विचार

युद्धविरामः गाजा में शांति का यह अल्पविराम, इसे स्थायी बनाने वाले कई जरूरी उपाय नहीं किए गए

शांति समझौते का असर होगा कि गाजा में कोई बड़ा एयरस्ट्राइक नहीं होगा, लेकिन फिलिस्तीनियों को कोई वास्तविक अधिकार भी नहीं मिलेगा, उनकी कोई असली घर वापसी नहीं होगी, और भीड़-भाड़ वाले कैंपों की श्रृंखला सामान्य बात होकर रह जाएगी।

युद्धविरामः गाजा में शांति का यह अल्पविराम, इसे स्थायी बनाने वाले कई जरूरी उपाय नहीं किए गए
युद्धविरामः गाजा में शांति का यह अल्पविराम, इसे स्थायी बनाने वाले कई जरूरी उपाय नहीं किए गए फोटोः सोशल मीडिया

अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप का कहना है कि गाजा में युद्ध खत्म हो गया है। ‘मध्य पूर्व में एक नई सुबह लाने की सफलता’ से खुश ट्रंप वापस घर लौट गए हैं। संदेह नहीं कि बंधकों को रिहा कर दिया गया है और गोलाबारी रुक गई है, लेकिन आखिर यह शांति कितनी स्थायी है? दरअसल, गाजा की वास्तविकता बहुत जटिल है। 

सीजफायर और इजरायल का अपनी सेना को थोड़ा पीछे हटा लेना अच्छे शुरुआती कदम हैं, लेकिन यह शांति योजना इजरायल को गाजा के बड़े हिस्से पर कब्जा बनाये रखने की इजाजत देता है, और उसकी सेना कब तक पूरी तरह हट जाएगी, इसकी कोई स्पष्ट समयसीमा नहीं है। 

नेतन्याहू सीजफायर पर मिस्र में आयोजित समारोह में शामिल नहीं हुए। शांति योजना, जैसी भी है, उसमें अंतरराष्ट्रीय कानून या जांचकर्ताओं की कोई बाध्यकारी भूमिका नहीं रखी गई है। इजरायली सेना ने गाजा में कब्जा जमा रखा है और वहां भेजी जाने वाली कोई भी मदद या तेल की आपूर्ति अब भी उन क्रॉसिंग पर निर्भर है जो कभी भी अचानक बंद हो सकती हैं।

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इनकार नहीं कि गाजा के लोगों के लिए कुछ राहत है। गोलाबारी मोटे तौर पर रुक चुकी है, राहत सामग्री की सप्लाई धीरे-धीरे हो रही है, और कई हजार कैदियों की घर वापसी भी हुई है। कुछ परिवारों ने उत्तर की ओर लंबी पैदल यात्रा शुरू कर दी है। यहां शांति जितनी नाजुक है, उससे अधिक भला और क्या ही हो सकता था! इजरायल ने इसे भी कहने से कोई परहेज नहीं किया कि वह सीजफायर समझौते की मानवीय शर्तों को नहीं मानेगा।

यह प्रक्रिया अपने आप में कम जटिल नहीं। मरे हुए बंधकों के अवशेष सौंपने को लेकर भी भ्रम था। बंधकों, हथियारों से जुड़ी सहमति को जमीन पर उतारने की प्रक्रिया की छोटी से छोटी बात पर कोई ऐसा विवाद खड़ा हो सकता है, जो इस नाजुक शांति को खत्म कर दे। दूसरी डरावनी संभावना कभी न खत्म होने वाली वह अनिश्चितता है जिसमें कोई बड़ा एयरस्ट्राइक तो नहीं होगा, लेकिन फिलिस्तीनियों को कोई वास्तविक अधिकार भी नहीं मिलेगा, उनकी कोई असली घर वापसी नहीं होगी, और भीड़-भाड़ वाले कैंपों की श्रृंखला सामान्य बात होकर रह जाएगी।

