवा, केरल और पश्चिम बंगाल में लोकप्रिय है। शायद एक या दो अन्य जगहों में भी। यह हिन्दी क्षेत्र में लोकप्रिय नहीं है।

चौथी चीज यह है कि यह अंतर भारतीय टीम में भी दिखता है। ज्यादातर खिलाड़ी उन्हीं इलाकों से आते हैं जिनका ऊपर जिक्र किया गया है। फर्नांडिस और बोर्गेस, गुरूंग और खोंगजी तो हैं लेकिन शर्मा और कोहली नहीं। पांचवी बात यह कि किसी कारणवश भारत के जो इलाके और संस्कृतियां हॉकी में अच्छा करती हैं, वही फुटबॉल में भी अच्छा करती हैं। हॉकी की तरह ही और क्रिकेट से अलग फुटबॉल एक ऐसा खेल है जिसमें टीम महत्वपूर्ण है।

मेरा इस बात से क्या मतलब है? निश्चित रूप से क्रिकेट के मुकाबले भी टीम के बीच होते हैं लेकिन उनमें एक अंतर है। क्रिकेट में हर गेंद बल्लेबाज और गेंदबाज के बीच एक व्यक्तिगत और स्वतंत्र घटना है और शायद एक या दो अन्य खिलाड़ी भी उसमें शामिल हैं जैसे क्षेत्ररक्षक और दूसरा बल्लेबाज।

हॉकी और फुटबॉल और वालीबॉल इस मामले में अलग हैं। दोनों तरफ की पूरी टीम इस तरह से हमेशा लगी होती है जैसा क्रिकेट में कभी नहीं होता है। ऐसे खेलों में व्यक्तिगत प्रतिभा क्रिकेट के मुकाबले कम महत्वपूर्ण होती है। यहां तक कि हॉकी में भी, जिसमें भारत की रैंकिंग काफी अच्छी है, हमारा आधिपत्य कम हो गया है।

यह खेल जिस जमाने में कुछ चुनिंदा खिलाड़ियों की प्रतिभा पर निर्भर करता था, हम सबसे आगे थे। जब हॉकी टीम पर निर्भर खेल बना तो हमारा आधिपत्य धुंधला पड़ गया।

और इसलिए हमें यह मानना चाहिए कि यह दिलचस्पी या संरचना की कमी नहीं है जिसकी वजह से फुटबॉल में हमारा प्रदर्शन कमजोर है। कुछ और बात है जो हमें टीम पर निर्भर खेलों में पीछे रखती है, जबकि निशानेबाजी, भारोत्तोलन, कुश्ती, टेनिस, बैडमिंटन और बॉक्सिंग जैसी व्यक्तिगत प्रतिस्पर्धाओं में हम आगे बढ़ते जा रहे हैं (पाठक इस बात को नोट करेंगे कि हमारी ज्यादातर अंतर्राष्ट्रीय सफलता इन्हीं खेलों से आ रही है)।

जब तक हम पूरी तरह इसका विश्लेषण नहीं करते कि ऐसा क्यों है, हम भूटिया द्वारा पूछे गए सवाल का जवाब देने की स्थिति में नहीं आएंगे: हमारे देश में फुटबॉल की संस्कृति गायब क्यों है और इसे विकसित करने के लिए क्या किया जा सकता है?

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