विचार

साम्राज्यवादी-तानाशाही का प्रचार: यूक्रेन के बहाने लोकतंत्र की हत्या पर आमादा ट्रम्प-पुतिन, चीन-भारत भी पीछे नहीं

आज अमेरिका हो, रूस हो, चीन हो या फिर भारत, सब जगह सत्ता का व्यावहारिक रूप से एक ही अर्थ है: 'हमारी प्राचीन सभ्यता है आधुनिक मानवाधिकार और लोकतंत्र के नियमों से बड़ी है।'

सांकेतिक फोटो
सांकेतिक फोटो 

जब से अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने यूक्रेन के राष्ट्रपति जेलेंस्कीं को व्हाइट हाउस में अपमानित किया है तब से ही अंतरराष्ट्रीय संबंधों में भूचाल का एहसास होने लगा है। वह इसलिए क्योंकि इस तरह अमेरिका ने रूस को यूक्रेन पर खुले हमलों की छूट दे दी है जिसका अंजाम एक संप्रभु देश के रूप में यूक्रेन की समाप्ति के रूप में हो सकता है।

सवाल है कि ऐतिहासिक तौर पर एक दूसरे से टकराते रहे अमेरिका और रूस आखिर यूक्रेन के मुद्दे पर एक कैसे हो गए? हालांकि इस मामले में पिछले दिनों कुछ दरारें दिखीं जब ट्रंप ने कहा कि वो पुतिन से नाराज़ हैं और जेलेंस्की ने शांति समझौते की शर्तों को फिर से तय करने की मांग की।

दरअसल रूस और अमेरिका की इस एकता का एक बुनियादी कारण फासीवादी प्रवृत्तियों की समानता माना जा सकता है। अमेरिका और रूस दोनों देशों में इस वक्त फासीवादी सत्ताएं काम कर रही है। भले ही चुनाव जीतकर ट्रंप दोबारा सत्ता में आए हैं, लेकिन उनके फैसलों और नीतियों से फासीवादी प्रवृत्तियों की झलक साफ दिखाई पड़ती है। जहां तक रूस की बात है – वहां चुनाव एक ढकोसला भर है। वहां विपक्ष के वही प्रत्याशी चुनाव लड़ सकते हैं जिन्हें पुतिन की इजाज़त देते हैं। कोई और कोशिश करे या लोकप्रिय होने लगे तो या तो उसे जेल हो जाती है या उसकी हत्या।

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इतना ही नहीं रूस में पत्रकारों की हत्या भी आम बात है। आम है कि पुतिन जिससे नाराज़ हो जाते हैं वैसे दर्जनों लोग खिड़कियों से गिर जाते हैं या उन्हें अचानक दिल का दौरा पड़ता है। यह संयोग भर नहीं है कि यूक्रेन पर रूसी हमले से लेकर अब तक ऐसी 67 मौतें हो चुकी हैं।

आज रूस और अमेरिका दोनों ही न सिर्फ यूक्रेन बल्कि पूरे यूरोपियन यूनियन को खत्म करना चाहते हैं। मंशा यूरोप के हर देश में फासीवादी शक्तियों को ही सत्ता में बिठाना है। पुतिन कई बार कह चुके हैं कि उनकी दुश्मनी ‘पश्चिम’ से नहीं, बल्कि उदारवादी लोकतंत्र से है। अमेरिका में ट्रम्प और हंगरी विक्टर ओरबान जैसे लोकतंत्र विरोधी नेताओं के साथ पुतिन के रिश्ते सहजता से बनते हैं।

ऐसा ही कुछ भारत के संदर्भ में भी है। प्रधानमंत्री मोदी जितनी गर्मजोशी के साथ ट्रंप के साथ गले मिलते हैं, उतनी ही गर्माहट वो पुतिन के साथ दिखाते हैं। आखिर इस दोस्ती की वजह क्या है? कारण वही है कि यहां भी रिश्ता फासीवादी प्रवृतियों का है। इसमें इटली की दक्षिणपंथी प्रधानमंत्री जॉर्जिया मेलोनी का नाम भी जोड़ सकते हैं।

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अमेरिका और रूस के बाद तीसरी महाशक्ति चीन में भी तानाशाही निजाम है। इसे क्या महज संयोग कहेंगे कि जिस तरह पुतिन चाहते हैं वैसे ही शी जिनपिंग भी आजीवन चीन पर अपना राज कायम रखना चाहते हैं।

