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लॉकडाउन से कामवाली बाइयों के रोजगार पर भी आफत, संकट के बाद भी काम मिलना मुश्किल दिख रहा है

अधिकतर लोगों ने अपने घरों में काम करने वाली बाइयों को अप्रैल में वेतन दे दिया। उम्मीद है, अधिकतर लोग मई में भी दे देंगे। लेकिन क्या जून में भी ऐसा हो पाएगा? इसमें संदेह है, क्योंकि लगने लगा है कि मेड की जरूरत तो है लेकिन जब हालात सामान्य होंगे, तब देखेंगे।

फोटोः सोशल मीडिया
फोटोः सोशल मीडिया 

निम्न मध्यवर्गीय परिवारों तक के लोग काम वाली बाई के भरोसे रहते रहे हैं। महानगरों ही नहीं, अब तो शहरों के घरों में भी ये काम वाली बाइयां ही खाना पकाने तक का काम करने लगी हैं। लाॅकडाउन लागू होने से पहले ही अधिकांश लोगों ने इन्हें आने से मना कर दिया। अप्रैल के पहले सप्ताह में इनमें से अधिकांश बाइयों को लोगों ने भुगतान कर दिया है। उम्मीद करनी चाहिए कि मई के पहले हफ्ते में भी अधिकांश लोग ऐसा ही करेंगे। लेकिन उसके बाद? कहना मुश्किल है कि लाॅकडाउन जारी रहने पर जून में भी लोग ऐसा करेंगे।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भले ही इन लोगों का ध्यान रखने की अपील की है, अपनी सैलरी में कटौती या नौकरी जाने पर विकल्प न होने से परेशान मध्यवर्गीय परिवारों से लेकर अच्छे खाते-पीते लोग इन पर गाज गिराने लगें, तो आश्चर्य नहीं। वैसे भी इन बाइयों का रोजगार सबसे असुरक्षित रहता है- इन्हें बिना नोटिस कभी भी हटा देने की आदत लोगों में रही है। और लाॅकडाउन के दौरान घर में रहने वाले लोगों को हर किस्म का घरेलू काम खुद ही करने की आदत बनने लगी है।

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वैसे भी, लाखों-करोड़ों के फ्लैट में रहने वालों के यहां काम करने वाली बाइयां आसपास की ऐसी बस्तियों में रहती हैं, जहां साफ-सफाई तो छोड़िए, मूलभूत सुविधाएं भी न्यूनतम होती हैं। इसे गाजियाबाद के इंदिरापुरम में बिल्डर फ्लैट में रहने वाली सोनी की इस बात से समझा जा सकता है कि लोगों की सोच अब क्या बनने लगी हैः सब कुछ इस पर निर्भर करेगा कि हालात कब तक सामान्य होते हैं। मेड की जरूरत तो है लेकिन यह देखना भी जरूरी है कि खुद और परिवार के स्वास्थ्य की सुरक्षा कैसे सुनिश्चित की जाए। जब हालात सामान्य होंगे, तब सोचेंगे। उसके आधार पर ही कोई फैसला लेंगे।

इंदिरापुरम की ही पत्रकार विहार सोसायटी की सुनीता भी कहती हैंः सुरक्षा की चिंता तो है, लेकिन बिना मेड के काम नहीं चल पाएगा। वैसे, अधिकांश लोगों का कहना है कि लॉकडाउन खुलने के बाद भी करीब दो महीने तक इन महिला कामगारों को काम पर नहीं बुलाया जाएगा। आगे भी वेतन देते रहने को लेकर लोग अभी से ही गोलमोल जवाब देने लगे हैं। और इससे ही समझा जा सकता है कि इन लोगों के लिए आने वाले दिन कितने अच्छे या बुरे होने जा रहे हैं।

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कन्फेडरेशन ऑफ इंडियन इंडस्ट्रीज की उत्तराखंड काउंसिल के अध्यक्ष अशोक विंडलास इसी वजह से कहते हैंः लगातार चल रहे लाॅकडाउन से लोगों को प्रत्यक्ष तौर पर और नुकसान होगा इसलिए सरकार को अर्थव्यवस्था खोलने पर विचार करना चाहिए। लाॅकडाउन धीरे-धीरे खुलना शुरू नहीं हुआ तो खतरा यह है कि कामगारों की समस्याएं और गंभीर होंगी और इस वजह से अनौपचारिक कामगार क्षेत्र पर बहुत ही बुरा असर होगा।

