विचार

व्यंग्य: नवाब साहब का रंगबाजी और कस्बों मुहल्लों के नाम बदलने का शौक...

बड़े मियां बोले, “बच्चा, पीछे का सारा इतिहास गलत लिखा गया है। जो मैं बता रहा हूं, उसको ही असली समझो। वैसे भी धर्म, आस्था और इतिहास के मामले में तर्क नहीं करना चाहिए। यह ‘आंखों देखी’ को सच मानने की जगह पर ‘कानों सुनी’ बातों को सच मानने का दौर है।”

फोटो : सोशल मीडिया
फोटो : सोशल मीडिया 

‘दुनिया रंग-बिरंगी बाबा, दुनिया रंग-बिरंगी...’ बड़े मियां यह गीत अपनी फुल मस्ती में गाते हुए चले जा रहे थे। मैंने उन्हें टोकते हुए कहा, “चचा, अब यह वाला गाना भूल जाइए और गाइए- यह दुनिया एकरंगी बाबा, यह दुनिया एकरंगी।”

बड़े मियां मुस्कुराते हुए बोले, बच्चा, तुम जो कहना चाह रहे हो, वह मैं बखूबी समझ रहा हूं। लेकिन इस एकरंगी वाली बात पर एक किस्सा याद आ गया। पहले वह सुनो। यह लखनऊ के कैसरबाग इलाके के बनने की कहानी है। अवध के आखिरी वाले नवाब साहब को हवाखोरी का बेहद शौक था। तमाम ऐशो आराम के बावजूद अपने परी महल में उनका जी नहीं लगता था और वह हर शाम अपनी रियाया का हालचाल जानने के बहाने से उन्हें अपनी शक्ल दिखलाने निकल ही लिया करते थे। उनको आत्मप्रचार की लत थी। क्या ही करते बेचारे? उस जमाने में इतने सारे समाचार चैनल और कैमरे तो होते नहीं थे कि जनाब की हवाखोरी की नॉनस्टॉप न्यूज चलती और उनकी महफिलों में हुजूर के दर्शनों के लिए अवध के गांव-देहात से इक्कों-तांगों में भर कर लोगों को लाया जाता।

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तो वाकया कुछ यूं गुजरा कि एक शाम जब नवाब साहब अपनी शाही पालकी में सवार होकर निकले तो उन्होंने देखा कि एक मैदान में ढेर सारे ऊंट बंधे हुए हैं और वहां पर व्यापारियों का एक जत्था बैठा हुआ है। उस मैदान में केसर के ऊंचे-ऊंचे ढेर लगे हुए थे। हफ्तों बीते। महीने गुजर गए। नवाब साहब की शाही सवारी उधर से गुजरती और वह रोज ही यह नजारा देखते। उन्हें कोफ्त होने लग गई थी, “क्या हमारी रियाया इतनी कमजर्फ हो गई है कि वह इन तिजारतियों का माल नहीं खरीद रही है? ऐसे तो पूरे मुल्क में हमारी सल्तनत की बदनामी हो जाएगी। हमें तो महंगे से महंगे दामों पर चीजें खरीदनी चाहिए। इससे अवध की शान में चार चांद लगेंगे।” नवाब ने अपने वजीर से कहा।

वजीर बोला, “गुस्ताखी माफ हो जनाबे आली, तो अर्ज करना चाहूंगा कि ये लोग केसर के व्यापारी हैं। आपका इकबाल सुनकर कश्मीर से आए हैं और ऊंटों पर केसर लाद कर लाए हैं। इनका कहना है कि अवध के लोग खाने-पीने के शौकीन हैं, तो उनका केसर यहां पर जरूर ही खप जाएगा।”

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नवाब ने पूछा, “फिर दिक्कत क्या है? इनका केसर बिक क्यों नहीं रहा है?”

“हुजूर, बिकता तो है, लेकिन छंटाक-दो छंटाक। लोग भला सेर-दस सेर केसर खरीद कर क्या उसके घोल में पकौड़े तलेंगें?” वजीर ने जवाब दिया।

“आपकी यह बात भी वाजिब है। लेकिन न जाने क्यों, हमारे अंदर इन कश्मीरी सौदागरों के लिए बेपनाह मुहब्बत हिलोरें लेने लग गई है। वैसे भी, तिजारत करने वालों के लिए हमारे दिल में एक खास जगह है। हम तो यह भी चाहते हैं कि हमारा पूरा अवध बेचने-खरीदने का काम करे। खैर, आप एक काम करें। शाही खजाने से एकमुश्त रकम देकर यह सारी केसर खरीद लें।”

“हुजूर, गोया हम आपके मन की बात समझ रहे हैं, मगर शाही खजाने से इतनी महंगी केसर खरीद कर हम क्या करेंगे? अपने शाही खजाने के हालात पहले से ही पतले चल रहे हैं।”

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नवाब ने गुस्साते हुए कहा, “आपको किस नामाकूल ने वजीर बना दिया? क्या आपको इतना भी नहीं मालूम कि शाही खजाना होता किस लिए है? यह नवाबों के शौक पूरे करने के लिए हुआ करता है। आप ही कहिए, जब हम शिकार करने जाते हैं, तो उसका सारा खर्च कहां से आता है? जब हम अपने खास दरबारियों और बेगमात के लिए महल बनवाते हैं, तो उसका पैसा कहां से निकाला जाता है? जब हम सैर-सपाटे और प्रचार के लिए दूसरी रियासतों में जाया करते हैं, तब खर्च की अशर्फियां कहां से आती हैं?”