सीजफायर करार पर दस्तखत होने के अगले ही दिन इजरायली सेना ने गाजा में नौ फिलिस्तीनियों को गोली मार दी। जब ट्रंप एक ‘नए मध्य पूर्व’ की ऐतिहासिक शुरुआत की घोषणा कर रहे थे, तब नेतन्याहू गाजा को ‘हथियार मुक्त’ करने की कसम खा रहे थे और धमकी दे रहे थे कि अगर यह सीधे तरीके से नहीं हुआ, तो इसके लिए उंगली टेढ़ी भी की जाएगी। किसी भी तरह यह शांति की भाषा नहीं; ऐसा लगता है कि- मानो तो मानो, नहीं तो हमने विकल्प तो खुले रखे ही हैं- तर्ज पर धमकी दी जा रही है।

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शांति योजना फिलिस्तीन के बाहर बनी, जिसमें मिस्र, कतर, तुर्की और संयुक्त अरब अमीरात बिचौलियों और निगरानी रखने वालों की भूमिका में रहे। संदेह नहीं, इस तरह के सहयोग के कारण गाजा में संघर्ष रोकने में मदद मिली, लेकिन फिलिस्तीनियों को इसमें नहीं सुना गया कि वे क्या चाहते हैं और शांति प्रक्रिया को व्यवहार में उतारने के दौरान उन पर कौन राज करेगा, गाजा से सैनिक कब और कैसे जाएंगे, आम लोगों की जिंदगी कैसे पटरी पर आएगी और युद्ध जर्जर इलाके में पुनर्निर्माण का काम कैसे होगा।

शांति के लिए काम करने वालों को अपनी ताकत का इस्तेमाल करके सैनिकों की वापसी की एक स्पष्ट समयसीमा तय करनी चाहिए थी, इस वापसी की पुष्टि की व्यवस्था होनी चाहिए थी और खुली क्रॉसिंग और बुनियादी अधिकारों की पक्की सुरक्षा सुनिश्चित करनी चाहिए थी। इसके बिना गाजा का प्रबंधन बाहरी लोग ही करेंगे, जबकि प्रयोग के विफल होने पर स्थानीय लोगों को न केवल इसकी कीमत चुकानी होगी, बल्कि इसका दोष भी उठाना होगा।

इस संघर्ष से कितना नुकसान हुआ है, इसे शब्दों में बयां नहीं किया जा सकता। लाखों लोग मारे गए हैं या घायल हुए हैं। गाजा सिटी और खान यूनिस के पूरे रिहाइश हिस्से पूरी तरह तबाह हो चुके हैं। ज्यादातर हॉस्पिटल काम नहीं कर रहे। स्कूल नेस्तनाबूद हो गए हैं। गाजा पट्टी को रहने के काबिल नहीं छोड़ने वाले इस ‘इलाकाई नरसंहार’ से उबरने में पीढ़ियां लगने वाली हैं। उत्तर की ओर लौट रहे परिवार धूल में मिल चुकी इमारतों वाली ऐसी सड़कों से गुजर रहे हैं, जिन्हें पहचानना उनके लिए मुश्किल हो रहा है।

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इस हकीकत के मद्देनजर बीस-सूत्री योजना सच में अधूरी लगती है। इसमें कहा गया है कि इजरायल गाजा पर कब्जा नहीं करेगा और हमास वहां राज नहीं करेगा। इसमें इलाके की निगरानी के लिए एक अंतरराष्ट्रीय परिषद और रोजाना के कामकाज के लिए फिलिस्तीनी टेक्नोक्रेट्स का प्रावधान है। यह संकेत है कि अगर सुधार होते हैं… अगर सुरक्षा हालात इसकी इजाजत देते हैं… वगैरह-वगैरह, तो इससे फिलिस्तीनी आत्मनिर्णय का रास्ता निकल सकता है। यह पटकथा बड़ी पहचानी-सी है। बिना डेडलाइन वाले रास्ते फैसलों को टालने और जिम्मेदारी से बचने का तरीका हैं। बाहरी लोगों को निर्देशित करने वाली परिषद को संप्रभुता या स्व-शासन नहीं कहा जा सकता, यह एक संदिग्ध ट्रस्टीशिप भर है।