साउथ इंडियन चैंबर ऑफ काॅमर्स एंड इंडस्ट्रीज (एसआईसीसीआई) के चेन्नई निवासी अध्यक्ष रामचंद्रन गणपति का भी कहना है कि लाॅकडाउन स्थायी तो है नहीं, देर-सबेर खुलेगा ही। शहरी मध्य वर्ग और उच्च मध्य वर्ग के परिवारों में काम करने वाली बाइयां, दरअसल, ऐसे परिवारों के लिए रीढ़ की हड्डी हैं। उन परिवारों के लिए तो ये जरूरी हिस्से की तरह हैं, जहां दोनों मियां-बीवी कामकाजी हैं या कामकाजी दंपति के बच्चे अभी छोटे हैं। इन दिनों इन बाइयों की गैरमौजूदगी ने ऐसे परिवारों को इनकी अहमियत का अहसास भी कराया है।

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गणपति का कहना है कि इन बाइयों के जीवन और उनके रोजगार की सुरक्षा अहम बिंदु है और यह बड़ी चुनौती है। आने वाले दिनों में इससे उनके पूरे समुदाय को जूझना होगा। जहां वे काम करती हैं, आने वाले दिनों में वहां के लोग सैलरी कट या नौकरी जाने की परिस्थितियों से खुद भी जूझ रहे होंगे। स्वाभाविक है कि ऐसे घरों में काम करने वाली बाइयों को खुद भी झेलना होगा। दूसरी बात, उन लोगों को भी इन बाइयों की साफ-सफाई और उनके स्वास्थ्य की देखभाल करनी होगी क्योंकि कोविड-19 के खतरे का यह एक जरूरी पहलू है। अगर बाइयां सुरक्षित नहीं, तो वे लोग कैसे सुरक्षित हो सकते हैं जिनके यहां वे काम करती हैं।

गणपति यह भी कहते हैं कि जब भी वे काम पर आना शुरू करती हैं- चाहे हम बुलाएं या वे खुद ही आएं, उन्हें ठेस पहुंचाए बिना हमें कुछ काम करने चाहिए- हम उनका टेस्ट करवा सकते हैं, उन्हें ऐसे जरूरी सुरक्षा उपकरण हम खुद उपलब्ध करा सकते हैं, जिनसे उनके कामकाज के दौरान हमें असुरक्षा न हो। संभव हो, तो यह भी कर सकते हैं कि वे जब भी हमारे घर में कामकाज शुरू करें, हम उनके नहाने-धोने का इंतजाम भी कर सकें जैसा कि हम बाहर से घर आने पर अभी खुद कर रहे हैं।

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जो लोग काम वाली बाइयों के बिना काम नहीं चला सकते, उन्हें तो यह सब करने को मजबूर होना ही होगा। आखिर, कोई भी आदमी अपने और अपने परिवार के स्वास्थ्य और उनकी सुरक्षा के बारे में तो सोचेगा ही। बेंगलुरू की उद्यमी प्रिया गोपालन- जैसे लोग तो इस दिशा में सोच भी रही हैं। वह घर से ही काम करती हैं और तीन बच्चों की मां हैं। स्वाभाविक है कि इस लाॅकडाउन में उनकी आमदनी काफी कम हो गई है। लेकिन उनका कहना है कि मेरी काम वाली बाई पिछले चार साल से मेरे यहां काम कर रही है। ठीक है कि घर का आधा काम अब भी मुझे ही करना पड़ता है लेकिन इस तरह ईमानदारी के साथ काम करने वाला दूसरा आदमी हमें कहां मिल पाएगा?

वैसे, कई लोग इसे एक ऐसे अवसर के तौर पर भी देख रहे हैं, जब वह विकल्प देखें। एक टेक्निकल फर्म में काम कर रहे नोएडा के एक शख्स ने कहा कि इस लाॅकडाउन के दौरान हम ऑफिस और घर- दोनों के काम कर ही रहे हैं। अब तो आदत सी बन गई है। हमें तो लगने लगा है कि ऑफिस खुल गए, तब भी हमें काम वाली बाई के बिना भी काम करने में दिक्कत नहीं होगी। नोएडा की एक अन्य महिला ने कहाः मेरी बाई वैसे भी बहुत मनमानी करती थी- सूचना दिए बिना ही जब-तब छुट्टी कर लेती थी। मुझे तो आदत होने लग गई है कि मैं उसके बिना ही काम चला लूं। मैं तो कोशिश करूंगी कि उसके बिना ही काम चलता रहे।

(साथ में राम शिरोमणि शुक्ल और कृष्ण सिंह)

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