विचार

आकार पटेल / बीजेपी यह तो बताए कि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में स्थाई सदस्यता मिलने पर हम करेंगे क्या!

दुनिया जानती है और उसने वैश्विक मुद्दों पर हमारी खामोशियां सुनी हैं और गैरहाजिरी भी देखी है। वह एक पल के लिए भी इस विचार को स्वीकार नहीं करती कि कोई एक देश बाकी देशों से ज़्यादा किसी चीज़ का "हकदार" है।

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आपने आखिरी बार कब भारत और जी-20 के बारे में कब कुछ पढ़ा या देखा था? और उससे आपको क्या याद आता है? मेरी तरह, कई पाठकों के लिए, जवाब शायद यही होगा कि जब कुछ साल पहले भारत जी-20 की अध्यक्षता कर रहा था, और भारत की अध्यक्षता से जुड़े पोस्टर और होर्डिंग्स जगह-जगह लगे थे।

अगर मुझसे पूछा जाए कि उस अध्यक्षता से क्या नतीजे हासिल हुए या हमने जो शुरू किया था, उसके बाद क्या कुछ किया गया, तो मेरे पास कोई जवाब नहीं है क्योंकि आपकी तरह मुझे भी इस बारे में कुछ नहीं पता। जी-20 एक आयोजन भर था, और वह आयोजन अब खत्म हो चुका है।

अभी कुछ दिन पहले, भारत ने एक बार फिर संयुक्त राष्ट्र जाकर इस संस्था में सुधार की मांग उठाई। द्वितीय विश्व युद्ध खत्म होने के ठीक बाद 1945 में और भारत की आज़ादी से दो साल पहले गठित संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में आज भी वही पांच स्थायी सदस्य बने हुए हैं। जब भारत संयुक्त राष्ट्र सुधार शब्द का प्रयोग करता है, तो हमारा तात्पर्य यह होता है कि हम भी सुरक्षा परिषद में एक स्थायी सदस्यता चाहते हैं, जिसमें वीटो का अधिकार होता है।

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हमारे विदेश मंत्री के शब्दों में, "अफ्रीका के साथ हुई ऐतिहासिक नाइंसाफी को खत्म किया जाना चाहिए। सुरक्षा परिषद की स्थायी और अस्थायी, दोनों सदस्यता का विस्तार किया जाना चाहिए। एक सुधारित या विस्तृत परिषद में सही मायनों में देशों का प्रतिनिधित्व होना चाहिए। और, भारत बड़ी ज़िम्मेदारियां संभालने के लिए तैयार है।"

ये बड़ी ज़िम्मेदारियां जिन्हें हम उठाने के लिए तैयार हैं, यही इस लेख का विषय है। महत्वाकांक्षा रखना अच्छी बात है, सवाल यह है कि हम उससे क्या करना चाहते हैं।

बीजेपी के 2024 के चुनावी घोषणापत्र में, 2019 की तरह, इस बारे में एक पंक्ति है: 'हम वैश्विक निर्णय प्रक्रिया में भारत की स्थिति को ऊंचा उठाने के लिए संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यता हासिल करने के लिए प्रतिबद्ध हैं।'

लेकिन यह कैसे सुनिश्चित होगा? इस पर विस्तार से कुछ नहीं बताया गया। भारत सभी पांच स्थायी सदस्यों और महासभा के दो-तिहाई सदस्यों को यह समझाने के लिए क्या कहेगा कि उसे और शक्तियां दी जानी चाहिए? दुनिया में और लोकप्रिय होने का रास्ता क्या होगा? इसका कोई ज़िक्र नहीं।

सिवाय इस विचार के कि भारत को दुनिया से जो कुछ मिल रहा है उससे अधिक पाने का अधिकार है, विदेश नीति के इस पहलू का कोई सीधा और खास मकसद नजर नहीं आता है।

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मान लीजिए हमें सुरक्षा परिषद के स्थाई सदस्य की  सीट मिल गई। तो हम इसके साथ ऐसा क्या करेंगे जो आज हम नहीं कर सकते? इस पर भी कोई स्पष्टता नहीं है। हमारे समय के दो सबसे गंभीर वैश्विक मुद्दों, गाजा और यूक्रेन पर, भारत का योगदान संयुक्त राष्ट्र में महत्वपूर्ण मतदान से दूर रहना रहा है। जब दुनिया को कहने के लिए कुछ नहीं होता, तो वीटो होने या न होने से कोई फर्क नहीं पड़ता।

