बरस चाहे जैसा भी बीता हो, मानसून की फुहारों के बीच आजादी का जश्न शहर और गांव हर कहीं, सहज खुशी और नई उम्मीदों का माहौल रच देता है। टीवी के सामने बैठा देश दम साधे इंतजार करता है, देखें इस बार प्रधानमंत्री लाल किले से किन मुद्दों को उठाते हैं? कैसी नई योजनाओं की घोषणा करते हैं? इस बार 15 अगस्त को लाल किले की दीवारों से अपने ताजा (छठे) भाषण में प्रधानमंत्री ने एक ऐसा कांटे का मुद्दा उठाया जिस पर ’70 के दशक के बाद से जरूरी होते हुए भी देश के नेतृत्व ने बात करना बंद कर रखा है। वह मुद्दा है विस्फोटक स्तर को छू रही आबादी पर काबू पाने का।
गौरतलब है कि चुनावी दृष्टि से परिवार नियोजन का मसला भले ही बेहद संवेदनशील साबित हो चुका हो; आबादी विशेषज्ञ, वित्तशास्त्री और पर्यावरणविद् दिल लगातार कहते आए हैं कि गरीब विकासशील देश की बेलगाम आबादी एक खतरनाक टिकटिकाता बम है। इसे तुरंत निरस्त न किया गया तो इसके विस्फोट से जल्द ही देशभर में साफ हवा, पानी, ऊर्जा, अन्न, आवास यानी जीवनयापन के लिए हर जरूरी तत्व की भारी किल्लत हो जाएगी। पर इससे पहले कि सरकार जबरिया नियंत्रण करने की पिछली सदी की गलतियां दोहराए, आबादी विषयक कुछ मिथकों और सच्चाइयों पर नजर डाल लेना ठीक होगा।
Published: undefined
पहली सच्चाई यह है कि यूएन की ताजा रपटों के अनुसार भारत की आबादी बढ़त की बजाय स्थिरता की तरफ जा रही है, और यही रफ्तार रही, तो अगले दो दशकों के बाद उसमें गिरावट दर्ज होने लगेगी। ग्लोबल पैमाने पर प्रति परिवार 2.1 जन्म दर होना कुल जनसंख्या के लिहाज से आदर्श स्थिति है। हमारे यहां यह दर 1950 से कम होती हुई आज 2.2 तक आ गई है। 2011 के जनगणना आंकड़ों के तहत 11 राज्यों में जन्म दर 2.1 से अधिक थी, पर जिस तरह आबादी घट चली है, 2031 तक बिहार जैसा पिछड़ा राज्य भी 2.1 संतान प्रति परिवार की दर हासिल कर लेगा।
दूसरा व्यापक मिथक यह फैलाया जा रहा है कि देश के कुछ समुदाय खासकर अल्पसंख्यक समुदाय बहुत बच्चे पैदा कर रहे हैं। 2011 के सरकारी आंकड़े इसे गलत साबित करते हैं। 2005-6 से 2015-16 के बीच हिंदू परिवारों में प्रजनन दर में जहां 2.13 प्रतिशत गिरावट आई, वहीं मुस्लिम समुदाय में 2.62 प्रतिशत गिरावट दर्ज हुई। दरअसल परिवारों में बच्चों की तादाद कम होने का सीधा रिश्ता परिवार की आय और शिक्षा स्तर में (खासकर माता का) बढ़त से जुड़ा है। यही कारण है कि भारत के सबसे समृद्ध जैन समुदाय में सबसे कम बच्चे जन्म ले रहे हैं।
Published: undefined
