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उत्तर प्रदेश डायरीः महंगी बिजली खरीदने को तैयार रहें लोग, योगी सरकार निजीकरण पर आमादा, गुपचुप हो रही तैयारी

अखिलेश यादव ने कहा कि बीजेपी ने न तो उत्पादन बढ़ाया है, न ट्रांसमिशन को मजबूत किया है, न ही सस्ती और अबाधित बिजली की उपलब्धता के लिए बेहतर वितरण किया है। उन्होंने कहा कि इसने बिजली-जैसी इस मूलभूत जरूरत को भी पैसा बनाने की मशीन बना लिया है।

उत्तर प्रदेश में महंगी बिजली खरीदने को तैयार रहें लोग, योगी सरकार निजीकरण पर आमादा, गुपचुप हो रही तैयारी
उत्तर प्रदेश में महंगी बिजली खरीदने को तैयार रहें लोग, योगी सरकार निजीकरण पर आमादा, गुपचुप हो रही तैयारी फोटो: सोशल मीडिया

उत्तर प्रदेश में बिजली की मांग 30,000 मेगावाट रहती है जबकि यहां सिर्फ 5,000 मेगावाट बिजली का उत्पादन होता है। अखिल भारतीय पावर इंजीनियर्स फेडरेशन के अध्यक्ष शैलेन्द्र दुबे का कहना है कि मांग और उत्पादन के बीच इस अंतर को महंगी दरों पर प्राइवेट कंपनियों से बिजली खरीदकर पूरा किया जाता है। इसके लिए वह वैसे अयोग्य नौकरशाहों को दोषी बताते हैं जो राज्य के ऊर्जा क्षेत्र से जुड़े हैं- उनकी करनी ऐसी है कि बिजली कंपनियां राज्य सरकार और यहां के लोगों के बल पर भारी मुनाफा कमा रही हैं। उनका कहना है कि इन सबके पीछे इंजीनियर हैं। वह कहते हैं कि बिजली निगम इस वजह से घाटे में है कि आपूर्ति और वितरण का खर्च अनुमानित तौर पर 7.85 रुपये प्रति यूनिट है जबकि घरेलू दरें 6.60 रुपये प्रति यूनिट हैं।

उत्तर प्रदेश पावर कॉरपोरेशन लिमिटेड (यूपीपीसीएल) ने घाटे में चल रहे पूर्वांचल (वाराणसी) और दक्षिणांचल (आगरा) विद्युत वितरण कंपनियों के निजीकरण का हाल में प्रस्ताव किया है। इसके खिलाफ बिजली कर्मचारियों और संगठनों ने मोर्चा खोल दिया है। नेशनल कोऑर्डिनेशन कमेटी ऑफ इलेक्ट्रिसिटी इम्प्लॉइज एंड इंजीनियर्स (एनसीसीओईईई) की राष्ट्रीय कार्यसमिति की लखनऊ में हुई बैठक में इसके विरोध में राष्ट्रव्यापी विरोध प्रदर्शन करने का फैसला लिया गया है। निजीकरण के विरोध में 13 दिसंबर से 19 दिसंबर तक देश भर में विरोध सभाएं होंगी। इसके अलावा निजीकरण के विरोध में 22 दिसंबर को लखनऊ में और 25 दिसंबर को चंडीगढ़ में विशाल बिजली पंचायत का आयोजन होगा।

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वैसे, मार्च, 2023 में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने राज्य सरकार से विद्युत कर्मचारी संयुक्त संघर्ष समिति के उन 28 पदाधिकारियों के एक महीने का वेतन/पेंशन रोकने को कहा था जिन्होंने इस किस्म के आंदोलन का आह्वान किया था। कोर्ट ने भविष्य में इस तरह का कोई कदम (हड़ताल आदि) उठाने के प्रति सतर्क रहने के बारे में बिजली कर्मचारियों को कहा था। चेतावनी दी थी कि जो ऐसे काम में संलग्न होंगे और 'अगर फिर इस किस्म का कदम उठाया गया, तो कानून के तहत कार्रवाई की जाएगी।' लगता है कि कोर्ट के इस तरह के कदम उठाने से राज्य सरकार को निजीकरण के प्रयास को बढ़ाने का बल मिला है। सरकार ने कर्मचारियों के आंदोलन पर छह माह की रोक लगा दी है और कहा है कि इसके उल्ल्ंघन पर एस्मा (अनिवार्य सेवा अनुरक्षण कानून) के प्रावधानों के तहत कार्रवाई की जा सकती है।

