जाति जनगणना का वृहद कार्य तेलंगाना राज्य ने पूरा किया। कुछ अन्य राज्यों में भी प्रक्रिया जारी है। रिपोर्ट की बारीकियां आना बाकी हैं। मगर इस प्रक्रिया की निगरानी करते विशेषज्ञों ने यह स्वीकार किया कि बेहद वैज्ञानिक सूक्ष्मता से यह साकार किया गया। तब विश्वास करना होगा कि निष्पक्ष ढंग से जनगणना कराई गई। खासकर तब जबकि विशेषज्ञ समिति में दुनिया के नामी-गिरामी अर्थशास्त्री, सामाजिक चिंतक आदि शामिल रहे। कदाचित इससे पिछड़े वर्ग में होती हलचल को भांपते हुए ही, कभी जाति जनगणना न कराने का ऐलान करते हुक्मरानों को इसकी घोषणा कुछ दिनों पूर्व करनी पड़ी।
आलेख का मकसद इस राजनीतिक रस्साकशी को परखना नहीं है। मगर यह समझने का प्रयास है कि आखिर आने वाले दशक की राजनीति, सामाजिक चिंतन पर इसका क्या असर होगा? इसकी परिणति क्या होगी? इसकी गिनती से बहुत कुछ सामने आएगा। कुछ सालों से 10 फीसद से भी कम आबादी वाले प्रभुत्व संपन्न सामाजिक वर्ग ने आर्थिक रूप से विपन्नता का आधार बताकर आरक्षण की मांग रखी और 10 फीसद प्राप्त भी कर लिया। यह माना गया है कि कुल आरक्षण की सीमा 50 फीसद को लांघ नहीं सकती। जबकि सामाजिक आर्थिक तौर से सदियों का पिछड़ापन और अन्याय सहते वर्ग की आबादी 60 फीसद से ऊपर ही है।
Published: undefined
गिनती केवल आरक्षण का अनुपात ठीक करने का माध्यम भर नहीं है। इसका कहीं ज्यादा गहरा प्रभाव भारत की राजनीति पर होगा। यदि इसके प्रभाव को समझना है, तो थोड़ा विगत में जाकर अन्वेषण करना चाहिए। भूमि सुधार, जमीन के पट्टे बांटना, भूमि की मिल्कियत की अधिकतम सीमा तय करना, हद बंदी 60 के दशक की राजनीति थी। इससे बहुत बड़ा बदलाव आया। उसी दौर में भूदान अभियान भी चला। सरकार ने कानूनी सुधार किए। भूमि और उसका आधिपत्य लघु वर्ग के पास था। उस आधिपत्य की चूलें हिलाई गईं। आज गांव- गांव में सीमांत किसान के पास जो थोड़ी-बहुत जमीन है, वह उसी की देन है। इस प्रक्रिया ने जमींदारी को बहुत हद तक झिंझोड़ा। हालांकि कई राज्यों में यह हो नहीं सका। आज भी जोतदार को भूमि स्वामी के रूप मे स्वीकारा नहीं गया है। फिर भी इस कदम के परिणामस्वरूप हाशिये पर खड़े वर्ग के एक बड़े तबके को भूमि स्वामित्व का हक मिला। 70 का दशक नैसर्गिक संपदा के राष्ट्रीयकरण और बैकिंग व्यवस्था के एकाधिपत्य को मुक्त करने का था। इसका प्रभाव ग्रामीण आर्थिकी पर पड़ा।
उसके बाद सूचना की मालिकी को सूचना के प्रसार तंत्र को फैलाकर तोड़ा गया। सूचना की इस क्रांति ने; संपर्क पर अभिजात्य वर्ग के कब्जे को बहुत हद तक नेस्तानाबूद किया। इन दोनों परिवर्तनकारी पहल की नींव पर जब 73वां, 74वां संविधान संशोधन हुआ, तब सत्ता की भागीदारी जमीनी स्तर पर फैली। सत्ता के गलियारों मे पंचायत के स्तर पर काम करने वाले जनप्रतिनिधियों की पहुंच बढ़ी। यह सनद रहे कि पूर्व के दोनों बदलाव के बिना यह संभव नहीं हो पाता। जमीन की मालिकी, संपदा का सार्वजनीकरण सूचना और संपर्क की विकेन्द्रीकृत दुरत व्यवस्था के बगैर पंचायतों की सत्ता व्यवस्था का कोई औचित्य नहीं रहता। पंचायतों ने ही महिला भागीदारी का नया अध्याय आरंभ किया।
Published: undefined
