युद्ध, तनाव और हथियारों की होड़ ऐसे दौर में बढ़ रहे हैं जब अति गंभीर पर्यावरण समस्याओं के कारण धरती की जीवनदायिनी क्षमताएं ही खतरे में पड़ चुकी हैं। समय रहते विश्व पर्यावरणीय स्थिति को संभालना धरती के जीवन की रक्षा के लिए जरूरी है और यह जिम्मेदारी निभाने के लिए जिस अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग की जरूरत है वह अमन-शांति की स्थापना के बिना प्राप्त नहीं हो सकता है।
स्टाॅकहोम रेसिलियंस सेंटर के वैज्ञानिकों के अनुसंधान ने हाल के समय में धरती के सबसे बड़े संकटों की ओर ध्यान केंद्रित करने का प्रयास किया है। यह अनुसंधान बहुत चर्चित रहा है। इस अनुसंधान में धरती पर जीवन की सुरक्षा के लिए नौ विशिष्ट सीमा-रेखाओं की पहचान की गई है जिनका अतिक्रमण मनुष्य की क्रियाओं को नहीं करना चाहिए। गहरी चिंता की बात है कि इन नौ में से तीन सीमाओं का अतिक्रमण होना आरंभ हो चुका है। यह तीन सीमाएं है- जलवायु बदलाव, जैव-विविधता का ह्रास और भूमंडलीय नाईट्रोजन चक्र में बदलाव।
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इसके अतिरिक्त चार अन्य सीमाएं ऐसी हैं जिनका अतिक्रमण होने की संभावना निकट भविष्य में है। यह चार क्षेत्र हैं- भूमंडलीय फासफोरस चक्र, भूमंडलीय जल उपयोग, समुद्रों का अम्लीकरण और भूमंडलीय स्तर पर भूमि उपयोग में बदलाव। यह विभिन्न संकट अनेक स्तरों पर एक दूसरे से मिले हुए हैं और एक सीमा (जिसे प्रायः टिपिंग पाईंट कहा जा रहा है) पार करने पर धरती की जीवनदायिनी क्षमता की इतनी क्षति हो सकती है कि उसे लौटा पाना कठिन होगा।
इन पर्यावरणीय समस्याओं के अतिरिक्त धरती की जीवनदायिनी क्षमता को सबसे बड़ा खतरा महाविनाशक हथियारों विशेषकर परमाणु हथियारों से है। इस समय विश्व में लगभग 13000 परमाणु हथियार हैं। मानवीय विकास रिपोर्ट के अनुसार, इस समय केवल अणु हथियारों के भंडार की विनाशक शक्ति बीसवीं शताब्दी के तीन सबसे बड़े युद्धों के कुल विस्फोटकों की शक्ति से सात सौ गुणा अधिक है।
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दरअसल हजारों की बात तो रहने दें, यदि कुछ सौ परमाणु हथियारों का भी उपयोग कभी हो गया तो करोड़ों लोग तो तुरंत मारे जाएंगे और करोड़ों अन्य लोग तिल-तिल कर बाद में मरते रहेंगे। इसके बाद दूर-दूर तक ऐसे पर्यावरणीय और मौसमी बदलाव आएंगे जिनमें अधिकांश बचे हुए मनुष्यों और जीवों के लिए भी अस्तित्व बचाए रखना लगभग असंभव होगा।
प्रायः यह कहा जाता है कि किसी भी चीज को बनाना कठिन है, नष्ट करना आसान है पर परमाणु हथियारों पर यह कहावत कतई लागू नहीं होती है। इन्हें बनाना जितना कठिन है, इन्हें असरदार ढंग से नष्ट करना कई बार उससे भी कठिन और महंगा सिद्ध हो सकता है।
वर्ष 1987, 1991 और 1993 में संयुक्त राज्य अमेरिका और सोवियत संघ (या रूस) के बीच तीन महत्वपूर्ण समझौते अणु शस्त्रों और अन्य शस्त्रों को कम करने के बारे में हुए जिनका व्यापक स्तर पर स्वागत किया गया और जिनसे अनेक लोगों में यह विश्वास उत्पन्न हुआ कि अब काफी बड़े पैमाने पर अणु शस्त्र इन दोनों देशों में नष्ट किये जा रहे हैं।
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लेकिन वास्तविक स्थिति को स्पष्ट करने हुए मानवीय विकास रिपोर्ट 1994 ने यह जानकारी दी, “इन संधियों से तनाव कम तो हुआ है पर इनकी महत्त्वपूर्ण सीमाएं हैं। इनमें बताया गया है कि कुछ हथियारों या वारहैडों को इन्हें शत्रु तक पहुंचाने वाले वाहकों या प्रक्षेपास्त्रों से अलग कर दिया जाए, पर इनमें यह निर्देश नहीं दिया गया है कि वारहैड को ही नष्ट कर दिया जाए।”
आगे यह रिपोर्ट और भी सटीक शब्दों में बताती है- “न तो संयुक्त राज्य अमेरिका के पास और न ही रूस के पास एक तकनीकी और राजनीतिक दृष्टि से मान्य योजना है जिसके तहत वारहैडों के विभिन्न हिस्सों को अलग किया जाए और नाभिकीय हिस्सों को नष्ट किया जाए, अतः यह वारहैड आने वाली पीढ़ियों के लिए एक खतरा बने रहेंगे, यही संभावना है।”
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परमाणु हथियारों के संदर्भ में पिछले लगभग पांच वर्षों में विश्व में स्थिति और विकट हुई है। परमाणु हथियारों के और आधुनिकीकरण और मजबूती के लिए संयुक्त राज्य अमेरिका ने निवेश को बहुत बढ़ाया और इसके बाद रुस और चीन ने भी ऐसा ही किया। इसके अतिरिक्त अमेरिका और रूस के बीच परमाणु हथियारों पर नियंत्रण के जो समझौते हुए हैं, उनमें से एक महत्त्वपूर्ण समझौते का नवीनीकरण वर्ष 2019 में नहीं हो सका और कुछ अन्य समझौतों के नवीनीकरण की संभावना भी धूमिल होती जा रही हैं।
बढ़ते युद्ध और तनाव के हाल के दौर में पर्यावरणीय समस्याओं के समाधान और निशस्त्रीकरण की संभावनाएं पीछे हटती गई हैं। अब समय आ गया है कि विश्व शांति और पर्यावरण रक्षा की बड़ी जिम्मेदारियों को एक साथ जोड़ते हुए, समता और न्याय के लिए प्रतिबद्धता को बढ़ाते हुए, एक बड़ा जन अभियान विश्व स्तर पर धरती की जीवनदायिनी क्षमता की रक्षा के लिए आंरभ हो।
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