अगर भारत के हाथ से कश्मीर निकलता है तो मोदी होंगे इसके जिम्मेदार 

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने इतिहास से सबक सीखने, विवेकपूर्ण सुझावों पर ध्यान देने, खतरे के संकेतों को समझने और कश्मीर पर संवाद की पहल करने में अविश्वसनीय असमर्थता दिखाई है।

कश्मीर घाटी में पत्थरबाज / फोटो ; Getty Images
कश्मीर घाटी में पत्थरबाज / फोटो ; Getty Images
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प्रेमशंकर झा

उन्होंने भारतीय सेना द्वारा इस समस्या के राजनीतिक हल के लगातार आह्वान पर भी ध्यान नहीं दिया है। 22 अगस्त 2016 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, उमर अब्दुल्ला के नेतृत्व में कश्मीर के विपक्षी दलों के एक प्रतिनिधिमंडल से मिले थे और बहुत स्पष्ट शब्दों में कहा था कि (उस वक्त तक) एक हफ्ते से चल रही अशांति को ख़त्म करने के लिए संवाद बहुत ज़रूरी है और “इस समस्या का एक ठोस और स्थायी हल ढूँढने के लिए हमें संविधान के ढाँचे के भीतर ही काम करना होगा।”

एक साल बीत चुका है लेकिन उन्होंने तनाव ख़त्म करने के लिए ज़रूरी पहला कदम ही नहीं उठाया है –- और वो कदम था, एकपक्षीय युद्धविराम की घोषणा, जैसा कि दिसंबर 2000 में प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने किया था। सो, सर्दी के मौसम के दौरान सुरक्षा बल उन “आतंकवादियों” को मारते रहे, जो सर्दी से बचने के लिए पहाड़ों में अपने छिपने की जगहों से निकलकर पास के गाँवों में चले आये थे। नतीजतन, कश्मीर एक बार फिर उबाल पर है।

28 मार्च को यह आक्रोश तब भड़का जब आम लोग एक घर में छिपे आतंकवादी को बचाने के लिए खुद पुलिस के सामने आ गए। इस मुठभेड़ में तीन नौजवान मारे गए और 18 घायल हुए। अगले हफ्ते भारतीय सुरक्षा बलों पर 1 अप्रैल, 3 अप्रैल और 4 अप्रैल को तीन बार हमले हुए। इन हमलों में आतंकियों ने बंदूकों का इस्तेमाल किया।

लेकिन मोदी ने खतरे के इन संकेतों को बड़े ही आत्ममुग्ध तरीके से अनदेखा कर दिया। मुख्यमंत्री महबूबा मुफ़्ती की कड़ी और लिखित आपत्तियों के बावजूद उन्होंने श्रीनगर और अनंतनाग संसदीय क्षेत्रों में चुनाव करवाए जाने पर जोर दिया। राजनीतिक तौर पर यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण रहा है क्योंकि इससे अलगाववादियों को दुनिया के सामने यह साबित करने का एक आदर्श मौका मिल गया कि किस तरह कश्मीरियों के दिलोदिमाग में भारत ने अपनी जगह खो दी है।

नतीजा ये रहा कि मतदान देने वालों की तादाद, जो कि 2014 के विधान सभा चुनाव में 27 फीसदी थी , वह घट कर सिर्फ 7 फीसदी रह गयी। पत्थर फेंकने वालों ने उन सरकारी स्कूलों में आग लगा दी, जिन्हें मतदान केंद्रों के तौर पर इस्तेमाल किया जा रहा था। स्कूल और कॉलेज के छात्रों ने जम कर विरोध प्रदर्शन किया और उन्हें निर्दयतापूर्वक पीटा भी गया। पहली बार, लड़कियों ने भी पत्थर फेंकने में शिरकत की और शायद पहली बार हथियार उठाने का आह्वान आजादी के लिए नहीं बल्कि इस्लाम को बचाने के नाम पर किया गया।

