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वित्त मंत्रालय संसद से भी छिपाता है अपने राज, ऊर्जा क्षेत्र के एनपीए का ब्योरा देने से इनकार

वित्त मंत्रालय ने उन ऊर्जा परियोजनाओं का ब्योरा देने से इनकार कर दिया है जिन्होंने अपने कर्ज नहीं चुकाए हैं

फोटो: सोशल मीडिया 
फोटो: सोशल मीडिया  

वित्त मंत्रालय अपने राज छिपा कर रखता है। वह सांसदों के साथ भी ब्योरा साझा नहीं करना। वित्त सेवा के अधिकारियों ने ऊर्जा क्षेत्र की संसदीय स्थायी समिति को 34 ऊर्जा परियोजनाओं के बारे में जानकारी देने से इंकार कर दिया, जिन्होंने बैंकों का कर्ज नहीं चुकाया है।

के हरिबाबू की अध्यक्षता में बनी स्थायी समिति का एक काम यह भी है कि वह ऊर्जा क्षेत्र में मौजूद काम नहीं कर रही संपतियों यानी एनपीए का ध्यान रखे। ओम बिड़ला, राम जेठ मलानी, दीपेंद्र सिंह हुड्डा, अनिल कुमार साहनी आदि सांसदों को मिलाकर बनी 30 सदस्यीय स्थायी समिति ने वित्त सेवा के अतिरिक्त सचिव गिरीश चंद्र मुर्मू को एनपीए और ऊन्हें वित्तीय सहायता देने वाले बैंकों के सवाल पर कड़े सवाल पूछे।

फिर भी, मुर्मू ने किसी भी तरह की जानकारी देने से मना कर दिया। सूत्रों के अनुसार, ऊन्होंने कहा कि विभाग ऊन ऊर्जा परियोजनाओं की सूची नहीं बनाता जो एनपीए के तहत आते हैं। समिति के सदस्यों का मानना था कि वित्त सेवा विभाग को वित्तीय संस्थानों, आरबीआई और बैंकों से जानकारी प्राप्त करने का अधिकार था।

इस मुद्दे पर सरसरी तौर पर बोलते हुए मुर्मू ने अस्पष्ट वजहें गिनाईं जैसे कि पर्यावरण मंजूरी मिलने में देरी और कोयले के मद्दे के कारण एनपीए बने हैं।

सूत्रों ने बताया, “वित्त मंत्रालय तथ्यों का बताना नहीं चाहता है, लेकिन वह इस तरह के विवरण को संसदीय स्थायी समिति से नहीं छिपा सकता, जो संसद को एक छोटा रूप है। वह कुछ कपंनियों को बचाना चाहता है। इस तरह की लापरवही का यही एक कारण हो सकता है।”

आईसीआईसीआई, एक्सिस बैंक, केनरा बैंक, बैंक ऑफ बड़ौदा, सेंट्रल बैंक ऑफ इंडिया, बैंक ऑफ इंडिया, स्टेट बैंक ऑफ इंडिया, पंजाब नेशनल बैंक और आईडीबीआई ऊन बैंकों में शामिल है, जिन्होंने ऊर्जा परियोजनाओं को वित्तीय सहायता पहुंचाई।

पूर्व ऊर्जा सचिव ईएएस सरमा ने कहा, "वित्त मंत्रालय को सामान्य तौर पर एनपीए और खासतौर से ऊर्जा क्षेत्र के एनपीए के मामले में आम जनता और संसद को विश्वास में लेना चाहिए, क्योंकि कुछ एनपीए धोखाधड़ी और पैसों को इधर-ऊधर करने में शामिल हो सकते हैं।”

स्थिति को विस्तार से समझाते हुए सरमा ने बताया, “तेजी से बिगड़ते एनपीए संकट के लिए स्टील और ऊर्जा क्षेत्र की मुख्य भूमिका है, जिसने बैंकिंग प्रणाली को जकड़ लिया है। पुणे स्थित एनजीओ ‘प्रयास’ के आकलन के मुताबिक, “2011 तक, वन और पर्यावरण मंत्रालय ने योजना आयोग द्वारा अनुमानित 2032 तक के लिए जरूरी थर्मल क्षमता के तीन गुना थर्मल ऊत्पादन क्षमता को या तो मंजूरी दे दी है या देने वाली है और इनमें ज्यादातर परियोजनाएं कोयला आधारित हैं।