ऐसी ही स्थितियों के कारण सांसद और समाजवादी पार्टी प्रमुख अखिलेश यादव ने व्यंग्यपूर्वक कहा कि अब आगे पानी का निजीकरण भी हो सकता है। एक सोशल मीडिया पोस्ट में उन्होंने लिखा कि 'भाजपा को कर्मचारियों और जनता के गुस्से का भय नहीं है क्योंकि ये चुनाव वोट नहीं बल्कि धोखाधड़ी से जीते गए हैं। जहां जनता सजग रहती है और प्रशासन ईमानदार रहता है, वहां भाजपा हारती है... भाजपा ने न तो उत्पादन बढ़ाया है, न ट्रांसमिशन को मजबूत किया है, न ही सस्ती और अबाधित बिजली की उपलब्धता के लिए बेहतर वितरण किया है।' उन्होंने कहा कि इसने बिजली-जैसी इस मूलभूत जरूरत को भी पैसा बनाने का मशीन बना लिया है।

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निजीकरण करने के इस प्रयास से उत्तेजित कर्मचारियों को आशंका है कि इससे बिजली दरों में बढ़ोतरी होगी, कर्मचारियों की छंटनी की जाएगी और लोगों की अस्थायी ठेकों पर नियुक्ति की जाएगी। दुबे कहते हैं कि कर्मचारी घाटा उठाने वाले और खराब तरीके से काम करने वाले संगठन में भी काम कर सकते हैं लेकिन इन्हीं स्थितियों में सरकार निजी कंपनियों को मौका देना चाहती है। वह कहते हैं कि 'अगर हमारा कामकाज एक साल की अवधि में उनसे बेहतर नहीं होता है, तो हम निजीकरण का विरोध छोड़ देंगे।'

उत्तर प्रदेश पावर ऑफिसर एसोसिएशन के कार्यवाहक अध्यक्ष अवधेश कुमार वर्मा का डर है कि निजीकरण से दलित और पिछड़े वर्ग के कर्मचारियों की आरक्षण व्यवस्था खत्म हो जाएगी। वह कहते हैं कि आगरा और ग्रेटर नोएडा में निजी कंपनियों का अनुभव इस आशंका को पुख्ता करते हैं। दोनों ही जगहों पर निजी कंपनियों ने ठेके पर सेवा शर्तों की अनदेखी की है और वे किसानों को मुफ्त बिजली देने में विफल रही हैं। दोनों ही जगहों पर घरेलू उपभोक्ता ठगे महसूस कर रहे हैं और अनापशनाप बिजली बिल का भुगतान करने को बाध्य हैं. जबकि कंपनियां औद्योगिक और व्यावसायिक उपभोक्ताओं को बिजली की आपूर्ति कर पैसा बना रही हैं। दोनों ही जगहों पर निजी कंपनियों के पास व्यावहारिक तौर पर शिकायत निवारण व्यवस्था नहीं है। कर्मचारी आरोप लगाते हैं कि निजी कंपनियां ग्रामीण इलाकों में बिजली आपूर्ति के वादे का खुला उल्लंघन कर रही हैं।

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अप्रैल 2018 में पांच महानगरों (गाजियाबाद, मेरठ, लखनऊ, वाराणसी और गोरखपुर) और सात जिलों में निजीकरण किया जाना था और इसके लिए निविदाएं भी आमंत्रित कर ली गई थीं। लेकिन जब व्यापक विरोध हुआ, तो सरकार को पैर खींचने पड़े। कोविड के दौरान सितंबर 2020 में पूर्वांचल विद्युत वितरण को बंद करने और निजीकरण करने का फिर प्रस्ताव किया गया। कर्मचारियों के प्रतिरोध के बाद मंत्रियों- सुरेश खन्ना और श्रीकांत शर्मा के नेतृत्व वाली कैबिनेट उपसमिति के साथ लिखित सहमति बनी और सरकार ने भरोसा दिलाया कि कर्मचारियों से बातचीत के बिना कोई निजीकरण नहीं किया जाएगा।

2010 में आगरा शहर में बिजली वितरण व्यवस्था टोरेंट पावर को सौपी गई। शैलेंद्र दुबे बताते हैं कि पावर कॉरपोरेशन का रिकॉर्ड बताता है कि 2023-24 में इसने 4.36 रुपये प्रति यूनिट की दर से टोरेंट को 2,300 मिलियन यूनिट बिजली बेची जबकि निगम ने इसे 5.55 रुपये प्रति यूनिट की दर से खरीदा था। दुबे का कहना है कि ''इससे वित्त वर्ष 2023-24 में पावर कॉरपोरेशन को 275 करोड़ रुपये का नुकसान हुआ।'' वह कहते हैं कि बीते 14 वर्षों में निजीकरण के इस प्रयोग से कुल 2434 करोड़ रुपये का घाटा हुआ है। उन्होंने यह भी कहा कि यदि आगरा की बिजली व्यवस्था पावर कॉरपोरेशन के पास बनी रहती, तो आज वहां से 8 रुपये प्रति यूनिट से अधिक का राजस्व मिलता।