तीनों ही देश मानवाधिकारों और लोकतंत्र का मज़ाक उड़ाते हैं। इस मुहिम में नरेंद्र मोदी भी पीछे नहीं है। ट्रम्प कहते हैं “मेक अमेरिका ग्रेट अगेन” । शी जिनपिंग कहते हैं चीन का एक ही “राष्ट्रीय-नस्लीय सभ्यता” (ज़ोंघुआ मिंज़ू) है जिसे हर अल्पसंख्यक समुदाय को अपनाना होगा। पुतिन कहते हैं रूस एक अखंड “सभ्यता-राष्ट्र” है जिसे यूक्रेन सहित किसी भी पड़ोसी की आज़ाद और संप्रभु राष्ट्र की अस्मिता बर्दाश्त नहीं है। मोदी भारत को हिंदू राष्ट्र और “लोकतंत्र की जननी” कहते हैं।

इन सब का व्यावहारिक रूप से एक ही अर्थ है: हमारी प्राचीन सभ्यता है आधुनिक मानवाधिकार और लोकतंत्र के नियमों से बड़ी है।

ये सारी ताकतें मिलकर अभियान चला रही हैं कि दुनिया में 1945 से पहले वाली व्यवस्था लागू की जाय जहां हर राज्य या सत्ता अपने यहां के अल्पसंख्यकों के साथ मनमानी करता था। बिना किसी क़ानूनी लगाम के अल्पसंख्यकों की नागरिकता ख़त्म की जा सकती थी, जहां हर ताक़तवर देश अपने अपने “स्फीयर ऑफ़ इन्फ्लुएंस” में कमज़ोर देशों पर हमला करके उसकी ज़मीन हड़प सकता था।

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ट्रम्प, पुतिन और ओरबान एलजीबीटी+, अल्पसंख्यकों और न्याय के सवाल पर आंदोलन करने वालों या सरकार की आलोचना करने वालों की नागरिकता को ही छीन रहे हैं। वैसा ही शी जिनपिंग के चीन और मोदी के भारत में हो रहा है। लेकिन भारत के आधिकारिक लेफ्ट का रवैया इन मुद्दों पर दुविधा से भरा है। एक तरफ वो फासीवादी को पूरी खुलकर फासीवाद कहने से हिचक रहा है (सीपीएम की हालिया बहस) तो दूसरी तरफ वह ट्रम्प, पुतिन, नेतन्याहू, शी जिनपिंग, मोदी, मेलोनी, ओरबान द्वारा विश्व व्यवस्था से लोकतंत्र के मूल्यों के सफ़ाए के साझे लक्ष्य को पहचानने से ही इनकार कर रहा है।  

सवाल है कि अंतरराष्ट्रीय फासीवादी-तानाशाही एकता को बिना पहचाने क्या भारत में फासीवाद से कारगर लड़ाई संभव है? अकसर पुतिन और शी जिनपिंग के फासीवाद और साम्राज्यवादी इरादों को अमरेकी साम्राज्यवाद का दुश्मन समझ कर उसके प्रति हमारे यहां नरम रवैया अपनाया जाता है। मोदी के नेतृत्व में चल रही फासीवादी सरकार के विरोध में उपजे आंदोलन को यह रवैया अविश्सनीय और कमजोर करता है। 

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अंतर्राष्ट्रीय प्रतिबंधों के बावजूद मोदी सरकार ने रूस से तेल ख़रीदने का समझौता किया। इसका एकतरफा फायदा भारत की सरकारी तेल कंपनियों को नहीं बल्कि निजी कंपनियों को मिला। लेकिन इस पर भारत के अंदर फासीवाद का विरोध करने वाली ताकतें खामोश हैं। भारत के मज़दूरों को अन्य काम के बहाने रूस ले जाकर पुतिन की सेना ने बंदी बना लिया। उन लोगों को जबरन यूक्रेन युद्ध में झोंका गया। इस पर भी भारत के अंदर फासीवाद का विरोध करने वाले बुद्धिजीवी खामोश हैं।

क्यों? क्या किसी ट्रेड यूनियन ने इस मुद्दे पर प्रदर्शन किया?

अंतर्राष्ट्रीय लोकतंत्र-विरोधी अभियान के लिए यूक्रेन एक टेस्ट केस है। ‘शांति वार्ता’ के नाम पर विश्व समुदाय ने अगर पुतिन के जुर्म पर वैधता की मुहर लगा दी तो पूरी दुनिया में तानाशाहों को लोकतंत्र पर हमला करने के लिये नई शक्ति मिलेगी और छोटे संप्रभु देशों का अस्तित्व ही समाप्त हो जायेगा। ट्रंप अगर यूक्रेन को पुतिन के हाथों में सौंप देना चाहते हैं तो इसके पीछे उनका इरादा यही है कि ग्रीनलैंड और कनाडा पर जब अमेरिका का कब्जा हो तब उन्हें रूस का सहयोग मिले।

