विचार

दुश्चक्र में घिरे गणतंत्र से एक चिट्ठी

अदालत को बे-झिझक कहना चाहिए कि देशभक्ति में विरोध शामिल है और असहमति देशद्रोह नहीं है

सुप्रीम कोर्ट से प्रोफेसर अली खान महमूदाबाद को राहत तो मिली है, लेकिन अदालत ने खुद ही कई सवाल खड़े कर दिए हैं
सुप्रीम कोर्ट से प्रोफेसर अली खान महमूदाबाद को राहत तो मिली है, लेकिन अदालत ने खुद ही कई सवाल खड़े कर दिए हैं 

एक ऐसे गणतंत्र से, जिसे कभी अपने तर्कशील नागरिकों और निर्भीक सार्वजनिक संवाद पर गर्व हुआ करता था, हम एक ऐसा देश बनने की राह चल पड़े हैं जहां हर विचारशील संवाद को तर्क से नहीं बल्कि विचारधारा से तौला जाने लगा है। प्रो. अली खान महमूदाबाद का मामला महज उनकी जमानत का मामला नहीं है; यह उस बहती हवा का मामला है जिसे हम बतौर नागरिक सांस के रूप लेते हैं, और यह जेल या उत्पीड़न के डर के बिना सोचने, लिखने और बोलने के हमारे अधिकार के बारे में है।

प्रो. अली खान को जमानत देने का सुप्रीम कोर्ट का फैसला- अपनी वैधानिकता के लिहाज से स्वागत योग्य होने के बावजूद कई चेतावनियों से भरा हुआ है, जो बताता है कि अब विचार ही संदेह के दायरे में है। नागरिक के आलोचना, विश्लेषण और चिंतन के अधिकार को बरकरार रखने के बजाय, अदालत की टिप्पणी में एक अंतर्निहित चेतावनी दी गई कि: सावधानी से बोलें, कहीं आपको गलत न समझ लिया जाए!

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आखिर प्रोफेसर का पाप क्या था? 

उन्होंने एक फेसबुक पोस्ट ही तो लिखी थी। यह लंबी, नपी-तुली और विचारपरक थी। यह भारत-पाकिस्तान रिश्तों की जटिल गतिशीलता, युद्ध की प्रकृति, हिंसा की निरर्थकता और जमीनी हकीकतों को ध्यान में रखे बिना सैन्य दृष्टिकोण का जश्न मनाने के पाखंड की ओर ध्यान आकर्षित कर रही थी। इसमें आतंकवाद की निंदा की गई, गैर-सरकारी पक्षों के साथ मिलीभगत के लिए पाकिस्तान की सेना की आलोचना और संयम तथा इंसानियत का आग्रह किया गया। प्रोफेसर का कहना था कि शांति खासी मुश्किल से हासिल होने वाली चीज है और जिसे टीवी स्टूडियो या ट्वीट की भरमार के शोर में आसानी से तय या हासिल नही किया जा सकता।

और इस गहन देशभक्ति से सराबोर, उत्तेजना की हद तक ईमानदार पोस्ट के लिए, उन पर देशद्रोह और सांप्रदायिक विद्वेष फैलाने का आरोप लग गया। हमें बताया जाता है कि राज्य को विध्वंसक तत्वों के खिलाफ कार्रवाई करनी चाहिए; कि कुछ बातें न ही कही जाएं तो बेहतर है; कि राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए असहमति पर लगाम लगाना जरूरी है।

लेकिन यह तर्क उस संवैधानिक गणतंत्र का दुश्मन है जिसका हम दावा करते हैं। इसकी नजर में नागरिक गोया बच्चे हैं जो बारीकियों, विडंबनाओं या जटिलताओं को समझने-संभालने में असमर्थ हैं; कि उन्हें आधिकारिक (सरकारी) आख्यानों की घुट्टी चम्मच से पिलाई जानी चाहिए। और इसीलिए, ऐसी कोई भी टिप्पणी जो राज्य को खुश नहीं करती, उसे विश्वासघात माना जाता है।

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हरियाणा राज्य महिला आयोग की अध्यक्ष रेणु भाटिया तो खुद को देशभक्ति की स्वयंभू संरक्षक ही मान बैठीं। जबरदस्त आक्रोश के साथ उन्होंने शिकायत की कि प्रोफेसर की पोस्ट से राष्ट्रीय भावना को ठेस पहुंची है। प्रोफेसर के तर्कपूर्ण शब्द उन्हें राष्ट्र के प्रति अपमानजनक लगे- एक ऐसा राष्ट्र जिसे, उनके विचार से, महज राष्ट्रवादी नारों और विचारहीन निष्ठा के जरिये ही मजबूत बनाया जा सकता है।

दरअसल, यही असल समस्या है। भारत का संविधान आज्ञाकारिता की बात नहीं करता; यह सहभागिता की बात करता है। यह अभिव्यक्ति की आजादी की गारंटी देता है, बहुमत की सुविधा के लिए नहीं बल्कि कभी-कभी होने वाली असुविधा के लिए भी। बोलने की आजादी में हमारे सशस्त्र बलों, हमारे निर्वाचित नेताओं, हमारी नीतियों के आचरण की आलोचना (सख्ती के साथ भी) करने की आजादी शामिल है। खासकर तब, जब उस आलोचना का उद्देश्य शांति और न्याय की इच्छा से प्रेरित हो, न कि पक्षपात या दुर्भावना से।

बतौर एक सतर्क पहरेदार सर्वोच्च न्यायालय महज कानून की एक अदालत नहीं है। यह आजादी का अंतिम किला है, यह समस्त नागरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा के लिए है, खासकर तब, जब बहुसंख्यकवाद की हवाएं कुछ ज्यादा तेज चल रहीं हों। लेकिन इस मामले में, इसकी आवाज आजादी के हक में पर्याप्त मुखर नहीं दिखी।

