सवाल नंबर -1 : सर्वसम्मति आखिर है क्या?
सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल सीमा-पार आतंकवाद को लेकर भारत की 'राष्ट्रीय सर्वसम्मति' को पेश करने की कोशिश करेंगे। सर्वसम्मति आखिर है क्या? ऑपरेशन सिंदूर से पहले और बाद में कथित सर्वसम्मति को कायम करने के लिए सरकार ने क्या किया?
सच कहें तो सरकार ने राष्ट्रीय सर्वसम्मति के लिए बहुत कम कोशिश की। विपक्ष बार-बार अनुरोध करता रहा कि संसद का विशेष सत्र बुलाया जाए ताकि हर कोई प्रक्रिया में शामिल हो सके। खुद प्रधामंत्री नरेंद्र मोदी दोनों सर्वदलीय बैठकों में नहीं आए। उनकी अध्यक्षता रक्षामंत्री राजनाथ सिंह ने की। रक्षा मामलों की मंत्रिमंडलीय समिति और सैन्य नेतृत्व के अलावा उन्होंने किसी से भी मशविरे की जरूरत नहीं समझी। इस बैठक का एक वीडियो ही टीवी चैनलों पर बार-बार चलाया जाता रहा।
इसके विपरीत 1962 के चीनी हमले के बाद युद्धकाल में ही संसद का सत्र बुलाया गया था जिसमें प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने विपक्ष के सवालों का जवाब दिया था। 1965 और 1971 में युद्ध के समय न सिर्फ विपक्ष को, बल्कि सरकार ने लेखकों, कवियों, पत्रकारों, फिल्म निर्माताओं और कलाकारों तक को हालात की जानकारी दी। पहलगाम के बाद ऐसा कुछ नहीं किया गया। प्रधानमंत्री ने सर्वदलीय बैठक के बजाय बिहार में चुनाव प्रचार को प्राथमिकता दी। संसद के सत्र की मांग को सीधे तौर पर नजरंदाज कर दिया गया।
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ऑपरेशन सिंदूर के बाद भी प्रधानमंत्री ने अपना मौन नहीं तोड़ा। अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप बार-बार कहते रहे कि युद्धविराम उनकी सरकार की मध्यस्थता की वजह से हुआ है, और भारत पाकिस्तान को राह पर लाने के लिए कारोबार के दबाव का इस्तेमाल किया। लेकिन प्रधानमंत्री ने इसका खंडन करने की जरूरत भी नहीं समझी। ऐसे ही कई और बयान भी थे जो भारत सरकार के लिए परेशानी कारण बने, और उसे जैसे-तैसे अपना मुंह बचाने की कोशिश करनी पड़ी।
ट्रंप के मध्यथता के दावे का खंडन करने के बजाय प्रचार की मशीनें उन्हें ऐसा नायक साबित करने में व्यस्त रहीं जिसने एक नई 'लक्ष्मण रेखा' खींच दी है। स्कूली बस्तों से लेकर रेलवे टिकट तक हर जगह उनकी तस्वीरें छापी जाने लगीं। दुनिया के सामने आप जो राष्ट्रीय सर्वसम्मति पेश कर सकते हैं, उसका यह सबसे अच्छा तरीका नहीं है।
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सवाल नंबर -1 बी: गैर-बीजेपी सदस्यों का मनमाना चुनाव!
यहां तक कि प्रतिनिधिमंडलों में जो गैर-बीजेपी नेता शामिल किए गए, वे भी बीजेपी ने चुने जिसके लिए उनके दलों से भी सलाह नहीं ली गई। इससे सरकार की कौन सी नीयत जाहिर होती है?
राष्ट्रीय दलों से सलाह करने में सरकार का कुछ नहीं जाता। सिर्फ छह ऐसे दल हैं, जिनसे मशविरा करके ये सदस्य चुने जा सकते थे। ऐसे समय में जब विदेश में प्रस्तुत करने के लिए राष्ट्र की एक सर्वसम्मति की जरूरत थी, यह विश्वास हनन ही दर्शाता है। यह बताने की जरूरत भी नहीं समझी गई कि सरकार ने ये नाम कैसे तय किए। इसमें सरकार की मंशा स्पष्ट दिख रही थी और यह पूरी तरह राजनीति से प्रेरित था।
सवाल नंबर - 2: पहलगाम पर अलग-थलग क्यों पड़ा भारत?
इन प्रतिनिधिमंडलों को भेजने की पूरी कवायद क्या यह कहती है कि भारत इस मुद्दे पर राजनयिक तौर पर अलग-थलग पड़ चुका है? पहलगाम के बाद भारत ने जो आक्रामक रुख अपनाया, उस पर सुरक्षा परिषद के पांच स्थायी सदस्य देशों का क्या रुख रहा?
