आज से ठीक सौ साल पहले,1919 में गांधी जी के असहयोग आंदोलन की हवा लगी तो सुदूर उत्तराखंड में भी अंग्रेज़ सरकार के उत्तराखंड नागरिकों पर जबरन थोपे बेगार और जबरिया चुंगी वसूली के नियमों पर मुखर जन विरोध शुरू हुआ। कोटद्वार से अमृतसर कांग्रेस सम्मेलन से लौटे कुमाऊं जन परिषद नेताओं ने गांव-गांव जा कर अंग्रेज़ सरकार के अन्यायपूर्ण जंगलात तथा कुल्लीगिरी और बेगार कराई के खिलाफ जन जागरण अभियान छेड़ा। 1920 में गढ़वाल परिषद ने कोटद्वार में भी इसकी खिलाफत मंज़ूर की।
Published: undefined
काशीपुर अधिवेशन में इस मुहिम के नेता हरगोविंद पंत ने इस प्रथा को घृणित और अपमानजनक करार देते हुए कहा कि जिस भी पहाड़ी में तनिक मान मर्यादा है, वह सरकार की इस नीति की हामी नहीं भरेगा। 10 जनवरी 1921 को बागेश्वर में उत्तरायणी के मेले में एक बड़ा जन जुलूस निकाला गया जिसमें 10 हज़ार लोग आ जुटे। स्थानीय अखबार शक्ति के संपादक और लोकप्रिय गांधीवादी नेता बद्रीदत्त पांडे ने कहा कि हमारे उत्तराखंडियों के विश्वयुद्ध के बलिदान को नकार कर जो अंग्रेज़ रॉलेट एक्ट ले आये हैं, हमें उनको हटाना ही होगा।
Published: undefined
सरयू नदी के तट पर हाथ खड़े कर जनता ने गांधी जी की जय के नारे लगा कर सरकारी कुली न बनने की कसम खाई। जननेताओं को कमिश्नर डायविल साहिब ने तलब कर दबाव बनाया, पर बाहर आकर उन्होंने जनता से कहा कि अब तो बागेश्वर मंदिर चल कर हम कसम खाते हैं कि बेगारी के सरकारी नागरिक रजिस्टर फाड़ फूड़ कर सरयू में बहा देंगे। अब तक जनांदोलन इतना विस्तृत हो चुका था कि सरकार को चुप रहने की सलाह दी गई, क्योंकि सरकार के पास कुल 21 अफसर, 25 सिपाही और मात्र 500 गोलियां थीं और नेताओं की गिरफ्तारी से अनियंत्रित हिंसा भड़क सकती थी।
Published: undefined
मार्च 1921 तक “झन दिया कुली बेगार” के नारों के बीच यह आंदोलन कुमाऊं और गढ़वाल के सुदूरतम इलाकों तक ऐसा फैल गया कि अब तक निरीह जनता को जब चाहे सामान की ढुलाई या काम काज के लिये बुलावा भेजने वाले सरकारी साहिब लोगों, तहसीलदार, डिप्टी साहेब व कमिश्नर तक को अपनी डांडी या सामान उठाने को बेगार मजूर मिलना बंद हो गया। उनका दौरे या सैर सपाटे पर जाना बंद हुआ सो हुआ, जनता के बीच नए स्वाभिमान और गांधी के सुराज आंदोलन की चेतना सर उठाने लगी। खिसियाई सरकार ने अब रानीखेत, अल्मोड़ा , पिथौरागढ़ और नैनीताल में धारा 144 लगा कर कभी सिविल तो कभी प्रिंट विरोधी नेताओं को विभिन्न दमनकारी कानूनों तले गिरफ्तार करना शुरू कर दिया।
Published: undefined
यह गौरतलब है कि इनमें से अधिकतर दमनकारी कानून आज भी मौजूद हैं और धारा 144 जैसी धाराओं का सरकारी मन मर्ज़ी से जब तब सुरक्षा के नाम पर जनांदोलनों पर लगाना भी बंद नहीं हुआ है। जनजागरण की दृष्टि से देखें तो 1919 से शुरू हुआ नागरिक हकूक की मांग के लिए उफना यह कुली उतार आंदोलन जिसने सरकारी रजिस्टरों के अपमानकारी पन्ने जलाए, फाड़े और सरयू नदी की धारा में बहा दिए, आगे जा कर उत्तराखंड में गांधीवादी अहिंसात्मक सत्याग्रह की शुरुआत बना।
Published: undefined
Google न्यूज़, नवजीवन फेसबुक पेज और नवजीवन ट्विटर हैंडल पर जुड़ें
प्रिय पाठकों हमारे टेलीग्राम (Telegram) चैनल से जुड़िए और पल-पल की ताज़ा खबरें पाइए, यहां क्लिक करें @navjivanindia
Published: undefined