इस शांति समझौते के एक बुरा उदाहरण बनने का गंभीर खतरा है। अगर किसी नरसंहार के बाद ऐसा शांति समझौता होता है, जो इंसाफ का इंतजार करते हुए दुश्मनी खत्म करने पर ध्यान केन्द्रित करे, तो इससे दूसरे यही सीख लेंगे कि ज्यादा ताकत जमीनी हकीकत बदल सकती है और बाद में वहां पुनर्निर्माण के लिए पैसे दुनिया को देने पड़ेंगे। इसे रोकने के लिए योजना में सबूतों की हिफाजत, जांचकर्ताओं को खुली पहुंच, सभी सुरक्षा बलों की सावधानी से स्क्रीनिंग, पीड़ितों के लिए मुआवजा, और दंड मुक्ति के खिलाफ पक्के नियम शामिल होने चाहिए। ये ऐसे मामले नहीं, जिन्हें बाद के लिए छोड़ दिया जाए। दरअसल, ये किसी भी सफल शांति की नींव हैं।

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वैश्विक संस्थाओं की साख भी दांव पर है। यूएन कमीशन और दूसरी यूएन संस्थाओं ने गाजा में जो-कुछ भी जुर्म हुआ है, उसे नरसंहार करार दिया है। आईसीसी ने गिरफ्तारी वारंट जारी किए हैं। अगर समझौता उन बातों को नजरअंदाज करता है या वारंट को बकवास बना देता है, तो इससे इन संस्थाओं की साख तो घटेगी ही, आम लोगों की सुरक्षा के लिए की गई बचाव व्यवस्था को भी नुकसान होगा। जब तक गाजा के शासन के इंतजाम और पुनर्निर्माण के पैसे इन कानूनी मामलों में असली सहयोग से नहीं जोड़े जाते, शांति प्रक्रिया का जाया हो जाना तय है।

इस योजना के प्रवर्तकों का कहना है कि इससे इलाका बदल जाएगा। वे अब्राहम समझौते को बढ़ाने, यहां तक कि ईरान को नई व्यवस्था में शामिल करने की बात करते हैं। वे पुनर्निर्माण के लिए तेजी से फंड जारी करने का भी वादा करते हैं। लेकिन खाड़ी देश तब तक ब्लैंक चेक नहीं लिखेंगे, जब तक इजरायली सैनिकों का गाजा के बड़े हिस्से पर कब्जा है और जब तक क्रॉसिंग और तेल आपूर्ति मनमानी पर निर्भर हैं। सऊदी अरब और दूसरे देश इस बात के पक्के संकेत चाहते हैं कि यह प्रक्रिया एक फिलिस्तीनी देश की ओर ले जाएगी, लेकिन नेतन्याहू ने इसे बार-बार मना किया है।

क्या वहां सैनिकों की वापसी की स्पष्ट समय सीमा वाली व्यवस्था होगी जिसकी पुष्टि भी की जा सके? क्या बफर जोन के रूप में इजरायली फुटप्रिंट की जगह यूएन की देखरेख वाली कोई सुरक्षा व्यवस्था होगी? क्या लोगों और सामान के आने-जाने के लिए क्रॉसिंग बिना किसी मनमानी बंदिश के खुलेंगे? क्या फिलिस्तीनी अपने नेता खुद चुनेंगे और अपना पुनर्निर्माण खाका खुद तैयार करेंगे, या कोई अंतरराष्ट्रीय बोर्ड दूर रहते हुए इसका प्रबंधन करेगा? क्या मदद कुछ समय के लिए आएगी और फिर चेकपॉइंट पर रुक जाया करेगी; या यह नियमित रूप से आती रहेगी? ये असली सवाल हैं और इनके जवाब ही तय करेंगे कि फिलिस्तीनी उम्मीद भरी जिंदगी जीने वाले हैं या फिर वे कब्जे वाले टेंटों में जिंदगी बिताएंगे।

(अशोक स्वेन स्वीडन की उप्सला यूनिवर्सिटी में पीस एंड कॉन्फ्लिक्ट रिसर्च के प्रोफेसर हैं)

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