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लॉकडाउनः गेहूं की सरकारी खरीद से किसानों को राहत नहीं, तय दाम से कम भाव पर बेचने के लिए मजबूर

देश में मध्यप्रदेश सबसे अच्छी क्वालिटी का गेहूं पैदा करता है, जहां एमएसपी से काफी कम भाव पर किसानों को गेहूं बेचना पड़ रहा है। कारोबारियों का कहना है कि इसकी वजह मांग और आपूर्ति पर है। इस समय गेहूं की देश में जितनी आपूर्ति है, उसके मुकाबले मांग काफी कम है

फोटोः सोशल मीडिया
फोटोः सोशल मीडिया 

कोरोना संकट के चलते देशव्यापी लॉकडाउन में ही देश भर में गेहूं की सरकारी खरीद शुरू हो चुकी है, मगर किसानों को अभी भी सरकार द्वारा तय न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी एमएसपी से कम भाव पर गेहूं बेचना पड़ रहा है। देश के सबसे बड़े गेहूं उत्पादक राज्य उत्तर प्रदेश समेत मध्य प्रदेश और राजस्थान की मंडियों में भी गेहूं की खरीद एमएसपी से कम भाव पर हो रही है।

केंद्र सरकार ने गेहूं की फसल के लिए एमएसपी 1925 रुपये प्रति क्विंटल तय किया है।लेकिन देश के प्रमुख गेहूं उत्पादक राज्य मध्य प्रदेश की मंडियों में गुरुवार को मिल क्वालिटी के गेहूं का भाव करीब 1675-1700 रुपये प्रति क्विंटल, जबकि बेहतर क्वालिटी के लोकवान और अन्य गेहूं की वेरायटी का भाव 1950 रुपये प्रति क्विंटल तक रहा।

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वहीं, राजस्थान की मंडियों में मिल क्वालिटी के गेहूं का भाव 1700 रुपये, जबकि लोकवान का भाव 1750-1800 रुपये प्रति क्विंटल रहा। हालांकि, उत्तर प्रदेश की शाहजहांपुर मंडी में गेहूं का भाव 1825-1850 रुपये प्रति क्विंटल रहा। मंडी के कारोबारी अशोक अग्रवाल ने कहा, "किसान बाजार में गेहूं बेचने में कम दिलचस्पी दिखा रहे हैं और सरकारी एंजेसियों को एमएसपी पर बेचना चाहते हैं, इसलिए आवक कम रहने से भाव ज्यादा हैं।" उन्होंने कहा कि उत्तर प्रदेश में भाव ज्यादा होने के कारण दक्षिण भारतीय बाजारों से भी मांग कम आ रही है।

देश में सबसे अच्छी क्वालिटी के गेहूं की पैदावार मध्य प्रदेश में होती है, जहां एमएसपी से काफी कम भाव पर किसानों को गेहूं बेचना पड़ रहा है। जींस कारोबारी संदीप सारडा ने बताया कि किसानों को जब पैसे की जरूरत होती है तो वे सरकारी खरीद का इंतजार नहीं करते और बाजार भाव पर भी अपना अनाज बेच देते हैं। उन्होंने कहा कि कृषि उत्पाद हो या अन्य वस्तुएं, बाजार में उनका भाव मांग और आपूर्ति पर निर्भर करता है और इस समय गेहूं की देश में जितनी आपूर्ति है, उसके मुकाबले खपत और मांग कम है।

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देश में चालू रबी सीजन में गेहूं का उत्पादन 11.84 करोड़ टन होने का अनुमान है, जबकि सरकारी खरीद 407 लाख टन करने का लक्ष्य रखा गया है। अगर सरकारी खरीद के इस लक्ष्य को प्राप्त भी कर लिया गया तो कुल उत्पादन का महज 34.37 फीसदी ही गेहूं सरकार खरीदेगी। इसका मतलब है कि बहुत बड़े पैमाने पर किसानों को अपनी फसल के लिए इधर-उधर भटकना होगा।

पंजाब और हरियाणा देश के दो ऐसे राज्य हैं, जहां गेहूं और धान की सरकारी खरीद सबसे अधिक होती है। इसके बाद मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और राजस्थान में होती है। बिहार के मधेपुरा जिले के किसान चंदेश्वरी यादव ने बताया कि खरीद एजेंसी पैक्स यानी प्राइमरी एग्रीकल्चर क्रेडिट सोसायटीज एमएसपी पर गेहूं और धान खरीदती है, मगर उससे पैसे मिलने में काफी विलंब हो जाता है, इसलिए उन्होंने अब तक पैक्स को अनाज नहीं बेचा है। उन्होंने कहा कि ज्यादातर किसान गांवों के गल्ला कारोबारी को ही अनाज बेचते हैं।

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बता दें कि खाद्यान्नों में पूरे देश में गेहूं और चावल की ही सरकारी खरीद व्यापक पैमाने पर होती है। बाकी फसलों की खरीद एमएसपी पर बहुत कम होती है। इस संबंध में कृषि अर्थशास्त्री डॉ. विजय सरदाना का कहना है कि एपीएमसी यानी कृषि उत्पाद विपणन समिति की नीति त्रुटिपूर्ण है। उन्होंने कहा कि जब तक एपीएमसी रहेगी किसानों का शोषण होता रहेगा। एपीएमसी एक्ट को समाप्त कर किसानों को सीधे उपभोक्ता बाजारों में अपनी वस्तुएं बेचने की आजादी होनी चाहिए।

रोला फ्लोर मिलर्स फेडरेशन ऑफ इंडिया के अध्यक्ष संजय पुरी का भी यही कहना है कि किसान और खरीदार के बीच बिचौलिए की परंपरा को समाप्त किया जाना चाहिए। पुरी कहते हैं कि मिलों को अगर सीधे किसानों से अनाज खरीदने की इजाजत हो तो उन्हें उनकी फसलों का वाजिब दाम मिल पाएगा।

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