विचार

मृणाल पाण्डे का लेख: पूर्वोत्तर के अशांत पहाड़, असली दोषी कौन?

नगालैंड की वारदात पिछले सात बरसों में हमारे लगातार केन्द्र पर निर्भर बनते चले गए संघीय ढांचे की कमजोरी का सबूत है। पूर्वोत्तर इलाके के पहाड़ी राज्यों और उनकी विभिन्न कबीलाई अस्मिताओं की बाबत वैसे भी शेष देश बहुत कम जानता है। पढ़ें मृणाल पाण्डे का लेख।

फोटोः IANS
फोटोः IANS 

नागालैंड राज्य के मौन जिले में शनिवार 4 दिसंबर को भारतीय सेना के सहयोगी बल असम राइफल्स के एक गश्ती दल ने, गृह मंत्रालय के अनुसार, एक गलत पहचान के कारण कोयला खदान से घर लौट रहे मजदूरों पर फायरिंग कर दी। गोलीबारी के अगले दिन स्थानीय लोगों की गुस्साई भीड़ तथा असम राइफल्स के बीच फिर हिंसक झड़प हुई। इस सब में 13 निहत्थे नागरिक और भारतीय सेना का एक जवान मारे गए। सेना का कहना है कि उनको इलाके में उन अलगाववादी छापामारों की मौजूदगी की विश्वस्त जानकारी मिली थी जो घटना को अंजाम देकर सीमावर्ती देश म्यांमार में जा छुपते हैं। इसी कारण सशस्त्र बलों को सतर्क किया गया था। पूर्वोत्तर के इलाके, खासकर नगालैंड, लंबे समय से उग्रवाद और कबीलाई हिंसा से ग्रस्त रहे हैं। फिर भी हिंसा की यह वारदात 1997 के बाद से काफी शांत रहे नगालैंड में हालिया समय की सबसे घातक वारदातों में से एक मानी जा रही है।

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फिर भी यह शांति नाजुक बनी रही। 14 अगस्त, 1947 को फिजो ने जब नगाओं के भारतीय गणतंत्र से बाहर स्वायत्त रहने की घोषणा की, तब नेहरू जी की कई भरपूर कोशिशों के बाद ही हालात बेहतर हुए और सांस्कृतिक एवं राजनीतिक स्वायत्तता पर कई खास छूटें देकर ही उनको भारतीय गणराज्य में असम राज्य के तहत शामिल किया जा सका। 1956 से फिर वहां कई छापामार विद्रोही जत्थे उभरे जिनका भारतीय गणराज्य के खिलाफ एक लंबा संघर्ष 1997 तक रुकता- चलता रहा। चिंता की बात यह भी है कि उपरोक्त स्थितियों के बीच पिछले दो-तीन सालों से हमारी सीमा पर चीनी सेना लगातार लोककथाओं की तरह ‘मानुस गंध, मानुस गंध’ करती घूम और मौका पाते ही जमीन हथियाने में लगी हुई है। ऐसे समय सेना की यह चूक वाकई बहुत खतरनाक है। इसने आलोचकों को यह भी इंगित करने का मौका दे दिया है कि उत्तर पश्चिमी सीमा पर कश्मीर की ही तरह पूर्वोत्तर की पहाड़ियों के नगा भी दिल्ली द्वारा जबरन नागरिक अधिकारों से वंचित किए जाने से वे इलाके लगातार अशांत बन रहे हैं।

