
चुनाव आयोग ने 'शुद्ध और आदर्श' मतदाता सूची की तलाश में एक (गलत) साहसिक कदम उठाया है। बारह राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में लागू होने के बावजूद, इसका ध्यान स्पष्ट रूप से जिस एक राज्य पर है और वह है पश्चिम बंगाल। 'अवैध प्रवासियों' को खोजने की होड़ के बाद पश्चिम बंगाल के मुख्य निर्वाचन अधिकारी कार्यालय के 'सूत्रों' से विवेकपूर्ण ढंग से लीक की गई जानकारी अब मृत मतदाताओं- कुल 21 लाख- को निशाना बना रही है।
राज्य में चल रहा विशेष गहन पुनरीक्षण अभियान (एसआईआर) चुनाव आयोग द्वारा निर्धारित नई तिथि 11 दिसंबर को समाप्त होने वाला है। यह इसके बीच ही सामने आया नवीनतम आंकड़ा है। दिसंबर की शुरुआत में, उत्तर 24 परगना जिले में मृत मतदाताओं की संख्या सबसे अधिक थी- लगभग 2.75 लाख। यह न केवल इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि 2003 के विशेष पुनरीक्षण के बाद से बहुत से मृतक मतदाता सूची में बने हुए हैं, बल्कि इसलिए भी कि यह जिला सीमा पर है और यहां अनुसूचित जाति नामशूद्र (मतुआ) समुदाय का भी बड़ा जमावड़ा है।
पश्चिम बंगाल में मतुआ समुदाय की संख्या 2.5 से 2.75 करोड़ के बीच है। इनमें से 1.70 करोड़ मतदाता हैं जो राज्य की अनुसूचित जाति की आबादी का 17 प्रतिशत है। यह राजवंशियों के बाद दूसरा सबसे बड़ा समूह है। यह मुख्यतः उत्तर बंगाल में केन्द्रित है लेकिन इसकी आबादी असम में भी है। हालांकि उनके चुनावी प्रभाव को नकारा नहीं जा सकता, फिर भी राज्य विधानसभा में केवल सात मतुआ विधायक हैं, जिनमें से छह सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस के हैं। यह उत्तर और दक्षिण 24 परगना जिलों के साथ-साथ नादिया जहां मतुआ समुदाय की अच्छी-खासी आबादी है, की मतदाता सूचियों में नाम जोड़े जाने और हटाने की आंशिक रूप से व्याख्या कर सकता है।
Published: undefined
मृतकों का पता लगाना और उनके नाम हटाना नियमित काम होना चाहिए था, क्योंकि चुनाव आयोग द्वारा भारी सार्वजनिक खर्च पर मतदाता सूचियों का लगभग निरंतर पुनरीक्षण किया जाता है। पश्चिम बंगाल के लोगों के मताधिकार और नागरिकता की सुरक्षा के लिए कांग्रेस पार्टी की राज्य इकाई द्वारा गठित विशेष समिति के अध्यक्ष प्रसेनजीत बोस ने यह बुनियादी सवाल उठाया है कि चुनाव आयोग ने मृत मतदाताओं की पहचान के लिए जन्म और मृत्यु के लिए ऑनलाइन नागरिक पंजीकरण प्रणाली का उपयोग क्यों नहीं किया? मतलब, चुनाव आयोग ने पंजीकृत जन्मों के आधार पर नए मतदाताओं की सूची क्यों नहीं बनाई?