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नहीं भूलना चाहिये कि पुतिन ने अखंड रूस के “स्फीयर ऑफ़ इन्फ्लुएंस” में बेलारूस और कज़ाखस्तान को मॉडल स्टेट के रूप में स्थापित कर रखा है। इन दोनों देशों के बनने से लेकर अब तक एक ही तानाशाह ने राज किया है जिसे पुतिन का समर्थन प्राप्त है। उनको हटाने के लिए जनआंदोलन होते हैं तो उसे कुचलने के लिए रूस की सेना आ जाती है।

यूक्रेन के लोगों को अपना  लोकतंत्र बहुत प्रिय है, बेलारूस और कज़ाखस्तान की अवस्था से बचने के लिए कई बार आंदोलन किया है। पुतिन इन आंदोलनों को अमेरिका प्रायोजित "तख्तापलट" कहते हैं ठीक उसी तरह जैसे मोदी यहां किसान आंदोलन को तख्तापलट की विदेशी योजना बताते हैं।

दरअसल 2004 में और फिर 2014 में यूक्रेन के लोग जिस नेता के ख़िलाफ़ आंदोलन कर रहे थे वह विक्टर यानुकोविच थे जिन्होंने 2004 में अपने प्रतिद्वंदी उम्मीदवार को ज़हर देकर हत्या करने की कोशिश की थी। 2014 में सौ से ज़्यादा आंदोलनकारी युवाओं पर गोलियां चलवाकर उनका जनसंहार किया गया।  

हमारे यहां अमेरिकी साम्राज्यवाद का विरोध करते वक्त अक्सर यह भुला दिया जाता है कि सोवियत संघ के पतन के तुरंत बाद 1992-93 से ही रूस ने युद्ध और क़ब्ज़ा करने का सिलसिला शुरू कर दिया, और पुतिन जबसे सत्ता में आए हैं तबसे वे रूस के ज़ारवादी साम्राज्य को फिर से स्थापित करने का ऐलान करते रहे हैं। रूसी साम्राज्यवाद से बचाव की तलाश में कई देश नाटो में शामिल हो गए और नाटो के भय से पुतिन ने इन पर हमला नहीं किया।

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1994 में ही यूक्रेन ने अपने परमाणु हथियार इसी शर्त पर छोड़े थे कि अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, चीन और रूस इस बात की गारंटी करेंगे कि यूक्रेन की संप्रभुता और अखंडता पर कोई हमला नहीं होगा। लेकिन पुतिन तो शुरू से यूक्रेन के अस्तित्व और संप्रभुता को मानने से इंकार करते रहे हैं, और आख़िर उन्होंने 2014 और फिर 2022 में अपनी धमकियों को अंजाम दिया। हालांकि 1994 की शर्तों के आधार पर अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस आदि की जिम्मेदारी है कि वे यूक्रेन की संप्रभुता की रक्षा करें। इस हक को जताने के लिए यूक्रेन को नाटो सदस्यता की ज़रूरत नहीं है। 

अगर शांति स्थापना की प्रक्रिया में यूक्रेन की संप्रभुता और आज़ादी छीन ली जाएगी तो रूसी साम्राज्यवाद का निशाना एस्टोनिया, फिर लातविया, मॉल्डोवा, पोलैंड और स्वीडन पर होगा

भारत के कई प्रगतिशील मित्र लिख रहे हैं कि ट्रम्प भले अमेरिका के भीतर तानाशाह हो - पर दुनिया के लिए शायद उतने बुरे नहीं। एक मित्र ने लिखा कि ज़ेलेंस्की के साथ बत्तमीज़ी ग़लत था पर आख़िर ट्रम्प ने उनसे जो कहा वह सही तो था। तीन मित्रों ने अलग अलग जगह लिखा कि ज़ेलेंस्की क्यों ज़िद कर रहे हैं कि रूस यूक्रेन को “पूरीज़मीन” वापस लौटाए? क्राइमीया वापस लेने की ज़िद तो कम से कम छोड़ें - इससे कम में आख़िर पुतिन क्यों मानेंगे?

