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बिहार वोटर लिस्ट विवाद: आखिर क्यों चुनाव आयोग को सुप्रीम कोर्ट में मुंह की खानी पड़ी!

सुप्रीम कोर्ट ने फिलहाल चुनाव आयोग को मौका दिया है कि उसने एसआईआर की प्रक्रिया में जो गलतियां की हैं उन्हें सुधार ले, लेकिन अगली सुनवाई में आयोग को कुछ और सवालों पर सफाई देनी होगी।

फोटोः IANS
फोटोः IANS 

सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस सुधांशु धूलिया और जस्टिस जॉयमाल्या बागची की बेंच ने गुरुवार, 10 जुलाई को चुनाव आयोग को पर्याप्त गुंजाइश दी है कि वह बिहार में जारी मतदाता सूची के विशेष गहन पुनरीक्षण (एसआईआर) के लिए निर्धारित 'अव्यावहारिक और अनुचित' निर्देशों, समय सीमा और प्रक्रियाओं से बच सके। यह प्रक्रिया 25 जुलाई, 2025 को समाप्त होने वाली है।

मामले की सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग की इस दलील को तो सुन लिया कि बिहार में 'पहचान' और 'नागरिकता' साबित करने के लिए उसके द्वारा निर्धारित 11 दस्तावेजों की सूची इंडिकेटिव यानी 'उदाहरणात्मक' है, एक्सहास्टिव यानी संपूर्ण नहीं है। इसी को आधार बनाकर सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग को सुझाव दिया कि 'न्याय के हित में' उसे आधार, वोटर आईडी कार्ड और राशन कार्ड पर भी विचार करना चाहिए। आयोग को निर्देश दिया गया है कि वह हर ऐसे मामले में कारण बताए जिसमें उसने इनमें से किसी भी पहचान प्रमाण पर विचार करने से इनकार किया है।

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इस तरह, सुप्रीम कोर्ट ने याचिकाकर्ताओं द्वारा उठाई गई सबसे गंभीर चिंताओं में से एक का समाधान कर दिया है। साथ ही, इसने मतदाताओं, संभावित मतदाताओं या मतदाता सूची में शामिल लोगों से सबूत पेश करने का भार चुनाव आयोग पर डाल दिया है। कोर्ट ने बिहार में मतदाता सूची के विशेष गहन पुनरीक्षण (एसआईआर) पर रोक न लगाते हुए आयोग को एक तरह का झटका भी दिया है। कोर्ट ने आयोग के वकील द्वारा मतदाता सूची का मसौदा (ड्राफ्ट वोटर लिस्ट) तैयार करने, लेकिन अगली सुनवाई की तारीख 28 जुलाई, 2025 से पहले उसे प्रकाशित न करने के प्रस्ताव को भी तत्परता से स्वीकार कर लिया।

चुनाव आयोग का यह कहना सही है कि आधार बायोमेट्रिक पहचान पहचान और पते का प्रमाण है, नागरिकता का नहीं। यही कारण है कि कुछ समय के लिए भारत में रहने वाले विदेशी भी - चाहे वे छात्र हों, शोधार्थी हों, उद्यमी हों, पेशेवर हों या कर्मचारी - आधार के हकदार हैं। उदाहरण के लिए, उन्हें कार खरीदने, बीमा लेने या किराये का मकान लेने के लिए इसकी आवश्यकता होती है। यही कारण है कि दिल्ली जैसे महानगरों में आधार की संख्या मतदाताओं की संख्या से अधिक है।

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मीडिया और बीजेपी द्वारा रोहिंग्याओं और बांग्लादेशियों को 'मतदाता' और इस प्रकार भारतीय नागरिक बताने के जुनून के विपरीत, बिहार में रहने वाले नेपालियों की संख्या, नेपाल के साथ बिहार की लंबी और खुली सीमा को देखते हुए, कहीं अधिक होने की संभावना है। कार्यकर्ता और टिप्पणीकार योगेंद्र यादव ने शुरू में ही यही सुझाव दिया था और चुनाव आयोग जितनी जल्दी इसे समझ लेगा, उससे सभी को आसानी होगी। भारत में रहने वाले तिब्बतियों और म्यांमार, बांग्लादेश, पाकिस्तान और अफ़ग़ानिस्तान से आए शरणार्थियों के पास भी आधार हो सकता है और उनमें से कुछ मतदाता सूची में भी शामिल हो गए होंगे। उन्हें बाहर निकालना चुनाव आयोग का काम है और उनकी संख्या बहुत ज़्यादा होने की संभावना नहीं है।

सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप से बिहार के उन लाखों प्रवासी मज़दूरों की चिंताओं का भी समाधान होने की संभावना है जो घर से दूर जगहों पर काम कर रहे हैं। चुनाव आयोग ने ऐसे लोगों से एक महीने के भीतर घर लौटकर दस्तावेज़ जमा करने और अपनी नागरिकता साबित करने की अनुचित मांग की थी, लेकिन अब उम्मीद है कि आयोग द्वारा पहले जारी किए गए उनके आधार और वोटर कार्ड की अधिक व्यावहारिक जांच का रास्ता खुलेगा।

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वोटर लिस्ट पुनरीक्षण (एसआईआर) की प्रक्रिया को जारी रखने और अदालत द्वारा उस पर 'रोक' न लगाने पर ज़ोर देकर, चुनाव आयोग ने अपनी स्थिति को शायद अस्थिर कर दिया है। अगर वह सुप्रीम कोर्ट के सुझाव के अनुसार आधार, वोटर कार्ड और राशन कार्ड को पहचान और पते के प्रमाण के रूप में स्वीकार करने का फ़ैसला करता है, तो चुनाव आयोग का वह मूल उद्देश्य नाकाम हो जाएगा, जिसके लिए एसआईआर शुरू की गई थी। अगर वह इस सुझाव को मानने से इनकार करता है, तो उसे अगली सुनवाई में कारण स्पष्ट करने होंगे और ऐसा करना आसान नहीं होगा।

गुरुवार की सुनवाई के दौरान, कोर्ट ने याचिकाकर्ताओं द्वारा उठाई गई दो और चिंताओं पर ज़ोर नहीं दिया। इनमें से एक नागरिकता का पता लगाने की चुनाव आयोग के अधिकार से संबंधित है। कोर्ट ने साफ कहा कि यह गृह मंत्रालय का काम है—और दूसरी चिंता उस अनुचित जल्दबाजी से संबंधित है जिसके साथ यह प्रक्रिया शुरू की गई और पूरी करने का आदेश दिया गया। आयोग ने अभी तक यह स्पष्ट नहीं किया है कि उसे एसआईआर इतनी देर से शुरु करने की इतनी जल्दी क्यों थी और वह इसे नवंबर 2025 में होने वाले अगले विधानसभा चुनाव से पहले क्यों पूरा करना चाहता था। क्यों न और समय लिया जाए और अगले छह महीने या एक साल में यह प्रक्रिया पूरी की जाए और अगले चुनाव के लिए ज़्यादा मज़बूत मतदाता सूची का इस्तेमाल किया जाए?

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याचिकाकर्ताओं का यह तर्क वाजिब था कि बिहार में मौजूदा मतदाता सूचियों के आधार पर अब तक दस चुनाव हो चुके हैं, जिनमें से पांच विधानसभा और पांच लोकसभा के हैं। उन्होंने यह भी ज़ोरदार तर्क दिया कि मतदाता सूचियों का संक्षिप्त पुनरीक्षण हर साल किया जाता रहा है, और आखिरी पुनरीक्षण जनवरी, 2025 में पूरा हुआ। याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया कि मतदाता सूचियों में पहले से मौजूद (और वोटर कार्ड धारक) मतदाताओं को नागरिक माना जाना चाहिए क्योंकि चुनाव आयोग ने ही उन्हें मतदाता बनाया है। अगर चुनाव आयोग उनकी नागरिकता पर संदेह के कारण उन्हें मतदाता सूचियों से हटाना चाहता है, तो उसे जनप्रतिनिधित्व अधिनियम के तहत सबूत पेश करने होंगे और सुनवाई करनी होगी।

चुनाव आयोग की सूची में शामिल कई अन्य दस्तावेज़ों (जैसे, जाति प्रमाण पत्र या हाईस्कूल का प्रमाणपत्र) में से कोई भी नागरिकता साबित नहीं करता। उन्होंने तर्क दिया कि जनप्रतिनिधित्व अधिनियम की धारा 23(4) मतदाता सूची में नाम दर्ज कराने के लिए किसी व्यक्ति की पहचान सत्यापित करने हेतु आधार कार्ड के इस्तेमाल को स्पष्ट रूप से अधिकृत करती है।

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