सबसे पहले एक चुटकुला। एक मंत्री जी से पूछा गया कि जरा-सा भी पानी बरसने पर शहरों में सड़कों पर नावें क्यों चलने लगी हैं? उनका उत्तर थाः यह आप आरोप लगा रहे हैं। दरअसल, हमने गंगा-यमुना तक को घर-घर पहुंचा दिया है।
यह गंभीर विषय है, लेकिन सच्चाई यही है कि स्मार्ट सिटी योजना ने अपने आपको चुटकुला ही बना लिया है। हम-आप दिल्ली, लखनऊ, प्रयागराज, पटना, भोपाल, देहरादून- सबका हाल देख ही रहे हैं। वैसे, आप चाहें, तो किसी भी 'स्मार्ट शहर' का नाम ले सकते हैं! ऐसा नहीं है कि पहले बारिश में इन शहरों में जलभराव नहीं होता था। लेकिन इक्का-दुक्का शहरों में ही सड़कों पर नाव चलने की स्थिति बनती थी। अब तो इस मामले में भी पूरा देश एक हो रहा है!
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2014 में नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में सरकार बनने के बाद देश के 100 शहरों को स्मार्ट सिटी बनाने का वायदा किया गया था। इनके लिए तय की गई समय सीमा जून 2024 में बीत चुकी है। सरकारी रिकॉर्ड की मानें, तो जुलाई 2024 तक 100 शहरों ने स्मार्ट सिटी मिशन के हिस्से के रूप में 1,44,237 करोड़ रुपये की राशि की 7,188 परियोजनाएं पूरी कर ली थीं। यह कुल प्रोजेक्ट का 90 प्रतिशत हिस्सा है। 19,926 करोड़ की राशि की शेष 830 परियोजनाएं भी पूरा होने के अंतिम चरण में हैं। मिशन के पास 100 शहरों के लिए 48,000 करोड़ का केन्द्र सरकार का आवंटित बजट है। केन्द्र सरकार 100 शहरों को 46,585 करोड़ जारी कर चुकी है।
यह केन्द्र सरकार के आवंटित बजट का 97 प्रतिशत है। इनमें से 93 प्रतिशत का उपयोग किया जा चुका है। मिशन ने 100 में से 74 शहरों को मिशन के तहत भारत सरकार की पूरी वित्तीय सहायता भी जारी कर दी है। भारत सरकार ने शेष 10 प्रतिशत परियोजनाओं को पूरा करने के लिए मिशन की अवधि 31 मार्च 2026 तक बढ़ा दी है। शहरों को सूचित किया गया है कि यह विस्तार मिशन के तहत पहले से स्वीकृत वित्तीय आवंटन से परे किसी भी अतिरिक्त लागत के बिना होगा। तब यह हाल क्यों है कि ये शहर हाथी-डुब्बा पानी के लिए कुख्यात हो गए हैं। इस बात को भी रोचक तो नहीं ही कहा जा सकता कि इनमें से अधिकांश शहर अभी एक महीने पहले तक पानी के लिए तरस रहे थे।
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असल में, अन्य योजनाओं की तरह इसमें भी शोशेबाजी ही अधिक थीः पहली बात तो यही कि जमीनी स्थिति का आकलन कभी किया ही नहीं गया; दूसरी कि अधिकतर खाका दिल्ली से ही बनकर गया और शहरों ने उसके अनुरूप कार्ययोजना फिट की। जिन 100 शहरों को स्मार्ट सिटी बनाने के लिए इतना बड़ा बजट रखा गया है, असल में यह उस शहर के एक छोटे से हिस्से के पुनर्निर्माण की योजना थी- कुछ शहरों में तो विशाल महानगर का महज एक फीसद हिस्सा ही। इसमें इस छोटे से हिस्से को पर्याप्त पानी की आपूर्ति, निश्चित विद्युत आपूर्ति, स्वच्छता समेत ठोस अपशिष्ट प्रबंधन, कुशल शहरी गतिशीलता और सार्वजनिक परिवहन, किफायती, खास तौर से गरीबों के लिए आवास, सुदृढ़ आईटी कनेक्टिविटी और डिजिटलीकरण, ई-गवर्नेंस, टिकाऊ पर्यावरण, नागरिकों की सुरक्षा और संरक्षा, विशेष रूप से महिलाओं, बच्चों एवं बुजुर्गों की सुरक्षा, और स्वास्थ्य और शिक्षा के लिए विकसित किया जाना था।
पढ़ने-सुनने में यह कितना अच्छा लग रहा है! पर इसमें जिस असली बात पर ध्यान नहीं दिया गया, वह यह है कि रोजगार, बेहतर स्वास्थ्य और शिक्षा-जैसे कारणों से हर शहर की आबादी रोज-ब-रोज बढ़ रही है और लोगों के रहने-कमाने की जगह आसपास ही बनाए रखने के बारे में सोचा ही नहीं गया। हमारे-आपके घरों, छोटी-छोटी कंपनियों में और दिहाड़ी पर काम करने वाले वैसे लोगों के लिए रहने की कोई व्यवस्था नहीं बनाई गई जो आसपास की झुग्गियों या निम्न आयवर्गीय इलाकों में रहते आए हैं।
