पूरी दुनिया इतिहास के किसी भी मोड़ पर आर्थिक, राजनैतिक, सामाजिक और पर्यावरणीय संदर्भों में एकाकार नहीं रही है, पर अब यह स्थिति सामने आ गई है। पूरी दुनिया में कट्टर दक्षिणपंथी ताकतें सत्ता में विराजमान हो रही हैं या फिर जल्दी ही होने वाली हैं, सामाजिक ध्रुवीकरण हरेक देश में चरम पर है, गरीबों और अमीरों के बीच खाई बढ़ती जा रही है और पर्यावरण विनाश हरेक देश में किया जा रहा है। दुनिया के हरेक देश में बिल्कुल एक जैसी स्थिति पहले कभी नहीं रही है।
लोकलुभानवादी और निरंकुश तानाशाही का विस्तार हरेक जगह है और हरेक देश की जनता ऐसी शक्तियों का समर्थन कर रही है। आज हत्यारे देशों, रूस, इजरायल, चीन, म्यांमार, उत्तर कोरिया और ईरान के साथ पूरी दुनिया प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तौर पर समर्थन में खड़ी है। वैश्विक राजनीति में परंपरागत तौर पर हाशिये पर रहने वाले ये देश अब राजनैतिक मुख्यधारा में हैं। इन सभी समस्याओं की जड़ में वैश्विक स्तर पर तेजी से बढ़ती आर्थिक असमानता है- यह अब इतना विकराल स्वरूप ले चुकी है कि अब इसे वैश्विक आपातस्थिति कहा जाने लगा है।
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जी20 समूह के एक स्वतंत्र पैनल ने हाल में ही आर्थिक असमानता की वैश्विक स्थिति पर एक रिपोर्ट प्रकाशित की है। इस पैनल के अध्यक्ष नोबेल प्राइज से सम्मानित अमेरिका के अर्थशास्त्री जोसेफ स्टिगलिट्ज़ थे और भारत की अर्थशास्त्री जयति घोष भी इसकी सदस्य थीं। इस रिपोर्ट के अनुसार आर्थिक असमानता पूरे विश्व में लगातार गहरी हो रही है। वैश्विक स्तर पर सबसे धनी 1 प्रतिशत आबादी के पास वर्ष 2000 से 2024 के बीच वैश्विक संपदा में वृद्धि का 41 प्रतिशत से भी अधिक है, जबकि सबसे गरीब 50 प्रतिशत आबादी के हिस्से महज 1 प्रतिशत संसाधन हैं। इतनी गहरी असमानता में किसी भी समाज का विकास असंभव है। संख्या की दृष्टि में बहुतायत में गरीब हैं पर राजनीति, समाज और अर्थव्यवस्था में उनकी कोई भागीदारी नहीं है। दूसरी तरफ दुनिया के सबसे धनी 1 प्रतिशत आबादी देश की अंदरूनी और बहुराष्ट्रीय दशा और दिशा का निर्णय लेती है।
दुनिया की बड़ी आबादी का राजनैतिक और आर्थिक संदर्भ में हाशिये पर धकेले जाने के कारण प्रजातंत्र खतरे में है, यह पूरी तरीके से समाप्त होने के कगार पर है। फरवरी 2024 में प्यू रिसर्च सेंटर ने भारत समेत 24 देशों का एक सर्वेक्षण प्रकाशित किया था। इसके नतीजे बेहद चौंकाने वाले और प्रजातंत्र की बदलती परिभाषा का परिचय देने वाले थे। भारत में 79 प्रतिशत प्रतिभागी प्रजातंत्र को सत्ता का सबसे बेहतर विकल्प मानते हैं, और 72 प्रतिशत प्रजातंत्र के मोदी-स्वरूप से संतुष्ट हैं। यही अपने आप में त्रासदी है कि मोदी-स्वरूप प्रजातंत्र को भी प्रजा प्रजातंत्र मान रही है।
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भारत के करीब दो-तिहाई लोग निरंकुश तानाशाही और सेना के सत्ता चलाने के भी समर्थक हैं। तानाशाही और सेना के सत्ता चलाने के संदर्भ में सर्वेक्षण में शामिल 24 देशों में सबसे अधिक समर्थन भारत में ही था। कुल 67 प्रतिशत जनता एक ताकतवर नेता चाहती है जिस पर न्यायपालिका, संवैधानिक संस्थाओं और विधायिका का कोई अंकुश नहीं हो। आश्चर्य यह है कि जनता निरंकुश सत्ता को भी प्रजातंत्र ही मानती है। वर्ष 2017 में कराए गए सर्वेक्षण में 55 प्रतिशत लोगों ने निरंकुश सत्ता का समर्थन किया था। जाहिर है प्रधानमंत्री मोदी के सत्ता में बने रहने से निरंकुश सत्ता का समर्थन बढ़ता जा रहा है।
