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बिहार: सुशासन बाबू के पैरों तले जमीन खिसका सकते हैं इस बार के चुनाव में युवा

बिहार में इस साल विधानसभा चुनाव होने हैं। राज्य का भाग्य युवाओं के हाथ में है। यह चुनाव अलग हो सकता है क्योंकि हमारे युवा समझते हैं कि बेरोजगारी और महामारी जाति की रेखाओं में भेदभाव नहीं करती, यह सभी के लिए है।

फोटो : सोशल मीडिया
फोटो : सोशल मीडिया 

कोरोना ने ‘सुशासन’ बाबू के सुशासन के दावों की पोल- पट्टी खोलकर रख दी। जब से महामारी ने पैर पसारे, बिहार ने हर गलत कारणों के लिए सुर्खियां बटोरीं। चाहे मजदूरों का पलायन हो या लाचार चिकित्सा व्यवस्था। बिहार का अतीत गौरवशाली रहा है। प्राचीन भारत के पूर्ववर्ती मगध साम्राज्य के रूप में इसने भारत को उसका पहला राजनीतिक मानचित्र दिया। ऐसा राज्य जहां तब चिकित्सा सुविधाएं मुफ्त थीं और नालंदा और विक्रमशिला-जैसे विश्वस्तरीय विश्वविद्यालय थे। लेकिन ऐसी गौरवशाली उपलब्धियों वाला राज्य आज खराब शासन-प्रशासन की मिसाल बन गया है।

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वर्ष 2019 के लिए नीति आयोग की रिपोर्ट में सतत विकास लक्ष्य (एसडीजे) सूचकांक के मामले में बिहार दयनीय रहा। वैश्विक लक्ष्यों में एसडीजे को पाने के लिहाज से गरीबी उन्मूलन को सबसे बड़े कारक के तौर पर माना गया है। गरीबी वह स्थिति है जिसमें खाने के लिए भोजन नहीं होता; आय के साधन नहीं होते, पहनने के लिए ढंग के कपड़े और रहने के लिए सिर पर छत नहीं होती। 2018 के वैश्विक बहुआयामी गरीबी सूचकांक से पता चलता है कि बिहार में रहने वाले 52.2 प्रतिशत लोग गरीब हैं। ज्यादातर गरीब उत्तर बिहार के 11 जिलों में हैं। हर 10 में से 6 लोग बहुआयामी गरीब हैं। भारत के 640 जिलों में लगभग 4 करोड़ गरीब हैं जिनमें से 2.8 करोड़ बिहार के इन 11 जिलों में रहते हैं।

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एक अफ्रीकी कहावत है, “एक गरीब आदमी की बीमारी उसे उसकी कब्र में ले जाती है” और यह बिहार पर भी सटीक बैठती है जहां हर साल लोग खराब स्वास्थ्य सुविधाओं के कारण जान गंवा रहे हैं। नीति आयोग के स्वास्थ्य सूचकांक -2019 में बिहार का स्थान नीचे से दूसरा है। इसके अलावा बिहार में शिशु मृत्यु दर सबसे अधिक है- बालिकाओं के मामले में यह 46/1,000 है जबकि कुल (बालक+बालिका) शिशु मृत्यु दर 38/1,000 थी। प्रत्येक 1,000 लोगों पर एक डॉक्टर होना चाहिए जबकि बिहार में 43,788 लोगों पर एक डॉक्टर है।

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2010 में संयुक्त राष्ट्र ने माना कि सभी मानवाधिकारों के लिए शुद्ध पेयजल और सफाई जरूरी है। साफ पेयजल के लिए बिहार सरकार ने 2016 में “हर घर नल का जल” कार्यक्रम शुरू किया। 8391 ग्राम पंचायत को पीने का पानी देने के लिए शुरू कार्यक्रम के लिए 1812.05 करोड़ का फंड मिला लेकिन लक्ष्य दूर रहा। 2019 में जब केंद्र सरकार ने जल शक्ति मंत्रालय बनाया तो उसे 2021 तक बिहार के 15,092,215 घरों को सुरक्षित पीने का पानी पहुंचाने का लक्ष्य दिया गया। 30 जून, 2020 तक केवल 439,243 परिवार ही योजना से लाभान्वित हुए हैं।

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अब नौकरी-रोजगार की बात। बिहार में आबादी का बड़ा हिस्सा दूसरे राज्यों या खाड़ी देशों का रुख करता है। जनगणना -2011 के अनुसार, आजीविका की तलाश में 80 लाख लोग बिहार से पलायन कर चुके हैं। अब तक यह आंकड़ा 1 करोड़ से अधिक हो गया होगा। टीआईएसएस का शोध कहता है भारत में कुल प्रवासियों में 79% बिहार के गांवों से हैं और ये दूसरे राज्यों के गांवों में ही जाकर खेती, निर्माण और उद्योगों में कम स्किल वाले काम में लगे हुए हैं। केवल 12% लोगों ने शहरों में पलायन किया।

एनएसएसओ की रिपोर्ट में बिहार में बेरोजगारी दर 9.8% रही जबकि राष्ट्रीय औसत 5.8% है। बेरोजगार स्नातकों की सबसे ज्यादा संख्या बिहार में है। शिक्षा क्षेत्र भी जमीन सूंघ रहा है। बिहार की 12 करोड़ की आबादी में केवल 27 इंजीनियरिंग कॉलेज, 2 एनआईटी, 5 मेडिकल कॉलेज, 11 डेंटल कॉलेज और 11 विश्वविद्यालय हैं।

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बिहार में इस साल विधानसभा चुनाव होने हैं। राज्य का भाग्य युवाओं के हाथ में है और उन्हें युवा और शिक्षित नेताओं को चुनना चाहिए। यह चुनाव अलग हो सकता है क्योंकि हमारे युवा समझते हैं कि बेरोजगारी और महामारी जाति की रेखाओं में भेदभाव नहीं करती, यह सभी के लिए है। बिहार जाति आधारित राजनीति के लिए बदनाम है। लेकिन अच्छी बात यह है कि यहां के युवाओं में जाति और धर्म के आधार पर मतदान करने की पुरानी प्रतिगामी प्रथा के खिलाफ उठता दिख रहा है। युवा ऐसे कम उम्र के नेताओं के पक्ष में जाते हैं जो उनकी समस्याओं को बेहतर समझते हैं। कह सकते हैं कि युवा बिहार युवा नेताओं के लिए तैयार है।

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