1990 के बाद से चीन का महाशक्ति के रूप में उत्थान उसकी औद्योगिक नीतियों और आर्थिक विकास के आधार पर हुआ है, न कि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में उसकी सदस्यता के आधार पर।

2014 के घोषणापत्र में बीजेपी ने कहा था कि उससे पहले की यूपीए सरकार की विदेश नीति में ‘स्पष्टता के बजाय, हमने भ्रम देखा है’ और ‘शासनकला के अभाव’ के कारण भारत ‘लड़खड़ाता हुआ दिखाई देता है, जबकि उसे विश्व के साथ विश्वास के साथ जुड़ना चाहिए था’।

इसने कहा था कि मनमोहन सिंह के नेतृत्व में ‘भारत अपने पड़ोसियों के साथ स्थायी मैत्रीपूर्ण और सहयोगात्मक संबंध स्थापित करने में विफल रहा’ और ‘भारत और उसके पड़ोसी देशों के बीच दूरियाँ बढ़ गईं। पार्टी इसमें सुधार कर सार्क को मज़बूत करेगी।‘ लेकिन सच्चाई तो यह है कि नवंबर 2014 के बाद से सार्क की कोई बैठक नहीं हुई है, क्योंकि हमारी इसमें कोई दिलचस्पी नहीं है। उस शिखर सम्मेलन के बाद से अफ़ग़ानिस्तान, बांग्लादेश, मालदीव, नेपाल, पाकिस्तान और श्रीलंका के नेता बदल गए हैं। जबकि भारत में भी वही व्यक्ति सत्ता में है।

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हम अपने पड़ोसियों को भी एक साथ नहीं ला सकते, लेकिन मानते हैं कि अगर संयुक्त राष्ट्र में हमें और ताकत मिले, तो हम दुनिया को बदल सकते हैं। बीजेपी के घोषणापत्रों में कहा गया है कि पार्टी आसियान के साथ जुड़ने के लिए और ज़्यादा काम करेगी, लेकिन हमने 2019 में आसियान के नेतृत्व वाले मुक्त व्यापार समझौते, यानी क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक साझेदारी में शामिल न होने का फ़ैसला किया था।

बीजेपी के घोषणापत्रों में 'वसुधैव कुटुम्बकम' शब्द तो हैं, लेकिन नरसंहार से भाग रहे रोहिंग्याओं को यह बताकर देखिए कि भारत मानवता को एक संयुक्त परिवार मानता है। बांग्लादेशी शरणार्थियों को, या नागरिकता संशोधन अधिनियम से बाहर रखे गए लोगों को यह बताकर देखिए। इन दोनों शब्दों का कोई मूल्य नहीं है और ये सिर्फ़ जुमलों के अलावा कुछ नहीं हैं।

ऐसे में हमें इस सवाल पर आना होगा कि अगर हमारे पास वहां पहुंचने का कोई रास्ता नहीं है और अगर हमें नहीं पता कि हम अपने वीटो का क्या करेंगे, तो हम एक बड़ी भूमिका के लिए क्यों शोर मचा रहे हैं? इसका जवाब हमें वहीं ले जाता है जहां से हमने इस लेख की शुरुआत की थी। यह हमें एक ऐसा मंच देता है जहां हम अपनी अकड़ दिखा सकते हैं और दिखावा कर सकते हैं कि हम दुनिया के नेता और वैश्विक समुदाय के अगुवा हैं।

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यह एक और स्थान है जहां हम दिखावा कर सकते हैं कि हम प्रासंगिक हैं, और अपनी व्यक्तिगत और अत्यंत भौतिक कूटनीति का प्रदर्शन कर सकते हैं। दुनिया यह जानती है। उसने हमें देखा है, हमारी बातें सुनी हैं, हमारी खामोशियां सुनी हैं और हमारी गैरहाजिरी भी देखी है। वह एक पल के लिए भी इस विचार को स्वीकार नहीं करती कि कोई एक देश बाकी देशों से ज़्यादा किसी चीज़ का "हकदार" है।

यही वजह है कि यह अच्छी बात है कि सरकार ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में स्थायी सीट पाने का कोई रास्ता नहीं निकाला है। अगर ऐसा होता, तो ऐसे सवाल उठते जिनके जवाब उसके पास नहीं होते।

(यह लेखक के निजी विचार हैं)

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