मतदान ख़त्म होते होते पुलिस और सुरक्षा बलों की गोली से आठ और नौजवान मारे गए और राष्ट्रीय रायफल्स के एक मेजर ने एक कश्मीरी युवक को अपनी जीप के बोनट से बाँध कर उसे उग्र भीड़ से भरी गलियों में बचाव के लिए एक इंसानी शील्ड की तरह इस्तेमाल किया। विडम्बना यह है कि इससे अनेक और कश्मीरियों की जान बचायी जा सकती थी। लेकिन जीप के बोनट पर बंधे युवक का वीडियो वायरल हो गया और इसने दुनिया के सामने भारत में नैतिकता के निचले स्तर को खोल कर रख दिया है।

मोदी को यह समझना ही होगा कि उन्होंने कितनी बड़ी गलती की है। अनंतनाग में मतदान का रद्द होना इस बात को दर्शाता है कि उन्हें इस बात का एहसास हो गया है। लेकिन उनके मानसिक स्वरुप में बैक गीयर नहीं है . इसलिए, जब महबूबा मुफ़्ती आनन फानन दिल्ली पहुंचीं और कश्मीर के हालात के बारे में चेताने के लिए मोदी और राजनाथ सिंह से मिलीं, तो दोनों ने उन्हें झिड़क दिया और इस बात पर अड़े रहे कि कश्मीरियों को पहले पत्थर फेंकना बंद करना होगा।

मोदी की कश्मीर नीति

इस गलती को सुधारने के लिए जब भारत के मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली सुप्रीम कोर्ट की एक बेंच ने अलगाववादियों और सरकार दोनों को हिदायत दी कि वे हिंसा छोड़ दें, साथ ही बातचीत दोबारा शुरु करने के लिए एक मंच तैयार करने की पेशकश की तो अटॉर्नी जनरल रोहतगी ने एक रूखे बयान के साथ इससे इंकार कर दिया कि सरकार किसी भी हाल में ‘अलगाववादियों’ से बात नहीं करेगी।

अगर वे किसी से बात नहीं करेंगे तो वे घाटी में शांति किस तरह से बहाल करना चाहते हैं? सभी को इस प्रक्रिया से बाहर रख कर किसी हल पर बल प्रयोग से ही पहुँचा जा सकता है। हालाँकि इस पर विश्वास नहीं होता, लेकिन ऐसा लगता है कि वे ये नहीं समझ पा रहे कि पिछले सौ सालों से भी अधिक समय से दुनिया की कोई भी सरकार कहीं भी केवल बल प्रयोग से अशांति और हिंसा को ख़त्म नहीं कर पायी है।

2004 में अमेरिका के बुश प्रशासन को भी 9/11 कमीशन ने यही चेतावनी दी थी। यही चेतावनी कश्मीर भी भारतीय प्रशासन को राज्य में हुए पहले सशस्त्र विद्रोह की आहट के बाद से दे रहा है। क्योंकि 1986 में मक़बूल भट की फांसी के बाद से पाकिस्तान में आई एस आई के मुजाहिदीन प्रशिक्षण शिविरों में कश्मीरी बलवाइयों का धीरे धीरे जाना शुरू हुआ था और 2013 में अफज़ल गुरु की फांसी के बाद आज तक चली आ रही हिंसा की शुरुआत हुई थी।

अगर मोदी एक सिपाही होते या उन्होंने एक ऐसे राज्य के शासन का अनुभव होता जो हिंसा से ग्रसित हो तो वे समझ जाते कि एक विचारधारा का अंत उसके अनुयायियों को मारने से नहीं होता। यह खासकर राष्ट्रीयता के बारे में सच साबित होता है, जो दुनिया में धर्म के बाद सबसे स्थायी आस्था है। इंग्लैंड से सैकड़ों वर्षो तक साथ रहने के बाद भी वेल्स और स्कॉटलैंड में राष्ट्रीयता की यह भावना ख़त्म नहीं हुयी। बेल्जियम में फ्लेमिश राष्ट्रीयता फिर से उभर कर सामने आ गयी है और स्पेन में बास्क विद्रोह अब भी जारी है। सोवियत संघ के विलय के बाद से पूरे पूर्वी यूरोप और एशिया में अनेक जातीय और राष्ट्रीय आंदोलनों ने फिर सर उठा लिया है।