पंचायतों तक सत्ता हस्तांतरित पूरी तरह से नहीं हुई। लेकिन ग्राम सभा ने अपने हक को पहचाना। तभी जाकर भूमि अधिग्रहण कानून के बहुत पहले बिना ग्राम सभा की सहमति के हुए आवंटन को ग्राम सभा ने दरकिनार करने का माद्दा रखा। अदालत को भी समता बनाम आंध्रप्रदेश के मामले में ग्राम सभा को सर्वोपरि करार देना पड़ा। इस दौर में एक तरफ प्रतिगामी ताकतों द्वारा सांप्रदायिकतावादी भावना का उपयोग करके पुनः कब्जा कायम करने का प्रयास हुआ। मगर दलितों को राजनीतिक तौर पर संगठित करने का काम बामसेफ के माध्यम से शुरू हुआ। मंडल आयोग ने जातिगत गठजोड़ को पुख्ता करने की पहल आरंभ की थी।
इसके बाद 2004 से 2014 का दशक हक आधारित विधेयकों का रहा। हक का ढांचा तैयार किया गया। रोजगार, शिक्षा, सूचना, वनाधिकार, खाद्य सुरक्षा ने कुछ नए बदलाव किए। खासतौर पर मजदूरी की दर में बदलाव आया। हक के इस ढांचे ने जैसे परंपरागत प्रतिगामी ताकतों की किलेबंदी पर सेंध लगानी शुरू की। आधिपत्य को बचाने के लिए बाजार-पूंजी पर एकाधिपत्य जमाने वाले पूंजीपति, मजहबी व्यवस्था के नव प्रशासकीय पदानुक्रम में जुड़े कारिन्दे, राजसत्ता से जुड़े। तमाम प्रसार तंत्र को उन्होंने अपने कब्जे में लिया। आज वही दौर है।
Published: undefined
ऐसे मे गिनती करके जाति की सच्चाई सामने रखना नए दशक की राजनीति का आगाज है। इसकी परिणति स्वरूप दो तथ्य दिखाई पड़ते हैं। पहला यह कि जाति जनगणना हक से आगे बढ़कर "हकदार" को पहचानने जा रही है। हक का ढांचा, पंचायत के जरिये सत्ता हस्तांतरण विषम समाज में एक जाति कुछ हद तक समता लाने में कारगर हो सकती है। हक होने पर भी, उसे पहचानना, मेहरबानी के तौर पर नहीं देखना, हक से लैस होकर नई राजनीतिक-सामाजिक इबारत रचना आसान नहीं। इसलिए "हकदार" के साथ राजनीतिक शिक्षण, चिंतन, संगठन जरूरी है, ताकि हकदार अपने को लाभार्थी समझने की चूक न करें। हकदार को संगठित, सचेत करने से वे हक की तह तक जा सकेंगे। हक ने कई मंच प्रदान किए हैं, ताकि हकदार संगठित हों। एक तरह से सर्किट पूरा कर सकेंगे।
तो जाति जनगणना हक से आगे "हकदार" के साथ संवाद का अवसर देती है। दूसरा तथ्य भी उतना ही दूरगामी है। पंचायत, भूमि सुधार, नैसर्गिक संसाधनों का राष्ट्रीयकरण, सूचना संपर्क क्रांति ने नए वर्ग के लिए राजनीति में जगह बनाई। मगर नए तरह की वैकल्पिक राजनीति का अवसर छूट गया। "हकदार" के साथ संगठित होने पर वह अवसर पुनः संजोया जा सकता है। पूरी राजनीतिक भाषा, राजनीतिक अर्थतंत्र बदला जा सकता है। "हकदार" ज्यादातर कारीगरी, कामगरी कौम से है। हुनरमंद है और उत्पादक-निर्माता है। आज की पूरी राजनीतिक भाषा लाभ-लाभार्थी उपभोक्ता के ईर्दगिर्द है। वह बदलकर उत्पादक-निर्माण की हो सकती है। हक और हकदार का संगठन नई राजनीतिक चेतना हो सकती है। इससे राजनीतिक लोकतंत्र गहराया जा सकता है और नए राजनीतिक संसाधन के बतौर यह देखा जा सकता है।
Published: undefined
इसे मात्र प्रतिनिधित्व तक सीमित नहीं रखा जाए। वरना प्रतिनिधि वही वृहद वातावरण में वैसी ही भाषा बोलने के अभ्यस्त हो जाते हैं। मगर यदि हकदारों को संगठित करें, राजनीतिक चेतना को जगाएं तो पूरी भाषा बदल सकती है। स्थापित सत्ता केन्द्रों को हिलाया जा सकता है। राजनीति की धारा बदल सकती है। देश की दिशा भी उपभोक्तावादी विचार व्यवस्था से हटकर उत्पादन-उत्पादकता निर्माणवादी हो सकती है। तब आज के बाजार-पूंजी के एकाधिपत्य को तकलीफ हो सकती है। मगर यह नए दशक का आगाज होगा।
Published: undefined
Google न्यूज़, नवजीवन फेसबुक पेज और नवजीवन ट्विटर हैंडल पर जुड़ें
प्रिय पाठकों हमारे टेलीग्राम (Telegram) चैनल से जुड़िए और पल-पल की ताज़ा खबरें पाइए, यहां क्लिक करें @navjivanindia
Published: undefined