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सर्वानुमति की चौड़े पाटवाली वह भागीरथी जिसे नेहरू की सरकार ने बड़े जतन से लोकतांत्रिक जमीन पर उतारा था, दलों द्वारा जातीय-धार्मिक वोटों के फूटपरस्त ध्रुवीकरण और राज्य द्वारा वर्दीधारी राजकीय बलों को बार-बार जनाक्रोश को दबाने के लिए सड़क पर उतारने से सूख चली है। जब तक उनको लोकतंत्र और संविधान पर भरोसा था, कट्टर वैचारिक आस्था वाले दल भी अपनी-अपनी आस्थाओं का एक हिस्सा राष्ट्रीय सर्वानुमति की वेदी पर चढ़ा दिया करते थे। और उसकी वजह से हिलते-डुलते हए हर दैवी आपदा, भुखमरी या बाहरी हमले की स्थिति के बीच भी देश सबकी राय से चलता था। इधर, कुछ सालों से सर्वानुमति की जगह कट्टर सर्वभक्षी आस्था की राजनीति लेती जा रही है जिसके तहत हिन्दुओं से इतर धार्मिक पहचान वाले समूहों पर, उनके उपासना स्थलों पर हमले बढ़ रहे हैं। यह बात कठोर आफ्स्पा काननू की जद में रखे इस इलाके के लोगों को अतिरिक्त तौर से सशंक बनाती है क्योंकि पूर्वोत्तर के अधिकतर राज्यों के नागरिक या तो कबीलाई धर्म का पालन करते हैं या ईसाई हैं। गौरतलब है कि सीमा पर म्यांमार से सटे इस इलाके के कई विद्रोही गुट सारे पूर्वोत्तर में सक्रिय हैं। फिर जब महत्वपूर्ण राज्यों के चुनाव सर पर हों, तो अक्सर पक्ष-विपक्ष का राजनीतिक ध्रुवीकरण और सेना और अर्धसैनिक बलों का इलाका-दर-इलाका इस्तेमाल भी तेज हो जाता है। मथुरा में कृष्ण के नाम पर, कर्नाटक या हरियाणा में ईसाई चर्चों या नमाजियों पर हिंसक जत्थे छुड़वाने वालों को अब सोचना होगा कि अगर सारा देश किसी-न-किसी वजह से लड़ाकू खेमों में बांट दिया जाए, तो हमारी लोकतांत्रिक सरकार के लिए पाकिस्तानी हुक्मरानों की ही तरह सशस्त्र बलों को बारबार सड़कों पर उतारना एक स्थायी विवशता बन जाएगा। क्या यही वे चाहते हैं?

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सौ बात की एक बात यह कि भारत में सरकार चुनने के लिए चुनाव होते हैं, राष्ट्रीयता का ब्रांड विशेष चुनने के लिए नहीं। आज भी भारतीय जनमानस में आम राय का कट्टरपंथिता में सनी आस्था से कहीं अधिक महत्व है। तमाम साम, दाम, दंड, भेद अपनाने के बाद झख मार कर सरकार को कृषि काननूों की वापसी का ऐलान करना पड़ा या नहीं? इस देश की विविधता ही वजह है कि तमाम वैचारिक लहरें यहां समन्वयवादी बनने को विवश हो जाती हैं। लोहिया, चरण सिंह समर्थकों, कट्टर (मोरारजी मार्का) गांधीवादियों, वामपंथियों के दिल टूटे हैं, तो अखंड भारतवादियों के भी टूटना तय है। यहां बेशक संघ का यह तर्क दोहराया जा सकता है कि सत्तर बरसों की उदारवादिता भारत का विभाजन या कश्मीर और पंजाब का उग्रवाद या नगाओं का शस्त्र उठाना क्यों नहीं रोक पाई? क्यों न सनातनी हिन्दुत्व के धागे में पिरोया एक अखंड ताकतवर भारत बनाने का प्रयोग कठोर हो? हमारा विनम्र निवेदन यह है कि इस किस्म के प्रयोग के लिए जितना समय और हैसियत चाहिए, वह हमारे पास नहीं है। एशिया में आज हम महाशक्ति की बजाय एक मंझोले कद की आर्थिक शक्ति हैं। सामरिक तथा आर्थिक मोर्चों पर अमेरिका को पीछे कर चुका चीन हमको धोबीपाट देकर जब चाहे चित्त कर सकता है।

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अगर हिन्दू राष्ट्र सीमा-दर-सीमा, राज्य-दर-राज्य भीतर से कुतरा जाता रहा तो मुट्ठी भर राष्ट्रांश को सनातनी हिन्दू पहचान देने से भी क्या हासिल होगा? लोकतंत्र की खूबसूरती यह है कि वह किसी भी देश की तमाम असहमतियों और अंतर्द्वद्वों को छींके से उतार कर जमीन पर ले आता है और उनको गणतंत्र को अपने इलाके, अपनी संस्कृति और भाषा से लड़ते-भिड़ते नया बनते जाने का सकारात्मक मौका देता है। बांग्लादेश की आजादी का यह 50वां साल है। पाकिस्तान से अलग होकर उसने जो सांस्कृतिक, शैक्षिक पहचान बनाई और जैसी आर्थिक तरक्की की है, उसने यह बड़ी मज़बूती से साबित कर दिया है कि जिन्ना का द्विराष्ट्रीय सिद्धांत कितना पिलपिला था।

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