विचार

सामाजिक जीवन में गहरी हो चुकी साम्प्रदायिकता से लड़ने की आपातकालीन जरूरत

भारत जैसे देश में धर्म के आधार पर इस तरह का खुलेआम भेदभाव नया है। यह नया इसलिए नहीं है कि ऐसा होता नहीं रहा है, यह नया इसलिए है कि इसे इतनी बेशर्मी से दिखाया नहीं जाता रहा है। क्या देश में मुसलमानों का आर्थिक बहिष्कार करने की कोशिश हो रही है?

फोटो: सोशल मीडिया
फोटो: सोशल मीडिया  निजी और सामूहिक स्तर पर जनशिक्षा अभियान चलाने की जरूरत

“प्रिय शोएब, तुम एक मुस्लिम हो और मेरी तुम्हारी कार्य नैतिकता में कोई आस्था नहीं है क्योंकि कुरान में उपभोक्ता सेवा के लिए अलग तौर-तरीके हो सकते हैं, इसलिए मैं अपना काम किसी हिंदू प्रतिनिधि के हवाले करने का आग्रह कर रही हूं।” एयरटेल डीटीएच को लेकर हुई परेशानी के बाद पूजा सिंह नाम की महिला ने ट्वीटर पर एयरटेल के प्रतिनिधि शोएब से इस तरह बात की जब उन्होंने पूजा से संपर्क करना चाहा।

पत्रकार असद अशरफ को दिल्ली के जामिया नगर ले जा रहे ओला कैब ड्राइवर ने बीच रास्ते में इसलिए उतार दिया क्योंकि वह मुस्लिम कॉलोनी में नहीं जाना चाहता था और इस व्यवहार का प्रतिरोध करने पर उसने पत्रकार अशरफ को धमकी भी दे डाली।

पिछले दिनों लखनऊ में अभिषेक मिश्रा नाम के व्यक्ति ने एक ओला कैब को इसलिए रद्द कर दिया था क्योंकि वह किसी मुस्लिम ड्राइवर की कैब में नहीं बैठना चाहता था।

Published: 19 Jun 2018, 3:29 PM IST

यह तीनों घटनाएं मानवीय नहीं है और न ही अपवाद हैं। सोशल मीडिया पर इन तीनों घटनाओं को लेकर ठीक ही लोगों ने अपना गुस्सा जाहिर किया और जो सही था उसे साफ शब्दों में कहा। भारत जैसे देश में धर्म के आधार पर इस तरह का खुलेआम भेदभाव नया है। यह नया इसलिए नहीं है कि ऐसा होता नहीं रहा है, यह नया इसलिए है कि इसे इतनी बेशर्मी से दिखाया नहीं जाता रहा है। क्या देश में मुसलमानों का आर्थिक बहिष्कार करने की कोशिश हो रही है? अगर ऐसा गलत है तो बहुत अच्छा है और अगर सही है तो हम विनाश की ओर जा रहे हैं।

मुस्लिम नागरिकों को हिन्दू मकान मालिकों द्वारा अपना घर देने से मना करने के अनगिनत उदाहरण हैं। गौ-हत्या या किसी और चीज को मुद्दा बनाकर मुसलमानों को निशाना बनाया जाना कुछ साल पहले बड़े पैमाने पर शुरू हुआ था जो हमारे देश में मॉब लिंचिंग की संस्कृति का विकराल रूप ले चुका है। जाति और धर्म के आधार पर समुदायों का दड़बाकरण भारत की एक लंबी सामाजिक प्रक्रिया का हिस्सा रही है और खासतौर पर मुस्लिम समुदाय इसका सबसे ज्यादा शिकार बना है।

देश की साम्प्रदायिक बनाबट को चुनौती देने की हर कोशिश किसी न किसी घोषित या अघोषित समझौते में समाप्त हुई है। इसका मतलब यह नहीं हुआ कि पिछले कुछ दशकों में कोई अच्छी बात हुई ही नहीं है। समझ बढ़ रही थी, सद्भाव बढ़ रहा था, शांति से साथ रहने के फायदे दिखाई दे रहे थे, बड़े शहरों में दीवारें टूट रही थीं। लेकिन अचानक ऐसा लग रहा है कि हम जितना आगे बढ़े थे, उससे कई गुना पीछे जा चुके हैं।

ऐसा कब हुआ, क्यों हुआ? सामाजिक स्तर पर हो रहे इतने बड़े नकारात्मक बदलाव पर उदार सोच रखने वालों की नजर क्यों नहीं पड़ी? क्या हम मुगालते में थे? शायद, हां। लेकिन अब हम और ज्यादा मुगालते में नहीं रह सकते। हमें जल्द से जल्द समाज में निजी और सामूहिक स्तर पर जनशिक्षा अभियानों के जरिये इस समझ से लड़ना होगा और इसे खत्म करना होगा, हो सके तो हमेशा के लिए। सिर्फ यह हमें विनाश से बचा सकता है।

Published: 19 Jun 2018, 3:29 PM IST

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Published: 19 Jun 2018, 3:29 PM IST