अभी कुछ दिन पहले आपातकाल की 50वीं वर्षगांठ की चर्चा रही। लेकिन एक और बरसी भी थी, वह भी हीरक जयंती यानी 75वीं सालगिरह, जिसका जिक्र कहीं नहीं सुना गया। यह बरसी थी भारतीय जनसंघ की स्थापना और उसके अस्तित्व में आने के कारणों की थी।
श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने 5 मई, 1950 को जनसंघ के गठन और उसके एजेंडा का ऐलान करते हुए 8-सूत्रीय कार्यक्रम सामने रखा था। यह सूत्र थे –
एकीकृत भारत (अखंड भारत भी पढ़ सकते हैं)
पाकिस्तान के प्रति तुष्टीकरण के बजाए पारस्परिक व्यवहार
स्वतंत्र विदेश नीति
शरणार्थियों का पुनर्वास
वस्तुओं के उत्पादन में वृद्धि और उद्योगों का विकेंद्रीकरण
एकल भारतीय संस्कृति का विकास
सभी नागरिकों को समान अधिकार और पिछड़े तबकों का उद्धार
पश्चिम बंगाल और बिहार की सीमाओं का पुनर्निर्धारण
हिंदू महासभा से आने वाले श्यामा प्रसाद मुखर्जी के अलावा जनसंघ की संरचना राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) से प्रेरित थी और आज भी यह पार्टी निस्संदेह अपने मातृ संघटन की सहायक संस्था बनी हुई है। आखिर आरएसएस राजनीति में क्यों आया? इसकी कहानी दिलचस्प है। कुछ साल पहले बीजेपी द्वारा प्रकाशित जनसंघ के आधिकारिक इतिहास में इसे इस तरह से समझाया गया है।
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दिसंबर 1947 में आरएसएस ने दिल्ली में एक रैली की, जिसमें बड़ी संख्या में लोग शामिल हुए। साथ ही कई हिंदू रियासतों के राजकुमार, कारोबारी और दूसरे हिंदू संगठनों के नेता भी इससे आकर्षित हुए। आरएसएस की इस लोकप्रियता ने कांग्रेस के कान खड़े कर दिए। और संघ के मुताबिक विशेष रूप से नेहरू काफी अचंभित हुए थे। 30 जनवरी 1948 को महात्मा गांधी की हत्या से कांग्रेस को मौका मिल गया और उसनें गांधी की हत्या के तीन दिन बाद यानी 2 फरवरी 1948 को आरएसएस पर प्रतिबंध लगा दिया।
आरएसएस प्रमुख गोलवलकर को आभास हो गया कि एक बार गांधी की हत्या की सारी पर्तें खुलीं तो संघ मुश्किल में पड़ जाएगा। वह तुरंत सक्रिय हुए। उन्होंने 30 जनवरी 1948 को ही यानी गांधी की हत्या के दिन ही आरएसएस की सभी शाखाओं को टेलीग्राम भेजकर शाखाओं के कार्यक्रमों को 13 दिन के लिए निलंबित कर दिया।
उसी दिन उन्होंने नेहरू, पटेल और देवदास गांधी को भी टेलीग्राम से शोक संदेश भेजा। इसमें लिखा था, “इस क्रूर घातक हमले और महानतम व्यक्तित्व की दुखद क्षति से स्तब्ध हूं।“ अगले दिन उन्होंने फिर से नेहरू को पत्र लिखकर अपना शोक व्यक्त किया और गोडसे को ‘कोई विचारहीन विकृत आत्मा’ बताते हुए लिखा कि उसने ‘पूज्य महात्माजी की गोली मारकर अचानक और वीभत्स तरीके से हत्या करने का जघन्य कृत्य किया था।’ उन्होंने हत्या को अक्षम्य और देशद्रोह का कृत्य बताया।
