विचार

आकार पटेल का लेख: मानव समाज के लिए कितने अर्थपूर्ण और प्रभावी होंगे अंतरिक्ष कार्यक्रम!

इस दशक के अंत तक, हमें इस बात का अच्छा अंदाजा हो जाएगा कि कौन से देश और कौन सी कंपनियां इस नई अंतरिक्ष दौड़ में जीत हासिल कर रही हैं, और न केवल विज्ञान और प्रौद्योगिकी के लिए बल्कि समग्र रूप से मनुष्यों के भविष्य के लिए इसका क्या मतलब है।

मानव समाज के लिए कितने अर्थपूर्ण और प्रभावी होंगे अंतरिक्ष कार्यक्रम!
मानव समाज के लिए कितने अर्थपूर्ण और प्रभावी होंगे अंतरिक्ष कार्यक्रम! फोटोः @isro

अंतरिक्ष कार्यक्रमों को लेकर 1957 और 1969 के बीच के वर्षों में अमेरिका और रूस के बीच खूब होड़ थी। शुरुआत में रूसी इस मोर्चे पर लगभग हर मामले में आगे रहेष अंतरिक्ष की कक्षा में 1957 में पहला सैटेलाइट (उपग्रह स्पूतनिक) वाला रूस ही था, इसके बाद किसी जीव को (लाइका नाम की एक फीमेल डॉग) अंतरिक्ष में इसी ने भेजा, और किसी मानव को (1961 में यूरी गाग्रिन) अंतरिक्ष में भेजने वाला रूस ही था। इसी तरह अंतरिक्ष में पहली स्पेस वॉक यानी कक्षा में रहते हुए ही अंतरिक्ष यान से बाहर निकलकर 1965 में चहलकदमी करने वाला पहला व्यक्ति भी रूस अलेक्से लियोनोव ही था।

इसके बाद अमेरिका ने बाजी मारी, जब उसने 1969 में चंद्रमा पर मानव को उतारने में कामयाबी हासिल की। अमेरिका ऐसा करने वाला एकमात्र राष्ट्र है और उसने आखिरी बार 1972 में ऐसा किया था। इस दौरान सोवियत संघ ने एक बड़ा रॉकेट विकसित करने की कोशिश की,लेकिन नाकाम रहा और इस तरह अंतरिक्ष कार्यक्रमों की इन दोनों देशों के बीच की दौड़ 1970 के दशक की शुरुआत में समाप्त हो गई। इसके बाद के 50 वर्षों में मानव को चंद्रमा पर उतारने में कोई रुचि नहीं रही क्योंकि इसकी लागत बहुत अधिक है और अमेरिकी जनता की भी रुचि इसमें खत्म हो गई।

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अपने अंतरिक्ष यात्रियों को अंतरिक्ष की कक्षा और अंतरराष्ट्रीय स्पेस स्टेशन भेजने के लिए अमेरिका ने स्पेस शटल कार्यक्रम अपनाया जो एक कम लागत और कई बार इस्तेमाल होने वाला कार्यक्रम था। हालांकि इस दौरान दो बड़ी दुर्घटनाएं भी हुईं। एक 1980 के दशक में और दूसरी 2000 के दशक में जिसमें भारतीय मूल की कल्पना चावला की मृत्यु हुई थी। और, उम्मीद के खिलाप इस महंगी लागत वाले कार्यक्रम को एक दशक पहले बंद कर दिया गया। इसके बाद अमेरिका के पास मानवों को अंतरिक्ष कक्षा में भेजने की क्षमता नहीं रही। इसे 2020 में एक निजी फर्म ने वापस शुरु किया।

रूसी अभी भी उसी तकनीक के आधार पर रॉकेट उड़ाते हैं जिसे 1960 के दशक में इस्तेमाल किया गया था, हां इसमें कुछ संशोधन किए गए हैं। इसके अलावा अंतरिक्ष दौड़ की अधिकांश तकनीक 90 साल पहले के नाजी जर्मनी के सैन्य रॉकेट कार्यक्रम से आई थी। दो मोर्चों पर पकड़े गए वैज्ञानिकों को अमेरिकियों और रूसियों ने इस्तेमाल किया था।

अंतरिक्ष नवाचार इतने दशकों तक स्थिर रहने का एक कारण यह है कि इसे उन सरकारों द्वारा वित्त पोषित किया गया था जो राष्ट्रवादी परियोजनाओं पर बड़ी रकम खर्च कर रही थीं। आज भी अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा का बजट 25 अरब डॉलर है। हमारे अपने इसरो का बजट लगभग 1.5 अरब डॉलर है, जो दशकों में इसकी उपलब्धियों को काफी उल्लेखनीय बनाता है।

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यह सब लगभग 15 साल पहले बदल गया, जब यह साफ हो गया कि उपग्रह संचार, जीपीएस और इंटरनेट अर्थव्यवस्था में बहुत बड़े कारक बनने जा रहे हैं। निजी कंपनियों ने पहले उपग्रहों और फिर रॉकेट बनाने वाली तकनीक विकसित करने में रुचि लेनी शुरू की। इस क्षेत्र में यह दूसरी पारी अमेरिकी सरकार द्वारा अंतरिक्ष स्टार्ट-अप को वित्त पोषित (उन्हें पैसा देने) करने और उन्हें रॉकेट प्रौद्योगिकी विकसित करने की शर्तों के तहत अनुमति देने के बाद हुई।