लगता है, मोदी यह भी नहीं समझ रहे कि एक देश के सुरक्षा बल एक हिंसक विद्रोह को कुचलने के लिए जो कुछ भी कर सकते हैं, उसकी एक सीमा है। इसके अनेक उदहारण भारत में ही मौजूद हैं। भारतीय सेना सोलह साल तक नागा और चौबीस साल तक मिज़ो विद्रोहियों से जूझती रही, लेकिन कहीं भी कोई महत्वपूर्ण बदलाव नहीं ला पायी। जब इंदिरा गाँधी कश्मीर की तर्ज़ पर भारतीय संघ के भीतर ही नागा स्वायत्तता के लिए राज़ी हो गयीं, और राजीव गाँधी ने मिज़ो नेता लाल्देंगा से इस बात पर समझौता किया कि मिज़ो नेशनल फ्रंट चुनाव लड़ सकता है और राज्य की सत्ता में आ सकता है, तभी इन राज्यों में अशांति को ख़त्म किया जा सका।

सैन्य ताकत की सीमाओं का सशक्त उदहारण पंजाब है। 1982 में जब से खालिस्तान को लेकर हिंसा शुरू हुयी, 1993 तक जब यह हिंसा ख़त्म हुयी, पंजाब में 500 से अधिक हथियारबंद आतंकवादी नहीं थे, जिन्हें लगभग 2000 मददगारों और करीब 5000 सक्रिय लोगों समर्थन हासिल था। फिर भी ये मुट्ठी भर लोग जजों, राजनेताओं और स्थानीय अधिकारियों को धमका कर, उनकी हत्या करके, पूरे प्रशासन और न्यायपालिका को पंगु बनाने में और लगातार दस साल तक अशांति और हिंसा का माहौल बनाये रखने में कामयाब हुए। इसमें लगभग इकतालीस हज़ार आमलोग मारे गए। 1984 के दौर के बाद वे पाकिस्तान सीमा से लगे पूरे के पूरे गाँवों को आतंकित करके और उन्हें (अनचाहे ही) आतंकवादियों की पनाहगाह बना कर ही ऐसा कर पाए।

इस अशांति को तभी ख़त्म किया जा सका, जब तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गाँधी ने अकाली दल के नेता संत लोंगोवाल से समझौता किया। समझौते के तहत राज्य में चुनाव हुए और अकाली सत्ता में आये। अकाली दल ने उस आजादी के आंदोलन के मुखौटे को उखाड़ फेंका जिसके ज़रिये पाकिस्तान आधारित दूसरी पंथिक समिति उनके आतंकवाद के जवाब में की गयी नागरिक प्रतिक्रिया को कमज़ोर बना रही थी। अकालियों के सत्ता में आने के कुछ दिनों बाद ही सेवानिवृत्त सेनानियों ने बन्दूक के लाइसेंस की मांग की और प्रशासन ने उन्हें ये लाइसेंस दे भी दिए। फिर इन आतंकवादियों को बाहर गन्ने के खेतों में खदेड़ दिया गया, जहाँ पुलिस ने उन्हें बड़ी तादाद में ख़त्म कर दिया।

ठीक इसी तरह कश्मीर में किसी भी समय दो हज़ार से ज्यादा हथियारबंद आतंकवादी नहीं रहे। लेकिन उनकी वजह से तीन लाख से ज्यादा पुलिस और और अर्धसैनिक बल वहां तैनात रहे। इतनी बड़ी संख्या में सुरक्षा बल भी हिंसा को केवल काबू कर पाए, ख़त्म नहीं। इस हिंसा को कम करने में 1995 में तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव के उस आदेश ने महत्वपूर्ण भूमिका अदा की, जिसके तहत चुनाव आयोग को राज्य में एक और चुनाव के लिए निर्वाचन क्षेत्रों को निर्धारित करने के लिए कहा गया था। इससे अभी तक निष्क्रिय राजनीतिक बल हरकत में आ गए और जे के एल एफ के साथ ही हुर्रियत भई बचाव की मुद्रा में आ गए। इससे हुर्रियत पर पाकिस्तानी नियंत्रण के खिलाफ विद्रोह की भी शुरुआत हुयी, जिससे अंततः दस साल बाद अलगाववादी आंदोलन में दरार आ गयी।