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उसी दिन उन्होंने पटेल को भी लिखा, ‘मेरा हृदय अत्यंत पीड़ा से भरा हुआ है। इस अपराध को करने वाले व्यक्ति की निंदा करने के लिए शब्द खोजना कठिन है…।’ आरएसएस को गैरकानूनी घोषित करने वाली सरकारी अधिसूचना में कहा गया था, ‘आरएसएस के घोषित उद्देश्य और लक्ष्य हिंदुओं की शारीरिक, बौद्धिक और नैतिक भलाई को बढ़ावा देना और उनके बीच भाईचारे, प्रेम और सेवा की भावनाओं को बढ़ावा देना है… हालांकि, सरकार ने खेद के साथ देखा है कि व्यवहार में आरएसएस के सदस्य अपने घोषित आदर्शों का पालन नहीं करते हैं।’ ‘संघ के सदस्यों द्वारा अवांछनीय और खतरनाक गतिविधियां की गई हैं (जो) आगजनी, लूट, डकैती और हत्या जैसी हिंसात्मक गतिविधियों में शामिल रहे हैं और अवैध हथियार और गोला-बारूद इकट्ठा किया है। वे लोगों को आग्नेयास्त्र इकट्ठा करने के लिए आतंकवादी तरीकों का सहारा लेने के लिए प्रेरित करने वाले पर्चे बांटते पाए गए हैं ... जिससे सरकार के लिए संघ से उसकी कॉर्पोरेट हैसियत से निपटना ज़रूरी हो गया है।’
गोलवलकर को 3 फरवरी को करीब 20,000 स्वंयसेवकों के साथ गिरफ्तार कर लिया गया। संघ कहता है कि यह हैरान करने वाला था कि कोई भी राजनीतिक दल या राजनीतिक नेता इसके पक्ष में न तो कुछ बोला और न ही साथ देने के लिए खड़ा हुआ। संघ पर पाबंदी करीब डेढ़ साल तक रही। और जब आरएसएस ने अपने संविधान को लिखकर प्रकाशित किया और सरकार के पास जमा कराया तो यह पाबंदी 11 जुलाई, 1949 को हटा ली गई।
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इसके फौरन बाद ही आरएसएस ने अपने मुखपत्र द ऑर्गेनाइजर के जरिए राजनीति में आने की चर्चा शुरु कर दी। ऑर्गेनाइजर में आरएसएस कार्यकर्ता के आर मलकानी का लेख छपा, जिसमें उन्होंने लिखा था कि ‘संघ को न सिर्फ खुद को बचाने के लिए, बल्कि अ-भारतीय र भारत विरोधी राजनीति को रोकने के लिए राजनीति में अवश्य आना चाहिए...और सरकारी मशीनरी के माध्यम से भारतीयता के लक्ष्य को आगे बढ़ाना चाहिए।’ इन कारणों से संघ को ‘सम्पूर्ण नागरिकों की राष्ट्रीय सांस्कृतिक शिक्षा के लिए एक आश्रम के रूप में जारी रहना चाहिए, लेकिन अपने आदर्शों की अधिक प्रभावी और शीघ्र प्राप्ति के लिए उसे एक राजनीतिक शाखा भी विकसित करनी चाहिए।’
मलकानी ने कहा कि नई पार्टी ‘प्राचीन मूल्यों का पुनरुत्थान करने वाली होगी क्योंकि यह अपने लक्ष्यों में भविष्यदर्शी होगी’ और इसे ‘विदेशी मूल्यों, दृष्टिकोण और तौर-तरीकों पर निर्भर न रहने’ के लिए कहा जाएगा और ‘हिंदुस्तान में इस पुनर्गठन का सिद्धांत केवल हिंदुत्व हो सकता है।’ आर्य समाज के आरएसएस कार्यकर्ता बलराज मधोक ने लिखा कि संघ को ‘देश की राजनीतिक और आर्थिक समस्याओं के संबंध में (संघ को) देश का नेतृत्व करना चाहिए’ क्योंकि यह ‘संघ के अस्तित्व के लिए महत्वपूर्ण है।’
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मुखर्जी ने 19 अप्रैल 1950 को संसद में दिए अपने बयान में कहा कि उन्होंने ‘बंगाल के विभाजन के पक्ष में जनमत तैयार करने में बहुत बड़ी भूमिका निभाई थी।’ इसके तहत उन्होंने ‘पूर्वी बंगाल (बाद में बांग्लादेश) के हिंदुओं को आश्वासन दिया कि अगर भविष्य में पाकिस्तान सरकार के हाथों उन्हें नुकसान उठाना पड़ा तो...स्वतंत्र भारत मूकदर्शक बनकर नहीं रहेगा।’
और जैसा कि हम 2025 के भारत में अपने आस-पास जो कुछ घटित हो रहा है, उसे पढ़ते और उसका आकलन करते हैं, तो पाते हैं कि इन्हें उन घटनाओं के माध्यम से ज्यादा बेहतर तरीके से समझा जा सकेगा, जो 75 वर्ष पूर्व की घटनाओं में दिखता है और जिनके कारण बीजेपी का गठन हुआ।
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