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इन सब पर सोचने की जरूरत है कि दिल्ली से सटा गुरुग्राम, जो कभी असलियत में स्मार्ट या आधुनिक शहर हुआ करता था, अब क्यों दुर्दशा में है। भोपाल झीलों की नगरी है, फिर भी वहां सड़कों से पानी क्यों नहीं निकल पा रहा। देश के गिने-चुने अंतरराष्ट्रीय नगरों में एक- पंजिम की खासियत यह रही है कि यह समुद्र के किनारे बसा है, मैंग्रोव भी हैं जो पानी को नियंत्रित करते हैं और यहां नदी है, तब भी यहां जल भराव क्यों हो रहा। इन सबका एक कारण तो यह है कि नाले-सीवर की बरसात से पहले अनिवार्य साफ-सफाई पर ध्यान कम दिया जा रहा या फिर, इसे सिर्फ ठेकेदारों की कमाई का साधन बना दिया गया है। दूसरा बड़ा कारण यह है कि पारंपरिक नदी-तालाब और बड़े नाले लगभग खत्म ही हो गए हैं और उनकी जगह कंक्रीट के जंगल खड़े कर दिए गए हैं। पिछले वर्षों में शहरों में हुई बेतरतीब खोदाई और उनके मलबे के ढेर का उचित निस्तारण न करना भी परेशान का बड़ा कारण है।
कुछ जगहों पर तो अंतिम समय में योजनाओं में अचानक कटौती कर दी गई। पुडुचेरी में यातायात, सीवरेज, बाजार सुविधाओं और पार्किंग संबंधी समस्याओं को दूर करने के लिए नियोजित 66 विकास परियोजनाओं में से 32 को हाल ही में स्थगित कर दिया गया। परियोजनाओं का प्रारंभिक आकलित खर्च 1,056 करोड़ रुपये था, जो 34 परियोजनाओं के कार्यान्वयन के लिए लगभग 620 करोड़ रुपये रह गया है। केन्द्र सरकार का कहना है कि उसके द्वारा उपलब्ध करवाए गए बजट का इस्तेमाल बहुत काम हुआ, इसलिए उसने परियोजना स्थगित कर दी। इनमें 21 करोड़ रुपये की लागत से 5.5 एमएलडी की क्षमता वाले दो सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट (एसटीपी) स्थापित करने का प्रस्ताव भी शामिल है। स्वाभाविक ही सीवेज प्रबंधन की समस्याएं गंभीर हो गई हैं। शहरी क्षेत्रों में मैनहोल से सीवेज का ओवरफ्लो हो रहा है और जहरीली गैस का रिसाव हो रहा है। ऐसी ही एक घटना में हाल ही में तीन लोगों की जान चली गई।
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ऐसा नहीं कि सरकार को इसका अंदाजा नहीं। राजीव रंजन की अध्यक्षता वाली संसद की आवास और शहरी मामलों पर स्थायी समिति ने पिछले साल ही 8 फरवरी को "स्मार्ट शहर मिशनः एक मूल्यांकन" पर अपनी रिपोर्ट में परियोजना के पिछड़ने के कई कारण गिनाए, जिनमें स्मार्ट सिटी मिशन का कार्यान्वयन करने वाली एसवीपी (विशेष प्रयोजन साधन वाली लिमिटेड कंपनी) में स्थानीय शहरी निकायों और राज्यों के अफसरों के शामिल होने और उनका जल्दी-जल्दी तबादला होने को एक बड़ा कारण बताया गया है- मतलब, किसी अधिकारी ने योजना बनाई, उस पर काम शुरू किया, फिर अधबीच ही उसका ट्रांसफर कर दिया गया; अब नया अधिकारी नए सिरे से सबकुछ कर रहा है। फिर, स्मार्ट सिटी के लिए गठित समिति की बैठकें न होना या फिर बहुत कम होना, बैठक में सांसद-विधायक आदि के बताए काम शामिल करने का दबाव होने या फिर, जन प्रतिनिधियों के सुझाव कम ही शामिल होने की घटनाओं से भी कामकाज प्रभावित होते रहे। संसदीय समिति ने भी माना कि समूचे शहर के बनिस्पत शहर के एक छोटे से हिस्से में ही स्मार्ट सिटी परियोजना होने से इसके समग्र परिणाम नहीं दिखे। कचरा प्रबंधन, पेयजल आपूर्ति और यातायात प्रबंधन ऐसी चुनौतियां हैं जिन्हें यदि पूरे शहर में एक समान लागू न किया जाए तो उनका असर दिखने से रहा ।
संसदीय समिति ने अजीब-अजीब तरह की स्थिति पाई है। जैसे, उसने पाया कि स्मार्ट सिटी परियोजना की प्रगति उत्तरी पूर्वी राज्यों के शहरों समेत कई छोटे शहरों में धीमी है; कई शहरों के पास हजार करोड़ परियोजनाओं की योजना बनाने और खर्च करने की क्षमता ही नहीं थी। केन्द्र से 90 प्रतिशत निधि मिलने के बावजूद प्रगति के मामले में 15 में से 8 सबसे निचले रैंकिंग वाले शहर उत्तर-पूर्व से हैं। दिसंबर 2023 तक 20 सबसे निचले रैंकिंग वाले शहरों में 47 प्रतिशत परियोजनाएं कार्य आदेश चरण में थीं। इसका सबसे बड़ा कारण स्थानीय शहरी निकाय का तकनीकी और अन्य स्तर पर कमजोर होना और इतनी बड़ी परियोजनाओं की निगरानी में अक्षम होना था।
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हमारे शहरों में लगभग 49 प्रतिशत आबादी झोपड़पट्टियों और कच्ची कॉलोनियों में रहती है और इस 'स्मार्ट' योजना की सबसे बड़ी मार इन पर विस्थापन के रूप में पड़ी। कुछ जगहों पर इन्हें नए स्थान पर बसाया गया, तो इनके कार्यस्थल दूर हो गए। काम के लिए अधिक दूर जाना और इस कारण समय और आने-जाने का खर्च बढ़ने से यह सब आफत बन गई।
ऐसे में, इसका जवाब किसी के पास नहीं है कि कई हजार करोड़ के बावजूद कोई एक शहर तो क्या, एक गली भी 'स्मार्ट' क्यों नहीं हो पाई!
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