“इसी अपने शाही खजाने से हुजूर! आपकी चार बार बदली जाने वाली शाही अचकन का खर्चा भी इसी खजाने के दम से कायम है।”

“तो आपने हमारे हुक्म की बेअदबी करने की हिमाकत क्या सोच कर की? हम जैसा कह रहे हैं, उसकी फौरन तामील हो।”

इसके बाद केसर के वे सारे ढेर एक बिचौलिये की मार्फत दोगुने दाम पर खरीद लिए गए। उस बिचौलिया व्यापारी ने वजीर साहब के यहां उनका हिस्सा पूरी ईमानदारी के साथ तोहफे के तौर पर पहुंचा दिया।

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इस बात को कई रोज बीत चुके थे। एक दिन वजीर ने भरे दरबार में नवाब साहब को याद दिलाते हुए अर्ज किया, “हुजूर, वह केसर के टीले जो आपने खरीदवाए थे, उनका क्या करें? हमारी रियासत में कोई इतना बड़ा गोदाम भी नहीं है कि उसमें ही रखवा दें। सुना है, एक ताल्लुकेदार ने अपने कई नए गोदाम बनवाए हैं। वे खाली भी पड़े हुए हैं। कहिए, तो उनको परवाना भेज दें।”

“वे सारे गोदाम मुझसे ही पूछकर बनवाए गए हैं। उनका क्या इस्तेमाल होना है, यह मेरे और ताल्लुकेदार साहब के बीच की बात है। आप तो ऐसा करिए कि जिस मैदान में वह केसर पड़ा हुआ है, उसके आसपास की सारी बस्ती को केसरिया रंग से पुतवा डालिए।”

नवाब के हुक्म की तामील कर दी गई। पुतैये लगा दिए गए और पूरे इलाके के मकानात केसरिया रंग से पोते जाने लग गए। नवाब साहब की सल्तनत में भांड-गवैये तो पहले से ही खुश थे, बेरोजगार पुतैयों को भी तथाकथित रोजगार हासिल हो गया। कुछ लोगों ने एतराज किया कि हम अपने मकानों के रंग लाल, पीले, हरे, नीले रखना चाहते हैं। उन लोगों से कहा गया कि आप लोगों से पूछ कौन रहा है? नवाब साहब का हुक्म है। सारे मकान एक रंग के रहेंगे। इन लाल, हरे, नीले, पीले रंगों से नवाब साहब को चिढ़ है। हो सकता है कि कल वे यह भी हुक्म दे दें कि अब सारे फूल केसरिया रंग में ही खिला करेंगे। नवाब साहब ने एक नया नारा भी दिया है, ‘एक सल्तनत-एक रंग’। आप सभी की इसी में भलाई है कि फिलहाल वक्त की नजाकत को समझिए और चुप रहिए, नहीं तो नवाब सलामत आपकी तिजोरियों पर छापे भी डलवा सकते हैं।

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कुछ बहादुर लोग मुखालफत करते रहे। जो डर गए, उनके घरों के रंग बदल दिए गए। रंग के साथ उस इलाके का नाम भी बदलकर कैसरबाग रख दिया गया। नवाब को नाम बदलने में मजा आता था। वह और मुहल्लों के नाम बदलने की सोचने लग गया।

किस्सा सुनाने के बाद बड़े मियां ने मुझसे कहा, “कहो, तुम्हें यह कहानी कैसी लगी?”

मैंने कहा, “चचा, मुझे इतिहास का उतना ही ज्ञान है, जितना मुझे वाट्सएप से प्राप्त हो जाया करता है। वैसे, मैंने सुना था कि नवाब वाजिद अलीशाह का एक नाम कैसर भी था। इसलिए यह भी तो हो सकता है कि कैसरबाग का नामकरण उनके नाम पर हुआ होगा। केसर वाली बात मनगढंत भी तो हो सकती है।”

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बड़े मियां अपनी त्योरियां चढ़ाते हुए बोले, “बच्चा, पीछे का सारा इतिहास गलत लिखा गया है। जो मैं बता रहा हूं, उसको ही असली समझो। वैसे भी धर्म, आस्था और इतिहास के मामले में तर्क नहीं करना चाहिए। यह ‘आंखों देखी’ को सच मानने की जगह पर ‘कानों सुनी’ बातों को सच मानने का दौर है।”

इसके बाद बड़े मियां यह गीत गाते हुए चल दिए, ‘रंगीला रे, तेरे रंग में यूं रंगा है मेरा मन। छलिया रे, किसी जल से न बुझे है ये जलन।’ मैं अपना बदरंग चेहरा लिए सड़क किनारे लगे हुए सियासत के रंगीन विज्ञापन देखने में मशगूल हो गया।

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