चूँकि रॉकेट मिसाइलों से अलग नहीं हैं, इसलिए उनके विकास और निर्माण को कड़ाई से नियंत्रित किया जाता है। उदाहरण के लिए, केवल अमेरिकी नागरिक ही इन फर्मों में काम कर सकते हैं। यह उनके द्वारा ग्रहण की जा सकने वाली प्रतिभा की मात्रा को सीमित करता है, लेकिन यह एक तरीका है जिससे सरकार यह सुनिश्चित कर सकती है कि प्रौद्योगिकी उन लोगों तक न पहुंचे जिन्हें वह गलत हाथों में मानती है।

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इन प्रतिबंधों के बावजूद निजी क्षेत्र ने अंतरिक्ष क्षेत्र में नई जान फूंक दी है। एक निजी रॉकेट पर कक्षा में पहले मानव को भेजने के लिए दो कंपनियों के बीच अमेरिकी सरकार के वित्त पोषण वाली के बाद एक और, लेकिन बहुत छोटी, अंतरिक्ष होड़ शुरू हुई। एक बड़ी कंपनी बोईंग को उसके मुकाबले एक बहुत ही नई और छोटी कंपनी स्पेस-एक्स ने पछाड़ दिया, हालांकि इसे एक स्टार्टअप के तौर पर ज्यादा फंडिंग मिली थी।

आज रॉकेट ऐसे हैं जिन्हें दोबारा इस्तेमाल किया जा सकता है और कम से कम दो फर्में विशाल रॉकेट बना रही हैं जो 50 साल पहले हुआ करते थे। लक्ष्या दोहरा है। पहला तो यह कि जगह और अंतरिक्ष की कक्षा में स्थापित करने में लगने वाली लागत कम की जाए। दूसरा है मानवों के लिए अंतरिक्ष उड़ान कार्यक्रम शुरु कर मंगल पर कॉलोनी बसाने की कोशिशें हो रही हैं।

कल्पना कीजिए कि क्या होगा जब किसी अन्य ग्रह पर मानवों की बसावट होगी और इससे विश्व पर क्या असर पड़ेगा। निस्संदेह यह कठिन काम होगा। यहां तक कि 2023 में भी जिन देशों ने अंतरिक्ष की कक्षा में मानवों को भेजा है वे अभी भी रुस या सोवियत संघ, अमेरिका, चीन और स्पेस एक्स कंपनी ही है।

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इस होड़ में जो जीतेगा वह मोटी कमाई करेगा (निजी कंपनी स्पेस एक्स का बाजार मूल्यांक आज 100 अरब डॉलर है) और उसके पास तकनीक होगी जिससे वह इस क्षेत्र में एकाधिकार स्थापित करेगा। बेहत क्षमतापूर्ण रॉकेट इंजन, नए ईंधन, दोबारा इस्तेमाल किए जाने लायक बेहद जटिल तकनीक और ईंधर को स्थानांतरित करने करे जैसे मामले हैं जो इस सबको चंद संस्थाओं या कंपनियों के ही हाथ में रहने देंगे।

किसी सैटेलाइट को लॉन्च करने की लागत सैकड़ो करोड़ रुपए होती है। अंतरिक्ष में एकाधिकार का मतलब यह होगा कि विशेष रूप से वाणिज्यिक पक्ष पर, यानी उपग्रह प्रक्षेपण, उन कंपनियों या देशों द्वारा नियंत्रित किया जाएगा जिनके पास जाने के अलावा अन्य कोई विकल्प नहीं होगा। यहां तक कि यूके और जर्मनी के पास भी आज कोई लॉन्च क्षमता नहीं है और वे लॉन्च करने के लिए अपने सहयोगी अमेरिका की निजी संस्थाओं पर निर्भर हैं।

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फ़्रांस का एरियन कार्यक्रम अपने पुराने रॉकेट को रिटायर कर देने के बाद फिलहाल निष्क्रिय है और एक नया रॉकेट विकसित कर रहा है। यह सब इसे दुनिया भर में अंतरिक्ष के लिए एक रोमांचक समय बनाता है। यह वह पृष्ठभूमि है जिसमें भारत चंद्रमा पर एक रोवर को सॉफ्ट-लैंड करने का प्रयास कर रहा है और उम्मीद है कि अगले साल किसी समय मानव को कक्षा में भेजने का प्रयास करेगा।

इस दशक के अंत तक, हमें इस बात का अच्छा अंदाजा हो जाएगा कि कौन से देश और कौन सी कंपनियां इस नई अंतरिक्ष दौड़ में जीत हासिल कर रही हैं, और न केवल विज्ञान और प्रौद्योगिकी के लिए बल्कि समग्र रूप से मनुष्यों के भविष्य के लिए इसका क्या मतलब है।

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