यहां पर दो कड़वी सच्चाइयां भी गौरतलब बनती हैं। पहली, भारतीय समाज में बेटे की अथाह भूख, जिसकी वजह से गैरकानूनी बना दिए जाने के बाद भी जोखिम मोल लेकर परिवार कन्या भ्रूण को कोख में ही नष्ट करा रहे हैं। शुरू में कुछ रायबहादुरों ने इस तकनीक का स्वागत करते हुए तर्क दिया था कि चलो अवांछित बेटी का जन्म न होने से आबादी पर अंकुश लग जाएगा। यह सोच कुदरत के नियम के खिलाफ तो थी ही, आज यह ‘कन्या विरल’ राज्यों में राज-समाज में हिंसा, युवा लड़कियों की बाहरी राज्यों से जानवरों जैसी खरीद-फरोख्त और बलात्कार को बढ़ाने वाला भी साबित हुआ है। दुनिया भर में जन्म लेने वाले बच्चों में कुदरतन 1000 लड़कों के पीछे औसतन 929 लड़कियां पैदा होती हैं।
चूंकि नवजातों में कन्याओं के अनुपात में लड़के 0-5 साल के बीच अधिक मरते हैं, इसलिए यह लिंगगत अनुपात बराबर कायम रखने का कुदरत का अपना तरीका है। पर भारत के कुछ राज्यों में कन्या भ्रूण हत्या से यह अनुपात गड़बड़ा गया है, जहां लड़कों के पीछे बहुत कम लड़कियां पैदा हो रही हैं। राजस्थान (1000:856), गुजरात (1000:855), उत्तराखंड (1000:841) और हरियाणा (1000:833) में तो लड़कियों का कम होता अनुपात सरकारी जन्मदर के आंकड़ों के आईने में अब साफ दिखाई देने लगा है। इन सभी राज्यों में बलात्कारों तथा स्त्रियों के प्रति हिंसा में जो बढ़ोतरी दर्ज हो रही है वह इससे काफी हद तक जुड़ी है, यह पुलिस और प्रशासन भी अब स्वीकार करने लगे हैं।
Published: undefined
दूसरी कटु सच्चाई है कि बड़ी आबादी के लिए उत्तर भारत के राज्य ही अधिक जिम्मेदार हैं। दक्षिण भारत ने आबादी बढ़त पर काबू पा लिया है। इसका साफ प्रतिबिंब उनके राज-समाज और बढ़ती सकल उत्पाद तथा आय दर में दिखता भी है। पर अब उनको शिकायत होने लगी है कि देश की सकल उत्पाद दर और आय में उनके कहीं बड़े योगदान के बावजूद उत्तर भारत को जनसंख्या बहुल होने के नाते देश की संसद में दक्षिणी राज्यों की तुलना में कहीं अधिक प्रतिनिधित्व मिला है। यानी देश की कुल आबादी को कम करने के उनके योगदान की एवज में उनको अधिक लोकतांत्रिक ताकत मिलने की बजाय उत्तर भारतीय राज-समाज की अमान्य नीतियों का अनचाहा वजन ढोना पड़ रहा है। उनके हिंदी विरोधी आंदोलनों में यह बात बार-बार उभरती है। इसकी अनदेखी करना गलत होगा।
तीसरी बात। जब-जब देश में सरकार द्वारा आबादी पर नियंत्रण के स्थाई तरीकों पर बात उठाई जाती है, नसबंदी का जिक्र होने लगता है। हर सरकार जान चुकी है कि पुरुष लोग अपनी नसबंदी कराने से किस तरह बिदकते-भड़कते रहे हैं। लिहाजा अंतत: यह बोझ भी महिला पर ही डाला जाना है। उस गरीब की दिक्कतें इससे भी कम नहीं होतीं। अब तक सरकारें आशा दीदी की मार्फत धन या जमीन के मुरब्बे का लालच देकर नसबंदी शिविर चलाती तो आई हैं, पर खबरें बता रही हैं कि एक तो महिला नसबंदी अक्सर अकुशल या अर्द्धकुशल हाथों से गांवों में लगवाए अस्थाई कैंपों में होती रही है। तिस पर अगर किसी महिला का केस बिगड़ गया, तो उसकी सुध लेने वाला जमीनी तंत्र नदारद मिलता है।
Published: undefined