ये सफलताएं उस सर्वसम्मति से उपजीं, जो मोदी के उत्थान से पहले दिल्ली के सभी राजनीतिक दलों में कश्मीर को लेकर थी, कि सुरक्षा बल सिर्फ हिंसा पर काबू पा सकते हैं, उसे ख़त्म नहीं कर सकते। उसके लिए एक राजनीतिक संवाद की ज़रुरत है।

केवल कश्मीर में ही इससे आतंकवाद का अंत नहीं हो पाया। ऐसा इसलिए नहीं कि कश्मीरी दंगाई भारत से अलग होकर पाकिस्तान में शामिल होना चाहते थे, बल्कि इसलिए कि एक तरफ पाकिस्तान ने चुनावों में हिस्सा लेने की वकालत करने वाले किसी भी कश्मीरी नेता की हत्या से हुर्रियत को आतंकित करके राज्य में चुनावों का बहिष्कार करने पर मजबूर किया, और दूसरी तरफ नेशनल कांफ्रेंस ने बार-बार म को मतदाताओं को सशक्त करने का वायदा तो किया लेकिन उसे पूरा नहीं किया।

जो कश्मीरी नेता पाकिस्तान की आई एस आई के हाथों मारे गए उनमें मीरवाइज़ उमर के पिता मीर वाइज़ मौलवी फारूक, मुस्लिम यूनाइटेड फ्रंट के संस्थापकों में से एक क़ाज़ी निसार, जे के एल एफ के प्रमुख नेता अब्दुल अहद वानी, पीपुल्स कांफ्रेंस के नेता प्रोफ़ेसर अब्दुल गनी भट के भाई और मीर वाइज़ उमर फारूक के चाचा प्रोफ़ेसर अब्दुल गनी लोन प्रमुख नाम हैं।

ये वे कश्मीरी राष्ट्रवादी हैं जिन्होंने कश्मीर विवाद का ऐसा हल ढूंढने की कोशिश में अपनी जान की बाज़ी लगा दी जिसके तहत कश्मीरी राष्ट्रवादियों को भारतीय राजनीतिक परिदृश्य में एक उचित स्थान मिल सके। लेकिन ठीक यही वो लोग हैं, जिन्हें मोदी ने 2014 में सार्वजानिक तौर पर नकार दिया और आज वे उन्हें तिलांजलि दे रहे हैं। वाकई, वे ये समझ भी नहीं पा रहे कि जैसा वे कर रहे हैं वह पाकिस्तान की सेना के मंसूबों के अनुरूप है, जो पाकिस्तान में लोकतंत्र को हटा खुद पाँव जमाने की फिराक में है।

आज भारत फिर एक बार कश्मीर संकट की कगार पर खड़ा है। हिजबुल मुजाहिदीन के कमांडर जाकिर भट ने पुलिस वालों और मुखबिरों को चेतावनी दे दी है कि अगर वे सत्तारूढ़ अधिकारियों का साथ देते रहे तो वे मारे जायेंगे. इससे भी मनहूस बात यह है कि उसने कश्मीरी युवाओं से अपील की है कि वे कश्मीरी राष्ट्रवाद या लोकतंत्र के लिए नहीं बल्कि इस्लाम के लिए लड़ें।

पहली मई को जे एंड के बैंक के वाहन पर हमले से फिर से शुरू हुयी उस सशस्त्र हिंसा में तेज़ी आई है, जिसमें आतंकियों ने सात पुलिस कर्मियों और सुरक्षा गार्डों को मारा, चार राइफल्स और बहुत सारा नकदी छीन ली। एक बार अगर कश्मीर घाटी में हिंसा ने फिर पैर पसार लिए तो कोई भी कश्मीरी नेता दिल्ली से बात करने का साहस जान जोखिम में डाल कर ही करेगा। और इस तरह किसी भी राजनीतिक हल की सम्भावना ही ख़त्म हो जाएगी।

