आज जब विश्व अर्थव्यवस्था पर कोरोना वायरस कोविड-19 का काला साया है और वैश्विक जीडीपी में 0.4 फीसदी की गिरावट के अनुमान के बाद भी तमाम विशेषज्ञ पूरी तरह आश्वस्त नहीं कि गिरावट इतने ही पर सीमित हो जाएगी, ऐसे समय याद आती है इयान गोल्डिन की बातों की। इयान गोल्डिन ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर हैं और वैश्वीकरण के विशेषज्ञ माने जाते हैं। इयान ने छह साल पहले ही भविष्यवाणी कर दी थी कि दुनिया में अगली बार जो आर्थिक मंदी आएगी, उसका कारण विश्वव्यापी महामारी होगी। इयान ने इन्हीं आशंकाओं को जताते हुए 2014 में एक किताब लिखी थी- दि बटरफ्लाई डिफेक्ट। इस पुस्तक में उन्होंने बताया था कि वैश्वीकरण के ताजा दौर में जहां तमाम देशों की किस्मत बदल गई, बड़ी संख्या में लोग गरीबी की बंदिशों से आजाद हुए लेकिन इस तरह की प्रक्रिया के अंतर्निहित खतरे भी होते हैं और यह खतरा पूरी दुनिया पर मंडरा रहा है। आज उनकी बातें सही होती दिख रही हैं। इयान का मानना है कि कोरोना वायरस के कारण निश्चित रूप से हम 2008 जैसी मंदी की ओर बढ़ रहे हैं।
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हाल ही में बीबीसी ने इयान गोल्डिन से बातचीत की और विश्व अर्थव्यवस्था की रफ्तार को धीमा कर रहे कोविड-19 के संदर्भ में भी बात की। इयान ने कहा, इसमें कोई संदेह नहीं कि विश्व अर्थव्यवस्था पर इसका प्रतिकूल असर पड़ने जा रहा है। मान लेना चाहिए कि हम आर्थिक मंदी की चपेट में हैं। वैश्विक अर्थव्यवस्था के मजबूत आधार रहे देशों की हालत दयनीय है। छह प्रतिशत से अधिक की विकास दर से बढ़ रहे चीन में दो फीसदी की गिरावट आने का अनुमान है। यूरोप, अमेरिका समेत पूरे विश्व में आर्थिक विकास की दर धीमी पड़ रही है। यह सुस्ती कितनी रहेगी यह इस बात पर निर्भर करेगा कि साधन संपन्न देश किस तरह उन देशों का साथ देते हैं जो मुश्किल दौर से गुजर रहे हैं। अगर कम साधन वाले देशों को सहारा देकर उन्हें मुसीबत से निकालने, उनकी बैंकिंग व्यवस्था को चरमराकर ढहने से बचाने में दुनिया ने मदद की तो आर्थिक मंदी के सबसे बुरे दौर को टाला जा सकता है। अभी दुनिया के सामने सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि कोई नहीं जानता कि कोविड-19 की मार कब तक रहेगी। इटली में स्थितियां अचानक बदतर हो गई हैं और देखते-देखते मरने वालों की संख्या ढाई हजार को पार कर गई। हमें नहीं पता कि वहां हालात आने वाले समय में क्या होंगे। हम आज इसी कारण अर्थव्यवस्था पर पड़ने वाले प्रतिकूल असर का सही अनुमान नहीं लगा सकते क्योंकि नहीं जानते कि यह महामारी आने वाले समय में कितना विकराल रूप धारण करेगी, और किन इलाकों को अपनी चपेट में लेगी और इसकी तीव्रता कितनी होगी। अभी कई सवाल हैं जिनका जवाब मिलना बाकी है। चीन ने जरूर अपने यहां इसके विस्तार को रोकने में कामयाबी पाई है, लेकिन बाकी दुनिया की तो वैसी स्थिति नहीं।
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इस महामारी ने आम लोगों के जीवन पर भी असर डाला है। पूरी दुनिया में शेयर बाजार गिर रहे हैं, लोगों के पैसे हवा में उड़ते जा रहे हैं और लोगों की पेंशन घट गई है। लोगों के पास खर्च करने को पैसे नहीं। पर्यटन, होटल, रेस्तरां वगैरह क्षेत्रों से जुड़े लोगों के काम तेजी से खत्म होते जा रहे हैं। उनके लिए अपने परिवार को पालना मुश्किल हो रहा है। तमाम ऐसी कंपनियां हैं जिन्होंने लोगों को दफ्तर आने से मना कर दिया है और बिजनेस के बैठ जाने के कारण तमाम गतिविधियां बंद हो गई हैं और इनसे जुड़े लोग बेकार हो गए हैं। आर्थिक मंदी के साथ ही एक और खतरा बढ़ रहा है और वह है असमानता के बढ़ने का।