कुछ महीनों पहले ट्रम्प के गोदी मीडिया एंकर टकर कार्लसन से इंटरव्यू में पुतिन ने भी यही कहा: " सब कुछ बड़े देशों का खेल है, इसमें छोटे देशों को स्वीकार कर लेना चाहिए की उनका कॉलोनी (उपनिवेश) बनना निश्चित है।” याद करें कि ट्रम्प ने ज़ेलेंस्की से कहा था कि “तुम्हारे पास कोई कार्ड्स (पत्ते) नहीं हैं।

यूक्रेन के पास न्याय है, 'कार्ड्स' नहीं।

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शांति के शर्त के नाम पर अगर यूक्रेन को अपने न्यायपूर्ण हकों की आहुति देनी पड़ी, तो इससे तमाम साम्राज्यवादी, तानाशाही और फ़ासीवादी निज़ाम अपनी जीत समझेंगे। उनका मनोबल बढ़ेगा कि मानवाधिकार का औपचारिक महत्व भी नहीं रहा, उत्पीड़ित देश, अल्पसंख्यक, उत्पीड़ित नस्ल, जाति, जेंडर आदि के पास कोई “कार्ड्स” नहीं हैं तो उनके साथ अमानवीय बर्ताव करने की हमें इजाज़त है।

आजकल जॉन मीयरशेमर और जेफरी साक्स (जो वास्तविकतावाद के नाम पर लोकतंत्र का विरोध करते हैं) भारत में वामपंथी प्रगतिशील लोगों के लिए गुरु बन गए हैं जिनसे यूक्रेन पर दीक्षा ली जा रही है। ये दोनों कह रहे हैं कि यूक्रेन अपनी आज़ादी, लोकतंत्र और क़ानूनी संप्रभुता बेच कर पुतिन से शांति ख़रीद लें। उसी तरह जैसे हमारे यहां कहा जाता है कि बाबरी मस्जिद ढहाने वालों से शांति के लिए उसकी जगह राम मंदिर बना दिया गया, तो ये कोई बहुत बड़ी क़ीमत तो नहीं है। आख़िर जज साहब को भगवान राम जी ने ख़ुद सहमति दे दिया था।

मीयरशाइमर ने 2022 में यूक्रेन पर हमले के ठीक एक हफ़्ते बाद एक साक्षात्कारकर्ता को बताया कि पुतिन "कीव में एक रूस- समर्थक सरकार स्थापित करना चाहते हैं, एक ऐसी सरकार जो मॉस्को के हितों के अनुरूप हो...वह शासन परिवर्तन के उद्देश्य से कीव को लेने में रुचि रखते हैं।" उन्होंने कहा, यूक्रेन जो एक उदार लोकतंत्र था, "रूसी दृष्टिकोण से...एक अस्तित्वगत ख़तरा था।"

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लेकिन क्या यह साम्राज्यवाद नहीं होगा ? साक्षात्कारकर्ता ने पूछा. यूक्रेनियनों को यह बताना कि वे उदार लोकतंत्र होने का निर्णय नहीं ले सकते? उन्होंने कहा कि बहुध्रुवीय दुनिया का यही सच है कि इसमें में छोटी शक्तियों के लिए लोकतंत्र व्यावहारिक नहीं है, "एक आदर्श दुनिया का ख़्वाब अच्छा है जिसमें यूक्रेनियन अपनी राजनीतिक प्रणाली चुनने और अपनी विदेश नीति चुनने के लिए स्वतंत्र हों। लेकिन वास्तविक दुनिया में यह व्यावहारिक नहीं है।" 

मेरे वामपंथी और प्रगतिशील मित्रों से सवाल है कि आपने इन वास्तविकतावादियों को कैसे और कब अपना लिया? क्योंकि अगर यही वास्तविकतावाद ही पैमाना है तो इसकी नज़र में फ़िलिस्तीन की आज़ादी का साथ देना बेकार है क्योंकि वह "व्यावहारिक" नहीं है। 

जिन्हें लोकतंत्र और मानवाधिकार के समान मानक, और अंतरराष्ट्रीय क़ानून, ही व्यावहारिक नहीं लगते, उन्हें समाजवाद तो क्या वामपंथ का अस्तित्व ही अव्यावहारिक लगता है। उनके हिसाब से सिर्फ़ सांस्कृतिक या सभ्यतावादी राष्ट्रवाद पर टिके बड़े देश ही व्यावहारिक हैं। 

यूक्रेन के लोग अपने देश और अपने लोकतंत्र के लिए लड़ रहे हैं; बिना न्याय और लोकतंत्र की 'शांति' उन्हें मंज़ूर नहीं है।

शांति की पहला शर्त है कि हमलावर - यानी पुतिन - हमला रोकें और यूक्रेन की जो ज़मीन उन्होंने हड़प ली है, वहां से अपनी सेना हटाएं।  अगर हम भारत में लोकतंत्र की लड़ाई को अव्यावहारिक नहीं मानते, मोदी के तीन-तीन बार चुनाव जीतने के बाद भी अल्पसंख्यकों से नहीं कहते कि इतने लोकप्रिय नेता से समझौता करना ही व्यावहारिक रहेगा, तो यूक्रेनियन से हथियार डाल देने और पुतिन के साथ अन्यायपूर्ण समझौता कर लेने को कैसे कह सकते हैं?

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