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जमानत देते वक्त यह टिप्पणी देकर कि बयान संदिग्ध था, शीर्ष अदालत ने एक सूक्ष्म लेकिन मजबूत संकेत दे दिया: बोलने से पहले ध्यान से सोचें। उकसावे में न आएं। मीनमेख न निकालें। नजरिए पर सवाल न उठाएं। और सबसे बढ़कर, अगर आप मुस्लिम हैं, तो अपने ‘रूपकों’ का ध्यान रखें।

और इसीलिए, सुश्री भाटिया जैसे लोगों को हिम्मत मिलेगी। वह खुद को एक सेंसर के रूप में नहीं, बल्कि राष्ट्रीय शुद्धता की नायिका के तौर पर देखेंगी। हर बार जब वह किसी ऐसे व्यक्ति को दंडित करने की मांग करेंगी, जो देशभक्ति के उनके विचार से मेल नहीं खाता, तो वह मान लेंगी कि उच्चतम न्यायालय, अगर उनके साथ नहीं होगा, तो कम-से-कम उन्हें पीछे हटने को भी नहीं ही कहेगा।

ऐसे मामलों में राज्य को जीतने की जरूरत नहीं है। उसे सिर्फ डराने की जरूरत है। मुकदमे की लंबी प्रक्रिया, मान-प्रतिष्ठा को ठेस, साथियों के छूटने का डर- यह सब उस बड़ी रणनीति को पूरा करने का काम करते हैं जिसे खामोशी कहते हैं। 

 लेकिन प्रोफेसर ने आखिर ऐसा क्या कह दिया, जिससे भक्त मंडली (कोरस) इतना आहत हो गई?

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उन्होंने अन्य बातों के अलावा लिखा: ‘नागरिक जीवन की हानि दोनों पक्षों के लिए दुखद है और यही असल कारण है कि युद्ध से बचना चाहिए…गरीबों को असमान रूप से कष्ट उठाना पड़ता है और सिर्फ राजनेता और रक्षा कंपनियां ही इससे लाभान्वित होती हैं… राजनीतिक संघर्षों का समाधान कभी भी सैन्य रास्ते से नहीं निकला है।’

यह जिहाद नहीं है। यह गांधीवादी यथार्थवाद है। यह अंबेडकरवादी असहमति है। यह वह अंतर्दृष्टि है जिसने नेहरू को जेल में ‘भारत की खोज’ लिखने के लिए प्रेरित किया; यह कोई फेसबुकिया विध्वंसकारी टिप्पणी नहीं है। प्रोफेसर ने अपनी बात का अंत भी ‘जय हिन्द’ कहकर किया है- महज दिखाने के लिए नहीं, अपने विश्वास के तौर पर। दरअसल, राज्य और उसके समर्थकों को यह बात परेशान नहीं करती कि प्रोफेसर गलत हो सकते हैं; बल्कि उनकी परेशानी का सबब यह है कि वह सही हो सकते हैं- और उनकी आवाज दूसरों को भी सोचने के लिए प्रेरित कर सकती है। असल में अब यही सोच खतरा बन गई है।

आइए याद करें कि किस तरह मैकार्थी युग के दौरान संयुक्त राज्य अमेरिका में लोगों को अपराधों के लिए नहीं बल्कि विचारों के लिए समितियों के सामने घसीटा जाता था। दोस्ती के लिए, किताबें पढ़ने के लिए, दूसरों की निंदा करने से इनकार करने के लिए। ऐसा लगता है कि हम उसी दौर का अपना देसी संस्करण तैयार करने में जुटे हुए हैं जिसमें फेसबुकिया जज और एफआईआर से खुश नौकरशाह शामिल हैं।

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प्रो. अली खान को कभी भी जमानत की जरूरत नहीं होनी चाहिए थी। उन्हें तो हमें यह याद दिलाने के लिए धन्यवाद दिया जाना चाहिए था कि युद्ध कोई वीडियो गेम नहीं है, और हमारे बेहतर देवदूत झंडों और वर्दी में नहीं बल्कि गहराई से, आलोचनात्मक और सहानुभूतिपूर्ण नजरिए के साथ सोचने की हमारी क्षमता में निहित हैं। इसके विपरीत, हम उस हाल में पहुंच गए हैं जहां एक शिक्षाविद के फेसबुक पोस्ट को देशद्रोह के कृत्य की तरह माना जाता है, जबकि ऑनलाइन नफरती भाषण, मॉब लिंचिंग और घरों को ढाह देने की घटनाओं को महज आंख के इशारे और सिर हिलाकर टाल दिया जाता है।

हम ऐसी मिसालें कायम रहने नहीं दे सकते। क्योंकि असल नुकसान सोच-समझकर लिखी गई फेसबुक पोस्ट में नहीं है; बल्कि इसे बनाने के लिए तो धीरे-धीरे जगह कम होती जा रही है। न्यायालय को इससे भी ऊपर उठना चाहिए। उसे महज जमानत नहीं देनी चाहिए, उसे अभिव्यक्ति की रक्षा करनी चाहिए। उसे अस्पष्टता से नहीं, बल्कि बहुत स्पष्टता के साथ रेखा खींचनी चाहिए। उसे बे-हिचक और बे-झिझक कहना चाहिए कि देशभक्ति में विरोध शामिल है और असहमति देशद्रोह नहीं है। अन्यथा, हम खुद को संविधान से नहीं बल्कि आक्रोश से शासित पाएंगे। और तब उस दुनिया में, विचार ही खतरनाक हो जाएगा।

जय हिन्द!

संजय हेगड़े सुप्रीम कोर्ट में वरिष्ठ अधिवक्ता हैं।

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