युवाओं के बीच प्रजातंत्र की परिभाषा बदल रही है- उनके प्रजातंत्र और निरंकुश सत्ता के बीच का अंतर तेजी से मिट रहा है। वर्ष 2023 में ओपन सोसाइटी बैरोमीटर नामक संस्था ने एक अंतराष्ट्रीय सर्वेक्षण किया था, जिसमें भारत समेत 30 देशों के प्रतिभागी शामिल किए गए थे। इन देशों की सम्मिलित आबादी 5.5 अरब है और ये देश सभी महाद्वीप और आयवर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं। इस सर्वेक्षण में कुल 86 प्रतिशत प्रतिभागियों ने प्रजातंत्र को शासन की सबसे अच्छी व्यवस्था और 72 प्रतिशत प्रतिभागियों ने मानवाधिकारों का समर्थन करते हुए इसे प्रजातंत्र के लिए आवश्यक बताया था। पर, इस सर्वेक्षण में भी 18 से 35 वर्ष के बीच के महज 57 प्रतिशत प्रतिभागियों ने प्रजातंत्र का समर्थन किया था।
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पूंजीवादी व्यवस्था की बढ़ती ताकत ने पूंजीपतियों को दुनिया पर हुकूमत की आजादी दे दी है, इसमें अमीर पहले से अधिक अमीर हो रहे हैं और गरीबों को बस जिंदा रखा जा रहा है। पूंजीपतियों ने तकनीक, प्रोद्योगिकी और विज्ञान को भी अपने फायदे के लिए इस्तेमाल किया है। पैसे और ताकत का इस्तेमाल कर कट्टरपंथी ताकतों के लिए समर्थन बढ़ाया जा रहा है। मीडिया और सभी सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर पूंजीवादियों का वर्चस्व है और खबरें जनता तक वही पहुंचती हैं जिनसे पूंजीवाद बहाल होता है।
हमारे देश में मीडिया, सत्ता और पूंजीवाद का तालमेल बिल्कुल स्पष्ट है। जनता पूरी तरह उपेक्षित है, उसे बस जिंदा रखा जा रहा है। हमारे देश में आर्थिक असमानता जितनी है उतनी दुनिया में कहीं भी नहीं है। वैश्विक स्तर पर सबसे अमीर 1 प्रतिशत आबादी के पास 41 प्रतिशत संपदा है पर हमारे देश में यह आंकड़ा 62 प्रतिशत है। प्रधानमंत्री मोदी लगातार दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ने वाली अर्थव्यवस्था का जिक्र करते हैं। गरीब इसे सुनकर जोर से तालियां बजाते हैं पर उन्हें शायद मालूम नहीं है कि अर्थव्यवस्था के बढ़ते आकार के साथ ही अरबपतियों का मुनाफा और बढ़ता है। गरीब पहले से अधिक गरीब होते जाते हैं। गरीबी के साथ ही एक बड़ी आबादी समाज और अर्थव्यवस्था के ढांचे से बाहर पहुंच जाती है। गरीब आबादी के हिस्से का संसाधन अमीरों की जेब में पहुंचता है और गरीबों की कीमत बस 5 किलो अनाज रह जाती है।
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गरीबी का कोई स्वाभाविक स्वरूप नहीं रहता है, यह सरकारी योजनाओं की देन है। सरकारी योजनाएं पूंजीवादी व्यवस्था की देन हैं। इस असमानता के कारण राजनीति, समाज और पर्यावरण सभी नष्ट हो रहे हैं, पर पूंजीपतियों का मुनाफा बढ़ता जा रहा है। वैश्विक स्तर पर दुनिया की 90 प्रतिशत आबादी भारी आर्थिक असमानता से जूझ रही है। जी7 समूह के देशों में सबसे अधिक असमान देश अमेरिका है इसके बाद यूनाइटेड किंगडम का स्थान है।
जी20 समूह के देशों के साथ ही वैश्विक स्तर पर सबसे अधिक असमान देश भारत है। वर्ष 2000 से 2024 के बीच दुनिया की सबसे धनी 1 प्रतिशत आबादी की संपत्ति में औसतन 13 लाख डॉलर की वृद्धि हुई है, जबकि सबसे गरीब 50 प्रतिशत के हिस्से में महज 585 डॉलर ही बढ़े हैं। डॉलर के संदर्भ में वर्ष 2024 में कुल 2682 अरबपति थे पर वर्ष 2025 में इनकी संख्या 9919 तक पहुंच गई है। हमारे देश में बढ़ती आर्थिक असमानता बीजेपी सरकार की देन है। प्रधानमंत्री मोदी जब भी गरीबों की बात करते हैं अमीरों की संपत्ति बढ़ जाती है।
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