अपनी पुस्तक में इयान ने वैश्वीकरण के तमाम फायदे गिनाए हैं। उन्होंने यह माना है कि वैश्विक आर्थिक सहभागिता के कारण ने केवल संसाधनों, हुनर-काबलियत, ज्ञान-विज्ञान और विचारों का आदान-प्रदान हुआ बल्कि इससे आर्थिक विकास तेज हुआ और शिक्षा का स्तर सुधरा। विश्व में लोकतात्रिं क व्यवस्था को बल मिला और परस्पर सहयोग के कारण एक से एक घातक बीमारियों की रोकथाम संभव हो सकी। इस प्रक्रिया के कारण तमाम वैसे इलाकों की हालत सुधरी जहां हमारी निर्धनतम आबादी रहती थी। व्यापारिक-सामाजिक और सांस्कृतिक प्रसार की दृष्टि से प्राचीन समय से ही विभिन्न भौगोलिक क्षेत्रों के लोगों का आना-जान महत्वपूर्ण साधन रहा है और वैश्वीकरण के दौर में संचार के सुगम होने से इस तरह की गतिविधियों में तेजी आई। इयान ने आगाह किया कि जिन साधनों ने वैश्वीकरण को हमारे लिए प्रगति का जरिया बनाया, वही नुकसान के कारण भी बन सकते हैं। अगर दुनिया में सप्लाई चेन का संजाल तैयार हुआ जिससे व्यापार सुगम हुआ, वही अगर किसी कारण से बाधित हो जाए तो खतरे भी पैदा कर सकता है। संचार की सुविधाएं बढ़ीं तो यह केवल सकारात्मक चीजें के लिए तो नहीं हैं, इससे रोग का भी तो प्रसार हो सकता है। इयान की पुस्तक का जोर इसी बात पर है कि हमें इन्हीं खतरों से बचाव के तरीके खोजने होंगे, वर्ना वैश्वीकरण के अंतर्निहित खतरे विकास की रफ्तार को रिवर्सगियर में डाल सकते हैं। पुस्तक में उन्होंने कुछ उपाय भी सुझाए थेः
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लचीलापन और स्थिरता को बढ़ावा: सार्वजनिक और निजी क्षेत्र के नीति निर्धारकों को पता होना चाहिए कि जिस तरह के जोखिम का खतरा मंडरा रहा है, उसकी दस्तक कभी भी-कहीं भी हो सकती है और इस बात को ध्यान में रखते हुए उन्हें किसी एक भौगोलिक क्षेत्र पर, किसी एक चैनल पर निर्भर नहीं रहना चाहिए। इसके साथ ही संगठन का स्वरूप भी ऐसा होना चाहिए जो चुनौतियों का सामना कर सके। विकास के स्थायित्व के लिए जरूरी है कि लंबे समय की योजना को लेकर चलें।
जोखिम, अनिश्चितता और विकल्प का आकलनः क्या करने के क्या परिणाम निकलेंगे, इसका अनुमान लगाने की क्षमता बढ़ती जटिलताओं और कारोबार की बढ़ती गति के कारण कम होती जा रही है। नीतिनिर्धारकों को यह समझते हुए कामकाज को ज्यादा से ज्यादा पारदर्शी बनाना होगा। हितधारकों के लिए किसी सही निर्णय पर पहुंचने के लिए सही सूचना का होना जरूरी है और उन्हें संभावनाओं के साथ-साथ संभावित खतरों वगैरह के बारे में भी स्पष्ट जानकारी होनी होगी। वैसे ही लोकतात्रिंक स्थिरता के लिए भी जरूरी है कि मतदाताओं को पारदर्शी तरीके से वस्तुस्थिति का अंदाजा होना चाहिए।
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जोखिम आकलन को बेहतर बनाना होगाः बढ़ती जटिलताओं और परस्पर निर्भरता के कारण किसी क्षेत्र विशेष के बाहर तथा देश की भौगोलिक सीमाओं के बाहर की स्थितियों के सही आकलन में हम पिछड़ते जा रहे हैं। करोड़ों लोगों का फैसला इसपर निर्भर करता है कि उनका वेतन क्या है, कर कितना है, बीमा भुगतान की स्थिति क्या है, बाजार की क्या स्थिति है, महंगाई की क्या स्थिति है। ये सारे वो कारक हैं जो किसी भी उद्यम के लिए वित्तीय जोखिम पैदा करते हैं। इसलिए जरूरी है कि जोखिम का आकलन करते समय सीधे अपने क्षेत्र की बात को ध्यान में रखने के अलावा अन्य परोक्ष कारकों का भी ख्याल रखें।
आपात स्थिति की तैयारीः रिसर्च और जोखिम प्रबंधन के अलावा राजनीतिक नेतृत्व को इसकी भी तैयारी करनी होगी कि अगर कोई आपात स्थिति आई तो उससे कैसे और कितने कम समय में निपटेंगे। आप विपरीत स्थिति से कितनी कामयाबी से निपटते हैं, यह इस बात पर निर्भर करेगा कि आपने आपात काल की कैसी तैयारी कर रखी है। जब वैश्विक स्तर पर तालमेल की जरूरत होगी तो आपके विकल्प क्या होंगे, आपकी प्रतिक्रिया क्या होगी इसकी रूपरेखा पहले से तैयार कर लेनी होगी।
कुल मिलाकर यही कहा जा सकता है कि वैश्वीकरण अगर व्यवस्थात्मक जोखिम का कारण है तो यही उसका हल भी है। हां, इसके लिए पहली जरूरत यह है कि इन जोखिमों का प्रबंधन कुशलता के साथ किया जाए। बढ़ती संचार सुविधाओं, तेजी से हो रहे बदलाव, बढ़ती आबादी और आय के साथ जटिलताएं आती हैं तो इनके अंतर्निहित खतरे भी बढ़ जाते हैं। अगर वैश्वीकरण हमारे लिए समस्याएं खड़ी करता है तो यह हमें हल भी देता है। लेकिन इसके लिए हमें केवल अवसरों को भुनाने के लिए साथ की नहीं, बल्कि खतरों और चुनौतियों से निपटने के लिए भी हाथ बटाने की संस्कृति को मजबूत करना होगा। यानी व्यवस्थात्मक जोखिम का उपचार व्यवस्थात्मक सहयोग से ही हो सकता है।
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