लेकिन अभी यह गुंजाईश बाकी है। पिछली सर्दियों में कश्मीर के सिविल सोसायटी दलों के सदस्य दिल्ली आते रहे, या अन्य दलों के सदस्यों की श्रीनगर में मेजबानी करते रहे, ताकि उस हठधर्मिता और अज्ञान की जंजीर को तोड़ां जा सके जिसमे मोदी सरकार ने खुद को जकड़ रखा है। पत्थर फेंकने वालों को जाकिर भट की झिड़की इस बात की मौन स्वीकृति ही है कि राष्ट्रीयता और लोकतंत्र आज भी कश्मीर और घाटी के नौजवानों का का अहम अरमान है।

हर राजनीतिक दल में ऐसे अनुभवी राजनेता हैं जो इस बात को समझते हैं। उन्हें यह एहसास है कि एक राजनीतिक शून्य में संवाद शुरू नहीं किया जा सकता, और वे यह चाहेंगे कि दिल्ली संवाद शुरू करने के लिए कुछ ठोस सुझाव सामने रखे। ज़्यादातर नेता अब इस बात को मानने लगे हैं कि दिल्ली और कश्मीर दोनों को एक नयी पहल करने के मकसद से 1947 का इंस्ट्रूमेंट ऑफ़ एक्सेशन नहीं तो 1952 के दिल्ली समझौते को एक शुरुआती बिंदु मानना ज़रूरी है।

कश्मीर पर विपक्ष को एकजुट होना होगा

राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और मोदी के आसपास घूमते बीजेपी के नेताओं की मंडली इसका अपवाद हैं। चूंकि वे अपने राजनीतिक आधार को मज़बूत करने के लिए लगातार साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण का इस्तेमाल करते रहते हैं, इसलिए इस बात की संभावना कम ही है कि वे अपनी मर्ज़ी से अपने मौजूदा रुख को बदलें। इसलिए, यह ज़रूरी है कि विपक्षी दल कश्मीर पर एकजुट हों, राजनीतिक संवाद को फिर से शुरू करने के लिए एक सर्वमान्य मंच बनायें और उस पर कार्यवाही के लिए उसे प्रधानमंत्री के सामने पेश करें।

मोदी का व्यक्तित्व ऐसा है कि इसकी संभावना कम ही है कि वे उन सभी राजनीतिक दलों की एक संयुक्त अपील पर गौर करें जो ज्यादातर भारत और जम्मू कश्मीर का प्रतिनिधित्व करती हैं। लेकिन, जैसे-जैसे घाटी में दमन की उनकी नीति नाकाम होगी, सशस्त्र आतंकवाद बढ़ेगा, कश्मीरी पुलिस और प्रशासनिक अधिकारी काम पर आना बंद करेंगे, सरकारी मुखबिर मारे जायेंगे और घाटी से जानकारी और ख़ुफ़िया सूचनाएँ मिलनी कम हो जाएंगी। मोदी को दो विकल्पों में से एक को चुनना होगा- उस सेना को कश्मीर में तैनात करना जो बार-बार यह कह चुकी है कि उसे अपने ही लोगों पर गोली चलाने के लिए ना कहा जाये, या फिर किसी और उपाय की तलाश करना।

तब यह खतरा होगा कि वे इस स्थिति का सारा दोष पाकिस्तान पर मढ़ सकते हैं। अगर ऐसा होता है तो फिर विपक्षी दलों को देश को उस विभीषिका के बारे में आगाह करना होगा जो युद्ध का अपरिहार्य परिणाम है, और एक ऐसा वैकल्पिक माध्यम तैयार करना होगा जिसके ज़रिये कश्मीर के नेताओं से राजनीतिक वार्ता शुरू की जा सके।

(लेखक हिंदुस्तान टाइम्स के पूर्व संपादक हैं और ट्वाईलाईट ऑफ़ द नेशन स्टेट: ग्लोबलाइज़ेशन, केओस एंड वॉर तथा क्राउचिंग ड्रैगन हिडन टाइगर, कैन चाइना एंड इंडिया डोमिनेट द वेस्ट? के लेखक हैं। यह लेख पहली बार नेशनल हेराल्ड के कमेमोरेटिव एडिशन में प्रकाशित हुआ था।)

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Published: 12 Aug 2017, 7:24 PM