एक ऐसे समय में इसने समस्या को और बढ़ा दिया है जब ऊत्पादन को कोयला आधारित ऊत्पादन के पक्ष में मोड़ देने से खाली घंटों के दौरान भी थर्मल ऊत्पादन क्षमता में काफी सुस्ती आ गई है। सरमा ने जोड़ा, "इन निजी ऊर्जा परियोजनाओं में से कई कानूनी समस्याओं की जद में आ गए है क्योंकि एक तो ऊन्होंने स्थान का गलत चुनाव किया और भूमि संबंधी कानूनों का भी ऊल्लंघन किया। इसके अलावा, ऊन्हें काम में भी दिक्कतों का सामना करना पड़ा, क्योंकि ऊन्हें 40 प्रतिशत समय निष्क्रिय रहना था। कुछ राज्यों ने निजी कंपनियों के साथ मिलकर ऐसे ऊर्जा खरीद समझौते (पीपीए) को मान लिया, जिनके कारण निष्क्रियता से कंपनी को हुए नुकसान को ऊन निजी कंपनियों ने राज्य वितरण एजेंसियों का सौंप दिया। लेकिन निष्क्रियता की समस्या इतनी गंभीर है कि निजी ऊत्पादन कंपनियों को राज्य इसकी जिम्मेदारी से मुक्त होने की इजाजत नहीं दे सकता।” ईस्ट कोस्ट एनर्जी प्राइवेट लिमिटेड नाम की एक निजी कंपनी ने आंध्र प्रदेश के भवनापाडू में तरल भूमि को हथियाने के बाद अपनी परियोजनाओं को बंद कर दिया।

इसके अलावा, कई परियोजनाओं के संरक्षकों (अडानी पॉवर और टाटा पॉवर) ने, जिनके पास विदेशों में कोयला खदान हैं, प्रतिस्पर्धात्मक बोली में निश्चित कीमत का प्रस्ताव दिया, लेकिन बाद में जब इंडोनेशिया की सरकार ने अपनी नीति को कड़ा कर लिया तो ऊन्होंने अपने पुराने प्रस्ताव से पीछे जाते हुए और टेंडर के नियमों का ऊल्लंघन करते हुए मांग रखी कि ऊन्हें महंगी कीमत में छूट दी जाए। इसके बाद लंबी मुकदमेबाजी चली और सर्वोच्च न्यायालय ने ऊनकी मांग को अस्वीकार कर दिया। इस बात को प्रभावित संरक्षकों द्वारा ऊनकी परियोजनाओं के असफल होने के कारण के रूप में सामने रखा जा रहा है, हालांकि अब यह बात सार्वजनिक हो चुकी है कि ऊन संरक्षकों में से कई ने धोखाधड़ी कर ऊस कोयले का दाम बढ़ाकर बताया जिसे ऊन्होंने आयात किया था।

थर्मल पॉवर ऊत्पादन क्षमता का एक छोटा हिस्सा प्राकृतिक गैस पर आधार बनाकर लगाया गया था, जो ज्यादातर कृष्णा-गोदावरी बेसिन से आता था। निजी कंपनियों द्वारा बनाए गए दबाव के परिणामस्वरूप, तत्कालीन यूपीए सरकार ने प्राकृतिक गैस के लिए बेहद ऊंची कीमत तय कर दी। इसकी वजह से राज्य की विद्युत वितरण कंपनियों के लिए बिजली की कीमत बढ़ गई, जिससे ऊनका संचालन मुश्किल हो गया।

केजी बेसिन का विकास कर रही रिलायंस इंडस्ट्री लिमिटेड अपनी गांरटी के मुताबिक गैस देने में विफल रही, जिससे ज्यादातर दक्षिण भारत के राज्यों में बिजली आपूर्ति में दिक्कतें आईं।

जीएमआर, लैंको और जीवीके जैसे कई निजी कंपनियों ने गैस आधारित बिजली संयंत्रों की स्थापना की थी, लेकिन वे कर्ज चुकाने में विफल रहे और एनपीए बन गए। पूर्व में यूपीए सरकार से सहायता पाने वाली गैस कंपनियों का एनडीए सरकार के साथ भी अच्छा रिश्ता है।

सरमा ने ध्यान दिलाया, "ऊर्जा क्षेत्र के होने वाली एनपीए समस्या निजी कंपनियों को 2003 से मिल रहे अंधाधुंध मंजूरी का नतीजा है और तमाम सरकारें ऊनकी धोखाधड़ी में हिस्सा बनती रहीं। इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि वर्तमान सरकार इस स्थिति के लिए जिम्मेदार निजी कंपनियों के साथ दृढ़ता से निपटेगी, क्योंकि इनमें से कुछ कंपनियों को 2014 के बाद के हुए कोयला ब्लॉक नीलामी में कोयला ब्लॉक आवंटित किए हैं। एनडीए सरकार का दावा है कि यह नीलामी "अत्यधिक सफल" रही।” इसे देखते हुए यही कहा जाएगा कि वर्तमान की एनडीए सरकार ने स्पष्ट रूप से एनपीए की समस्या को सुलझाने की बजाय इसे और बढ़ा दिया है।

इससे पहले ऊच्चतम न्यायालय में सेंटर फॉर पब्लिक इंटरेस्ट लिटीगेशन द्वारा दायर एक जनहित याचिका की प्रतिक्रिया में आरबीआई ने सभी क्षेत्रों के 57 दिवालिया कंपनियों की एक सूची जारी सौंपी, लेकिन सार्वजनिक तौर पर इन नामों की घोषणा करने से इंकार कर दिया। सितंबर के अंत तक ही सरकारी बैंकों का एनपीए बढ़कर 6.3 लाख करोड़ रुपये हो चुका है।

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