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मीडिया को बिना हस्ताक्षर वाले जारी एक पत्र में सरकार ने दावा किया कि 'विकसित उत्तर प्रदेश' के लिए 'उन्नत सोच' की जरूरत है; कि 'सुधार' की सिर्फ जरूरत है और इसे अधिकतर कर्मचारियों का समर्थन है। इस कथित प्रेस विज्ञप्ति में कहा गया है कि 'निजी कंपनियां' कर्मचारियों की छंटनी न करने के लिए कानूनी तौर पर बाध्य होंगी। प्रस्तावित सुधारों से बिजली निर्माण में बढ़ोतरी तथा अक्षय ऊर्जा का बेहतर उपयोग होगा। पीपीपी मॉडल में निजी कंपनियों को भूमि पर स्वामित्व नहीं दिया जाएगा। भूमि पर स्वामित्व यूपीपीसीएल का ही बना रहेगा। इस बारे में पत्रकारों के सवाल नौकरशाह या मंत्री सुन भी नहीं रहे; कर्मचारी और बिजली उपभोक्ता जिन सवालों को उठा रहे, उस पर उनके दावों-प्रतिदावों पर सवाल उठाने का कहीं कोई अवसर है ही नहीं। सरकार में संभवतः कोई भी ऐसा नहीं है जो ऑन द रिकॉर्ड कुछ कह रहा हो या कहने की स्थिति में हो।

मर्जी सरकार की

लोगों की याददाश्त थोड़ी कमजोर होती है, इसलिए पहले तो याद दिलाना जरूरी है। 2023 में 1 नवंबर को वाराणसी के आईआईटी-बीएचयू की 22 साल की बीटेक विद्यार्थी के साथ गैंगरेप हुआ था जिसे लेकर तब कुछ दिनों के लिए देश भर में हंगामा हुआ था। हालांकि, बीएचयू कैंपस में जिस जगह यह वारदात हुई, सीसीटीवी लगे हुए हैं और इसके फुटेज पुलिस को उपलब्ध कराए गए, अदालत में अभियोजन ने दावा किया कि चूंकि वारदात अंधेरे में हुई, इसके चलते तीन आरोपियों की पहचान मुश्किल रही। वैसे, यह बात पुलिस ने महिला और छात्र संगठनों को बताई थी लेकिन उसने ऐसा अदालत में भी कहा है या नहीं, यह स्पष्ट नहीं है।

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यह भी ध्यान में रखना जरूरी है कि इस मामले के तीन आरोपी- सक्षम पटेल, आनंद चौहान और कुणाल पांडे भाजपा आईटी सेल से जुड़े रहे हैं। अखिल भारतीय जनवादी महिला समिति की नेता मधु गर्ग का आरोप है कि पुलिस ने सियासी दबाव के चलते मामले को कमजोर कर दिया। वाराणसी के वरिष्ठ पत्रकार विजय विनीत ने कहा कि "रेप 'गन प्वाइंट' पर होने का दावा किया गया था लेकिन यह स्पष्ट नहीं है कि वह बंदूक बरामद हुई या नहीं। अगर बरामद हुई, तो वह किस प्रकार की और किसकी थी?" इस वारदात के एक साल से अधिक समय बीत चुके हैं लेकिन अदालत में पीड़िता से जिरह (क्रॉस एक्जामिनेशन) की तिथियां छह बार स्थगित कर दी गईं। अब तो तीनों आरोपियों को जमानत दे दी गई है, स्वाभाविक ही पीड़िता को कैंपस छोड़ देना पड़ा है और वह शिक्षा अधूरी छोड़कर घर चली गई है।

आरोपियों ने मध्य प्रदेश चुनाव में भाजपा का प्रचार किया था और उन लोगों ने प्रधानमंत्री तक के साथ की अपनी फोटो सोशल मीडिया पर पोस्ट की थीं, इस कारण समझा जा सकता है कि उनके दबदबे से कोई भी डरेगा ही। लखनऊ विश्वविद्यालय की पूर्व कुलपति प्रो. रूप रेखा वर्मा ने इसे "बेहद अफसोसनाक" बताया। उन्होंने कहा कि पूछताछ के दौरान आरोपियों ने कबूल किया था कि उन्होंने पहले भी ऐसी घटनाओं को अंजाम दिया है। इसके बावजूद उन लोगों को जमानत दे दी गई। प्रो. वर्मा ने कहा कि बलात्कार जैसे गंभीर अपराध के आरोपियों को इतनी जल्दी जमानत मिलने से "महिलाओं के मन में भय पैदा होना स्वाभाविक है।" किसी भी किस्म की असहमति प्रकट करने वालों और राजनीतिक विपक्षियों को तो बिना आरोप पत्र दाखिल किए ही जेलों में लंबे समय तक रखा जा रहा है जबकि गैंगरेप के आरोपी इस तरह आराम से जमानत पर बाहर घूम रहे हैं। मधु गर्ग ने कहा भी कि "ऐसी पुलिस जिसने शुरुआत से ही ढिलाई बरती हो, साफ है कि मुकदमे में कैसी पैरवी करेगी।"

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