बोस का कहना है कि अगर आयोग ने एसआईआर की तैयारी में ज्यादा समय और संसाधन लगाए होते, तो अभी नहीं मिल पा रहे, इधर-उधर चले गए, मृत और डुप्लिकेट मतदाताओं को लेकर हंगामा काफी कम होता। तब यह न सिर्फ उन बीएलओ के लिए आसान होता जो फॉर्म भरने और उनकी जानकारी अपलोड करने की नई-नई पद्धति को संभाल रहे हैं, बल्कि उन राजनीतिक दलों के लिए भी आसान होता जो मतदाता सूची संशोधन प्रक्रिया को लेकर आपस में झगड़ रहे हैं। अगर चुनाव आयोग ने पहले से तैयारी कर ली होती, तो 2026 के पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनावों की तैयारी का नजारा काफी अलग होता।
Published: undefined
मतदाता सूची में अभी भी मौजूद मृत, डुप्लिकेट और अनुपस्थित मतदाता संभावित रूप से वे नाम हैं जिनका इस्तेमाल फर्जी पहचान पत्र बनाने और 'झूठे' मतदाताओं को छिपाने के लिए किया जा सकता है। अगर भाजपा और माकपा की मानें, तो तृणमूल कांग्रेस ने कई लाख मृत, डुप्लिकेट और अनुपस्थित मतदाताओं को वोट बैंक में बदल दिया है, जिसकी बदौलत पिछले चुनावों में उसे शानदार सफलता मिली थी।
विडंबना यह है कि पश्चिम बंगाल में भाजपा वही 'वोट चोरी' वाली बात कह रही है, जिसे कांग्रेस और विपक्ष बिहार और महाराष्ट्र में भाजपा और एनडीए की जीत का आधार बता रहे हैं। भाजपा की पश्चिम बंगाल इकाई ने राज्य सरकार पर चुनाव प्रक्रिया में दखलंदाजी करने के लिए बीएलओ को हाईजैक करने का आरोप लगाया है- यह आरोप भाजपा शासित राज्यों में विपक्ष अक्सर लगाता है। भाजपा ने यहां संदिग्ध 'प्रविष्टियों' वाली बूथों और निर्वाचन क्षेत्रवार मतदाता सूचियों की ऑडिट की मांग की है।
Published: undefined
बाकी सब चीजों के अलावा, एसआईआर 2025-2026 इतिहास में मतदाताओं और बीएलओ- दोनों के मानसिक स्वास्थ्य को होने वाली क्षति के लिए भी जाना जाएगा, जो एक ऐसी प्रक्रिया की जटिलताओं से परेशान हैं, जिसमें पात्र मतदाताओं के सत्यापन के साथ नागरिकता के प्रमाण को भी शामिल कर दिया गया है। पश्चिम बंगाल में एसआईआर के बारे में आम धारणा वोटर लिस्ट से नाम हटाने की है। मतदाता सूची से किसे और क्यों हटाया जाएगा- यह बहस हिन्दू मतदाताओं की संख्या बनाम 'बांग्लादेशी', यानी कथित तौर पर अवैध मुस्लिम प्रवासियों की संख्या से प्रेरित है, जिनके नाम काटे जा सकते हैं।
अगर एसआईआर प्रक्रिया में मतुआ समुदाय के कुछेक लोगों के मताधिकार को भी छीन लिया जाता है, तो इससे उन्हें भी भारी नुकसान होगा । यह समुदाय भाजपा समर्थकों, तृणमूल कांग्रेस समर्थकों और दोनों के बीच बंटे हुए हैं। यही खतरा राजबंशियों और उन (ज्यादातर) मुस्लिम निवासियों पर भी है जिन्हें बांग्लादेशी नागरिक के रूप में भारत में रहने की अनुमति दी गई थी।
Published: undefined
यह विचित्र स्थिति भारत द्वारा विवादित परिक्षेत्रों में रहने वाले राज्यविहीन निवासियों को नागरिकता का विकल्प देने के निर्णय से भी उत्पन्न हुई है। भूमि सीमा समझौते पर मूलतः 1974 में हस्ताक्षर हुए और 2015 में इसकी पुष्टि हुई थी। इसके तहत 51 परिक्षेत्र भारतीय क्षेत्र बन गए, जबकि 111 बांग्लादेश में चले गए। भारत में अब इन परिक्षेत्रों में रहने वाले 15,000 लोगों में से, 1,000 से भी कम लोगों- जिनमें से अधिकांश हिन्दू हैं- ने भारतीय नागरिकता चुनी; बाकी लोग बांग्लादेशी नागरिक बने रहे और भारत में अपनी पैतृक भूमि पर रहते और काम करते रहे।
इसके विपरीत, बांग्लादेश ने अपने परिक्षेत्रों में रहने वाले हिन्दुओं और मुसलमानों- दोनों को पूर्ण नागरिकता प्रदान की। यह एसआईआर भारत में 'बांग्लादेशियों' के जीवन को किस प्रकार नया रूप देगा, यह देखने वाली बात है।
Published: undefined
Google न्यूज़, नवजीवन फेसबुक पेज और नवजीवन ट्विटर हैंडल पर जुड़ें
प्रिय पाठकों हमारे टेलीग्राम (Telegram) चैनल से जुड़िए और पल-पल की ताज़ा खबरें पाइए, यहां क्लिक करें @navjivanindia
Published: undefined