उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ और बीजेपी सांसद निशिकांत दुबे का सुप्रीम कोर्ट और न्यायपालिका के खिलाफ हल्ला बोल संविधान और इसके मूलभूत सिद्धांतो और मूल्यों पर हमला है। जब धनखड़ और दुबे शीर्ष प्राधिकार- राष्ट्रपति और संसद- के कामकाज की न्यायिक समीक्षा को खारिज करते हैं तो वे प्राकारांतर से संविधान-पूर्व की उस व्यवस्था की बहाली की तरफदारी करते हैं जिसके मुताबिक ‘राजा कोई भी गलती नहीं कर सकता’।
जब वे पिछड़े वर्गों, अल्पसंख्यकों, अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और महिलाओं को उत्पीड़न, अमानुषिकता और अत्याचार से बचाने के उनके संवैधानिक अधिकारों की रक्षा की सुप्रीम कोर्ट की पहल को ‘गृह युद्ध’ भड़काना करार देकर खारिज करते हैं तो वे एक तरह से ‘सामाजिक शांति’ के नाम पर उत्पीड़न, अमानुषिकता और अत्याचार का ही समर्थन करते हैं।
इस बात पर चिंतित होने के बजाय कि राष्ट्रपति ने विपक्ष शासित राज्य द्वारा बनाए गए कानून को एक उचित समयसीमा के भीतर मंजूरी नहीं दी, उपराष्ट्रपति इस बात पर उद्वेलित हो गए कि सुप्रीम कोर्ट ने राज्य विधानसभा के समयबद्ध फैसले के अधिकार की रक्षा की।
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न्यायपालिका और शीर्ष अदालत पर हमला क्यों
आरएसएस के नेतृत्व में एक सदी पुरानी परियोजना ने भारत में एक धर्मतंत्रीय, निरंकुश, पदानुक्रम वाले हिन्दू राष्ट्र की स्थापना के लिए कड़ी मशक्कत की है। जनता के समर्थन से एक उदार लोकतांत्रिक संविधान को अपनाना इस परियोजना के लिए बड़ी चुनौती पेश करता है और इसी वजह से संविधान को मूर्त रूप से नहीं भी तो इसके मूल भाव को तहस-नहस करना इस योजना का प्रमुख उद्देश्य रहा है।
मोदी सरकार ने पिछले दशक, खास तौर से 2019 के बाद, इस हिन्दू राष्ट्र प्रोजेक्ट को अभूतपूर्व रफ्तार, उग्रता और बलपूर्वक आगे बढ़ाया है। विभिन्न बीजेपी शासित प्रदेशों ने इस सदी के पहले दशक से इस परियोजना को अलग-अलग सीमा तक लागू किया है।
इसी का नतीजा है कि बीजेपी शासित प्रदेशों और केन्द्र सरकार में कार्यकारी और विधायी शाखाएं हिन्दू राष्ट्रवादी ताकतों के कब्जे में आ गई हैं और इनका काफी हद तक ‘हिन्दूकरण’ हो चुका है, यानी ये संविधान के धर्मनिरपेक्ष, समाजवादी लोकतांत्रिक भाव से ‘आजाद’ हो चुकी हैं। यह इस हद तक हुआ है कि ऐसा लगने लगा है कि कार्यकारी और विधायी शाखाओं के मामले में भारत में एक नवजात हिन्दू राष्ट्र स्थापित भी हो चुका है।
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हिन्दू राष्ट्र परियोजना के खयाल से न्यायपालिका को जल्द से जल्द काबू में करना बेहद जरूरी है। ऐसा इसलिए क्योंकि संसद के मौजूदा संविधान की जगह एक नए हिन्दू संविधान को अपनाकर भारत को ‘हिन्दू राष्ट्र’ घोषित करना व्यावहारिक नहीं। ऐसी किसी भी कोशिश को लोगों के व्यापक विरोध का सामना करना पड़ेगा। हिन्दू राष्ट्र घोषित करने का कहीं ज्यादा व्यावहारिक तरीका यह हो सकता है कि सुप्रीम कोर्ट ही मौजूदा संविधान की हिन्दू संविधान के रूप में न्यायिक व्याख्या करे और भारतीय गणतंत्र को हिन्दू राष्ट्र के रूप में पेश करे। इसके साथ ही संविधान और कानूनों के तमाम पहलुओं की हिन्दू राष्ट्र के नजरिये से व्याख्या करे।
लेकिन दिक्कत यह है कि हिन्दू राष्ट्र परियोजना न्यायपालिका को अपने कब्जे में लेने में नाकामयाब रहा है। मोदी सरकार को सत्ता में आए एक दशक से भी ज्यादा समय हो चुका है और इस दौरान सुप्रीम कोर्ट के 32 मौजूदा जजों में से सिर्फ दो जजों (24 अप्रैल 2024 तक) की नियुक्ति वह अपनी पसंद से करा पाई। इन दो जजों की नियुक्ति 2021 और 2023 में हुई और उन्हें बार से सीधे सुप्रीम कोर्ट भेजा गया। दो अन्य जजों को अटल बिहारी वाजपेयी सरकार ने 2003 में हाईकोर्ट जजों के तौर पर नियुक्त किया था।