कई नसबंदी करवा चुकी गरीब ग्रामीण महिलाओं ने इस लेखिका को यह भी बताया कि सर्जरी के बाद उनके पति तथा ससुराल वाले उनके चरित्र पर नाहक शक करने लगते हैं। और यदि उसके किसी बच्चे की बाद में मौत हो गई तो कई बार उसे बांझ या दुश्चरित्र करार देते हुए पति दूसरी पत्नी ले आता है। कहने को कहा जाता है कि इस मुहिम पर भारी प्रगति हुई है और आज महिलाएं और पुरुष इच्छानुसार कई तरह के गर्भनिरोधकों का इस्तेमाल कर सकते हैं। पर दूर-दराज गांवों में सिवा कंडोम या माला गोली के अन्य संसाधन आज भी सहज-सुलभ नहीं होते।
फिर हमारे राज-समाज में उस व्यापक जातिवाद और बहुसंख्यवाद का भी सवाल है, जिसकी वजह से विगत में देश के गरीब ‘तुर्कमान गेट कांड’ सरीखे दर्दनाक अनुभवों से गुजरे हैं। इधर यह सोच समाज में शिक्षा दर और औसत आय बढ़ने के बाद भी कम होने की बजाय लगातार बढ़ती हुई दिख रही है। ऐसे माहौल में जनसंख्या नियंत्रण की मुहिम को ग्राम या कस्बाती स्तर के असंवेदनशील जमीनी सरकारी जत्थों को सौंपना लोकतंत्र और सामाजिक समरसता दोनों पर गहरी चोट दे सकता है, यह कहने की जरूरत नहीं।
Published: undefined
असली सच आज भी वही है जिसको गांधीजी ने तब भी बार-बार रेखांकित किया था। पृथ्वी पर मौजूद संसाधन सबकी सामान्य जरूरतें तो पूरी कर सकते हैं, मगर किसी के असीमित लालच को तृप्त करने के लिए वे अपर्याप्त हैं। विश्व बैंक के अनुसार दुनिया की कुल आबादी का एक छोटा सा हिस्सा ऐसे अतिसमृद्ध लोग हैं जिन्होंने दुनिया के तीन चौथाई संसाधनों पर कब्जा कर रखा है। जो मीडिया इस चूहादौड़ को ‘अबस देखिये देखनजोगू’ के अंदाज में लगातार दिखाता और पर्यटकों को न्योतता है उसे शायद ऐसे विरोधाभास रेखांकित करना जरूरी नहीं लगता कि चीन ने जब से सिर्फ एक बच्चा प्रति परिवार सरीखे कठोर कदम उठा कर अपनी आबादी पर काबू पाया, उसकी आर्थिक तरक्की की रफ्तार में भारी इजाफा हुआ। लेकिन वहां भी जनता ने बेटा बचाने की चाह में नवजात कन्याओं को भारी तादाद में मारकर आबादी का लिंगानुपात बुरी तरह से गड़बड़ा दिया तो चीन को फिर से एकाधिक संतान पैदा करने की छूट देनी पड़ी।
तकनीकी दृष्टि से आबादी घटाने की बाबत विशेषज्ञों की चेतावनी अर्थहीन नहीं। लेकिन याद रखें जिस समय हम राज-समाज में आत्मसंयम लाए बिना फोर्ब्स या मेकेंजी की अरबपति, खरबपति सूचियों में हिंदुस्तानियों की तादाद बढ़ने पर गाल बजा रहे हैं, पर्यावरण हम सबको लिए दिए रसातल की ओर जा रहा है। जब हिमालयीन ग्लेशियरों के साथ गंगा, यमुना, गोदावरी, सिंधु-कावेरी सब की सब सरस्वती की तरह विलुप्त होने लगेंगी, और सस्ते ‘रिलीजस टूरिज्म’ की मार से हिमालय की छाती फट कर केदारनाथ त्रासदी की पुनरावृत्ति होगी, क्या हम तभी स्वीकारेंगे कि अतुल्य भारत को रचने की असली कीमत क्या है?
Published: undefined
Google न्यूज़, नवजीवन फेसबुक पेज और नवजीवन ट्विटर हैंडल पर जुड़ें
प्रिय पाठकों हमारे टेलीग्राम (Telegram) चैनल से जुड़िए और पल-पल की ताज़ा खबरें पाइए, यहां क्लिक करें @navjivanindia
Published: undefined