ईरान के परमाणु स्थलों पर हाल में हुए अमेरिकी हमलों के बाद दोनों देशों के रिश्तों में एक नए अध्याय की शुरुआत हो गई है। यह अध्याय या तो बेहतर साबित हो सकता है या फिर और भी बुरा।
लगभग आधी सदी के दौरान दुनिया ने दोनों देशों के बीच दुश्मनी के कई दौर देखे हैं। ईरान के लिए जहां अमेरिका “सबसे बड़ा शैतान” है तो वहीं अमेरिका की नजर में ईरान पश्चिम एशिया में “फसाद की जड़” है।
हालांकि इस दौर में अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के लहजे में एक बदलाव भी दिखा जब उन्होंने कहा, “ईश्वर ईरान का भला करे।”
यह बदलाव इस सप्ताह ईरान के परमाणु स्थलों पर अमेरिका की भीषण बमबारी, कतर में अमेरिकी सैन्य अड्डे पर ईरान के जवाबी लेकिन संयमित हमले और इजराइल-ईरान युद्ध में राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की ओर से किए गए अस्थायी युद्ध विराम के बाद आया है।
एक अमेरिकी खुफिया रिपोर्ट में पता चला है कि तीन ठिकानों पर अमेरिकी हमले से गंभीर क्षति हुई है, लेकिन वे नष्ट नहीं हुए हैं। यह रिपोर्ट ट्रंप के इस दावे के विपरीत है कि हमले ने ईरान के परमाणु कार्यक्रम को "नष्ट" कर दिया।
यहां दोनों देशों के बीच लंबे समय से चले आ रहे तनाव के बारे में कुछ प्रश्न और उनके उत्तर दिए गए हैं:
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ट्रंप ने युद्ध विराम पर प्रतिक्रिया देते हुए इसे उपलब्धि बताया और खुशी जताई। हालांकि तब तक इजराइल और ईरान पूरी तरह से युद्ध विराम पर सहमत नहीं हुए थे। उन्होंने सोशल मीडिया पर लिखा, “ईश्वर इजराइल का भला करे। ईश्वर ईरान का भला करे।”
उन्होंने पश्चिम एशिया, अमेरिका और विश्व को भी शुभकामनाएं दीं।
जब यह स्पष्ट हो गया कि शत्रुता तुरन्त समाप्त नहीं हुई है, तो उन्होंने शपथ ग्रहण करना शुरू कर दिया।
जब यह स्पष्ट हो गया कि युद्ध तत्काल समाप्त नहीं हुआ है, तो उनके लहजे में फिर बदलाव आया और उन्होंने एक कड़ा बयान दिया।
उन्होंने कैमरे के सामने कहा, “दो देश इतने लंबे समय से और इतनी भीषण लड़ाई लड़ रहे हैं। उन्हें पता ही नहीं है कि वे क्या कर रहे हैं।”
इस दौरान ट्रंप ने विशेष रूप से इजराइल की आलोचना की, जो अमेरिका का पक्का सहयोगी रहा है। इससे ऐसा प्रतीत हुआ कि ट्रंप को लगता है कि इजराइल को लड़ाई रोकने में उतनी रुचि नहीं है, जितनी ईरान को है।
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इसका जवाब है, ऑपरेशन एजैक्स
साल 1953 में ईरान में तख्तापलट हुआ था, जिसे ब्रिटिश समर्थन से सीआईए ने अंजाम दिया था। ऑपरेशन एजैक्स के तहत ईरान की लोकतांत्रिक रूप से चुनी हुई सरकार को उखाड़ फेंका गया और शाह मोहम्मद रजा पहलवी को सत्ता सौंप दी गई। ऐसा इसलिए किया गया क्योंकि पश्चिमी देशों को ईरान में सोवियत संघ का प्रभाव बढ़ने और तेल उद्योग के राष्ट्रीयकरण का डर था।
शाह अमेरिका के रणनीतिक सहयोगी थे। उन्होंने अमेरिका के साथ ईरान के संबंध सुधारे। लेकिन उनके निरंकुश शासन और अमेरिका के हितों के आगे झुकने को लेकर ईरानियों के बीच शिकायतें बनी रहीं।
ईरानियों के बीच पहलवी के शासन के खिलाफ 1979 में आक्रोश बढ़ गया, जिसके बाद इस्लामी क्रांति हुई। इसके बाद वह देश छोड़कर भाग गए और धर्मतंत्रवादी क्रांतिकारियों ने देश पर नियंत्रण कर लिया।
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ईरान में अमेरिका विरोधी भावनाएं चरम पर थीं, इस बीच नवंबर, 1979 को ईरानी छात्रों ने 66 अमेरिकी राजनयिकों और नागरिकों को बंधक बना लिया और उनमें से 50 से अधिक को 444 दिन तक बंधक बनाए रखा।
अमेरिका और राष्ट्रपति जिमी कार्टर के लिए यह अपमानजनक बात थी। उन्होंने ईरान बंधक संकट के कुछ महीनों बाद एक गुप्त अभियान चलाने का आदेश दिया था।
ऑपरेशन ईगल क्लॉ के तहत नौसेना के आठ हेलीकॉप्टर और वायुसेना के छह विमानों को ईरान भेजा गया। हालांकि रेतीले तूफान के कारण एक हेलीकॉप्टर सी-120 के ईंधन भरने वाले विमान से टकराने के कारण आठ सैनिकों की मृत्यु हो गई और मिशन रद्द हो गया।
साल 1980 में दोनों देशों के बीच राजनयिक संबंध टूट गए और अब भी टूटे हुए हैं। 20 जनवरी, 1981 को रोनाल्ड रीगन के राष्ट्रपति पद की शपथ लेने के कुछ ही मिनटों बाद ईरान ने बंधकों को रिहा कर दिया।
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इसका जवाब है नहीं। इससे पहले सबसे बड़ा हमला समुद्र में हुआ था। अमेरिकी नौसेना ने द्वितीय विश्व युद्ध के बाद से अपने सबसे बड़े हमले में 18 अप्रैल, 1988 को दो ईरानी जहाजों को डुबो दिया, एक जहाज को क्षतिग्रस्त कर दिया और दो निगरानी प्लेटफार्मों को नष्ट कर दिया।
‘ऑपरेशन प्रेइंग मेंटिस’ नामक अभियान के तहत की गई यह कार्रवाई चार दिन पहले फारस की खाड़ी में यूएसएस सैमुअल बी रॉबर्ट्स पर हुए हमले के जवाब में की गई थी।
यूएसएस सैमुअल बी रॉबर्ट्स पर हुए हमले में दस नाविक घायल हो गए थे और विस्फोट से जहाज में एक बड़ा छेद हो गया था।
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इसका जवाब है आधिकारिक तौर पर नहीं, लेकिन अप्रत्यक्ष रूप से अमेरिका ने ऐसा किया।
अमेरिका ने इराक को आर्थिक सहायता, खुफिया जानकारी और सैन्य तकनीक प्रदान की, क्योंकि उसे चिंता थी कि ईरान की जीत से पूरे क्षेत्र में अस्थिरता फैल जाएगी और तेल आपूर्ति पर दबाव पड़ेगा।
ईरान और इराक के बीच 1980 से 1988 तक चले युद्ध में कोई स्पष्ट रूप से विजेता बनकर नहीं उभरा। इस युद्ध में हजारों लोगों की जान चली गई, जबकि उसके बाद के वर्षों में अमेरिका-इराक संबंधों में भारी गिरावट आई।
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