जबकि सुप्रीम कोर्ट और कुछ हाईकोर्टों के कुछ फैसले हिन्दू राष्ट्र को स्वीकार करते हुए आए और जिनमें ‘सनातन धर्म’ को ‘आधारभूत मानदंडों’ के स्रोत के रूप में देखा गया (इन्हें ‘संविधानसम्मत’ फैसलों के बजाय ‘धर्मतंत्रात्मक’ फैसले कहना बेहतर होगा), फिर भी मोटे तौर पर न्यायपालिका ही शासन का एकमात्र अंग है जो हिन्दू राष्ट्रवादियों के कब्जे में पूरी तरह नहीं है और जिसमें अब भी संविधान की रक्षा करने और एक धर्मतंत्रात्मक, निरंकुश हिन्दू राष्ट्र को थोपे जाने की परियोजना पर पानी फेर देने की ताकत है।
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न्यायपालिका खुद को बचा सकी है तो इसकी बड़ी वजह कॉलेजियम व्यवस्था है। कॉलेजियम व्यवस्था के न होने से बीजेपी-संघ जिस तरह से जजों की नियुक्त को सीधे तौर पर प्रभावित कर सकते थे, वह अब तक नहीं हो सका है। इसी कारण हिन्दू राष्ट्र परियोजना के समर्थकों में न्यायपालिका के खिलाफ भारी हताशा और गुस्सा है। कई इसलिए असंतुष्ट हैं कि सुप्रीम कोर्ट मस्जिदों को तोड़कर उनकी जगह मंदिर बनाने की पहल कर रहे हिन्दू राष्ट्रवादियों से वैधानिक औचित्य और सबूत मांग रहा है या मुस्लिम धार्मिक संस्थाओं का दम घोंटने वाले वक्फ संबंधी नए कानून को अमल में लाने से रोक रहा है।
हिन्दू राष्ट्रवादी न्यायपालिका चाहते ही नहीं हैं। उनकी योजना एक ऐसी व्यवस्था को वापस लाने की है जिसमें बुद्धिमान ब्राह्मण ‘शास्त्रों’ और ‘सनातन धर्म’ के मुताबिक सही-गलत का फैसला करें। उनके लिए इस बात की कोई अहमियत नहीं है कि इस परियोजना को लोकप्रिय जनादेश हासिल नहीं - 2024 के चुनाव में बीजेपी को कुल डाले गए वोटों (23.6 करोड़) में से केवल 36 फीसद वोट मिले, जो भारत की आबादी का करीब16.5 फीसद ही है। बीजेपी के पास मौजूदा लोकसभा में खुद का बहुमत भी नहीं है।
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हमलों का क्या हो जवाब
कॉलेजियम व्यवस्था को न केवल बनाए रखा जाना चाहिए बल्कि इसे और मजबूत किया जाना चाहिए ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि केवल वैसे ही जज चुने जाएं जो संविधान की रक्षा करने के प्रति कृतसंकल्प हों। ऐसा करना यह सुनिश्चित करने के लिहाज से भी जरूरी है कि वैसे लोगों के पास सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्टों में जजों की नियुक्ति का अधिकार न हो जो संविधान को बदलकर हिन्दू राष्ट्र लाना चाहते हैं।
इन नेताओं के खिलाफ आपराधिक अवमानना की कार्यवाही से ऐसी न्यायपालिका की छवि बन सकती है जो ‘नेमो जुडेक्स इन कॉसा सुआ’ (किसी को भी अपने मामले में न्यायाधीश नहीं होना चाहिए) सिद्धांत के खिलाफ है, जो खुद के खिलाफ आलोचना पर खुद ही फैसला करती है, बिना किसी निष्पक्ष मानदंड या सबूत के यह तय करती है कि क्या किसी आपत्तिजनक बयान ने ‘अदालत के अधिकार को कम किया या उसे बदनाम किया है’।
ये हमले सुप्रीम कोर्ट, हाईकोर्ट तथा न्यायिक अकादमियों को संविधान के बारे में लोगों में जागरूकता फैलाने और भारत के आम लोगों के लिए इसके क्या मायने हैं, यह बताने का मौका देते हैं। सोशल मीडिया और जनसंचार की आज की दुनिया में भारत में अदालतों को इस पुरातन सिद्धांत से आगे बढ़ना चाहिए कि अदालत और जज केवल अपने फैसलों के माध्यम से ही बोलते हैं। उन्हें ऐसी आलोचनाओं का तर्क और शिष्टाचार के साथ जवाब देना चाहिए और संबंधित फैसलों को सरल शब्दों में समझाना चाहिए।
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यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के जजों तथा भारत के महा लेखापरीक्षक (कैग) के लिए संविधान में निहित शपथ प्रपत्र में पांच ऐसे शब्द दिए गए हैं जो दूसरे किसी शपथ में नहीं मिलते- ‘मैं संविधान की मर्यादा बनाए रखूंगा’। आज के इस संकट काल में जजों को इन पांच शब्दों को अत्यधिक गंभीरता से लेना चाहिए। जजों को संविधान को इसकी पूरी भावना के साथ अक्षुण्ण रखने के लिए आवश्यक पूर्व-सक्रियता को अपनाना चाहिए। संविधान को इसके सबसे बड़े खतरे से बचाने के लिए यह समय है कि भारत को धर्मतांत्रिक, निरंकुश हिन्दू राष्ट्र बनाने की परियोजना का पूरी दृढ़ता के साथ मुकाबला करके ऐसे प्रयासों का नाकाम किया जाए।
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