ऑपरेशन सिंदूर यानी पहलगाम के बाद भारत की सैन्य आक्रामकता का समर्थन सिर्फ इजरायल, ताईवान और अफगानिस्तान के तालिबान ने किया। इन तीन के अलावा भारत को अपने परंपरागत सहयोगियों तक से समर्थन नहीं मिला।
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युद्ध विराम से पहले संयम बरतने की बात करते हुए अमेरिका ने भारत और पाकिस्तान में कोई भेद नहीं किया। ट्रंप ने कहा, "दोनों दोस्त हैं, दोनों परमाणु हथियार से संपन्न हैं।" भारत के इस तर्क को सार्वजनिक रूप से महत्व नहीं दिया गया कि पाकिस्तान सीमा पार आतंक फैला रहा है।
सुरक्षा परिषद के बाकी चार स्थायी सदस्य देशों में चीन पूरी तरह मुखर होकर पाकिस्तान के साथ खड़ा था। रूस, फ्रांस और ब्रिटेन ने संयम बरतने और बातचीत से मसला सुलझाने की बात की।
जी-7, जी-20, ब्रिक्स या क्वाड जैसे संगठनों के सदस्य देशों से तो भारत को समर्थन नहीं ही मिला, पड़ोसी देश भी समर्थन में आगे नहीं आए। इसके विपरीत तुर्की पाकिस्तान के साथ खड़ा दिखाई दिया और चार महाद्वीपों में फैले 57 सदस्य देशों वाले इस्लामिक सहयोग संगठन ने यह कहा कि 'इस्लामिक गणराज्य पाकिस्तान के खिलाफ भारत के निराधार आरोप' दक्षिण एशिया क्षेत्र में तनाव बढ़ा रहे हैं। हालात को ठंडा करने के लिए ईरान और सउदी अरब के विदेश मंत्री पहले पाकिस्तान गए और फिर भारत आए।
सुरक्षा परिषद ने लश्कर-ए-तैयबा से निकले संगठन द रजिस्टेंस फ्रंट का जिक्र करने तक से परहेज किया जिसने पहलगाम हमले की जिम्मेदारी ली थी। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष से पाकिस्तान को 2.3 अरब डाॅलर का कर्ज दिए जाने पर भारत का विरोध भी व्यर्थ गया।
भारत ने जोरदार तर्क देते हुए कहा कि पाकिस्तान इस कर्ज का दुरुपयोग कर सकता है। लेकिन मुद्रा कोष के कार्यकारी बोर्ड के 24 अन्य सदस्य देशों के निर्देशकों में किसी ने भी उसका साथ नहीं दिया।
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सवाल नंबर -3 : सरकार क्यों नहीं है सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल का हिस्सा?
क्या भारत का नजरिया पूरी दुनिया को बताने के लिए सरकार को खुद अगुवाई नहीं करनी चाहिए थी? पूरी दुनिया की सैर करने वाले हमारे प्रधानमंत्री और विदेश मंत्रालय इस कवायद का हिस्सा क्यों नहीं बने?
विदेश नीति पूरी तरह से केंद्र सरकार का मामला है। भारत की स्थिति दुनिया के सामने पेश करने की जिम्मेदारी सरकार की थी। मोदी के दौर में विपक्षी दलों ने भी देखा है कि सभी सम्मेलनों में वह खुद ही भारत का प्रतिनिधित्व करते रहे हैं। उन्होंने कई विश्व नेताओं से दोस्ती के सार्वजनिक दावे भी किए हैं। इसलिए उम्मीद थी कि वह खुद ही अगुवाई करते हुए अपने दोस्तों से बात करेंगे और भारत का नजरिया स्पष्ट करेंगे। प्रधानमंत्री ने न सिर्फ अपने 'दोस्त' ट्रंप के मध्यथता के दावे का खंडन नहीं किया बल्कि खंडन का काम अपने छुटभैयों के हवाले छोड़ दिया।
विदेश मंत्रालय ने दूतावासों के प्रतिनिधियों को बुलाकर पहलगाम हमले में पाकिस्तान के शामिल होने के सबूत दिए, लेकिन अमेरिकी मीडिया की रिपोर्ट कहती हैं कि ये सबूत प्रतिनिधियों को प्रभावित करने में नाकाम रहे। धारणा यह भी बनी है कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जनमत बनाने में भारतीय दूतावासों की नाकामी की वजह से ही सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल भेजने की जरूरत पड़ी।
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